अनधिकार चेष्टा - पंचतंत्र - विष्णु शर्मा | Andhikar cheshta - Panchtantra - Vishnu Sharma
अनधिकार चेष्टा
अव्यापारेषु व्यापारं यो नरः कर्तुमिच्छति।
स एव निधनं याति कीलोत्पाटीव वानरः॥
दूसरे के काम में हस्तक्षेप करना मूर्खता है।
एक गाँव के पास, जंगल की सीमा पर, मंदिर बन रहा था। वहाँ के कारीगर दोपहर के समय भोजन के लिए गाँव में आ जाते थे।
एक दिन जब वे गाँव में आए हुए थे तो बंदरों का एक दल इधर-उधर घूमता हुआ वहीं आ गया जहाँ कारीगरों का काम चल रहा था। कारीगर उस समय वहां नहीं थे। बंदरों ने इधर-उधर उछलना और खेलना शुरू कर दिया।
वहीं एक कारीगर शहतीर को आधा चीरने के बाद उसमें कील फंसाकर गया था। एक बंदर को यह कौतूहल हुआ कि यह कील यहां क्यों फँसी हैं। तब आधे चिरे हुए शहतीर पर बैठकर वह अपने दोनों हाथों से कील को बाहर खींचने लगा। कील बहुत मजबूती से वहां गड़ी थी इसलिए बाहर नहीं निकली। लेकिन बंदर भी हठी था, वह पूरे बल से कील निकालने में जूझ गया।
अन्त में भारी झटके के साथ वह कील निकल आई, किन्तु उसके निकलते ही बंदर का पिछला भाग शहतीर के चिरे हुए दो भागों के बीच में आकर पिचक गया। अभागा बंदर वहीं तड़प-तड़पकर मर गया।
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इसीलिए मैं कहता हूँ कि हमें दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हमें शेर के भोजन का अवशेष तो मिल ही जाता है, अन्य बातों की चिंता क्यों करें?”
दमनक ने कहा- “करटक! तुझे तो बस अपने अवशिष्ट आहार की ही चिंता रहती है। स्वामी के हित की तो तुझे परवाह ही नहीं।”
करटक- “हमारी हित चिंता से क्या होता है ? हमारी गिनती उसके प्रधान सहायकों में तो है ही नहीं। बिना पूछे सम्मति देना मूर्खता है। इससे अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता।”
दमनक- “प्रधान-अप्रधान की बात रहने दो। जो भी स्वामी की अच्छी सेवा करेगा वह प्रधान बन जायेगा जो सेवा नहीं करेगा वह प्रधान पद से भी गिर जाएगा। राजा, स्त्री और लता का यही नियम है कि वह पास रहने वाले को ही अपनाते है।”
करटक- “तब क्या किया जाए? अपना अभिप्राय स्पष्ट-स्पष्ट कह दे।”
दमनक- “आज हमारा स्वामी बहुत भयभीत है। उसके भय का कारण जानकर संधि, विग्रह, आसन, संश्रय, द्वैधीभाव आदि उपायों से हम भयनिवारण की सलाह देंगे।”
करटक- “तुझे कैसे मालूम कि स्वामी भयभीत है?”
दमनक- “यह जानना कोई कठिन काम नहीं है। मन के भाव छिपे नहीं रहते। चेहरे से, इशारों से, चेष्टा से, भाषण-शैली से, आँखों की भ्रूभंगी से, वे सब के सामने आ जाते हैं। आज हमारा स्वामी भयभीत है। उसके भय को दूर करके हम उसे अपने वश में कर सकते हैं। तब वह हमें अपना प्रधान सचिव बना लेगा।”
करटक- “तू राजसेवा के नियमों से अनभिज्ञ है, स्वामी को वश में कैसे करेगा?”
दमनक- “मैंने तो बचपन में अपने पिता के संग खेलते-खेलते राजसेवा का पाठ पढ़ लिया था। राजसेवा स्वयं एक कला है। मैं उस कला में प्रवीण हूँ।”
यह कहकर दमनक ने राजसेवा के नियमों का निर्देश किया। राजा को संतुष्ट करने और उसकी दृष्टि में सम्मान पाने के अनेक उपाय भी बतलाए। करटक दमनक की चतुराई देखकर दंग रह गया। उसने भी उसकी बात मान ली और दोनों शेर की राजसभा की ओर चल दिए।
दमनक को आता देखकर पिंगलक द्वारपाल से बोला- “हमारे भूतपूर्व मंत्री का पुत्र दमनक आ रहा है, उसे हमारे पास बेरोक आने दो।”
दमनक राजसभा में आकर पिंगलक को प्रणाम करके अपने निर्दिष्ट स्थान पर बैठ गया। पिंगलक ने अपना दाहिना हाथ उठाकर दमनक से कुशल-क्षेम पूछते हुए कहा- “कहो दमनक! सब कुशल तो है? बहुत दिनों बाद आए? क्या कोई विशेष प्रयोजन है?”
दमनक- “विशेष प्रयोजन तो कोई भी नहीं। फिर भी सेवक को स्वामी के हित की बात कहने के लिए स्वयं आना चाहिए। राजा के पास उत्तम, मध्यम, अधम, सभी प्रकार के सेवक हैं। राजा के लिए सभी का प्रयोजन है। समय पर तिनके का भी सहारा लेना पड़ता है, सेवक की तो बात ही क्या है?”
“आपने बहुत दिन बाद आने का उपालम्भ दिया है। उसका भी कारण है। जहाँ काँच की जगह मणि और मणि के स्थान पर काँच जड़ा जाए, वहाँ अच्छे सेवक नहीं ठहरते। जहाँ पारखी नहीं, वहाँ रत्नों का मूल्य नहीं लगता। स्वामी और सेवक परस्पराश्रयी होते हैं। उन्हें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। राजा तो संतुष्ट होकर सेवक को केवल सम्मान देते हैं- किन्तु सेवक संतुष्ट होकर राजा के लिए प्राणों की बलि दे देता है।”
पिंगलक दमनक की बातों से प्रसन्न होकर बोला- “तू तो हमारे भूतपूर्व मंत्री का पुत्र है, इसलिए तुझे जो कहना है, निश्चिंत होकर कह दे।”
दमनक – “मैं स्वामी से कुछ एकांत में कहना चाहता हूँ। चार कानों में ही भेद की बात सुरक्षित रह सकती है, छह कानों में कोई भेद गुप्त नहीं रह सकता।”
तब पिंगलक ने इशारे से बाघ, रीछ, चीते आदि सब जानवरों को सभा से बाहर भेज दिया।
सभा में एकांत होने के बाद दमनक ने शेर के कानों के पास जाकर प्रश्न किया-
दमनक – “स्वामी! जब आप पानी पीने गए थे, तब पानी पिए बिना क्यों लौट आए थे? इसका कारण क्या था?”
पिंगलक ने जरा सूखी हँसी हँसते हुए उत्तर दिया- कुछ भी नहीं।
दमनक- “देव! यदि वह बात कहने योग्य नहीं है तो मत कहिए। सभी बातें कहने योग्य नहीं होतीं। कुछ बातें अपनी स्त्री से भी छिपाने योग्य होती हैं। कुछ पुत्रों से भी छिपा ली जाती हैं। बहुत अनुरोध पर भी ये बातें नहीं कही जातीं।”
पिंगलक ने सोचा- ‘यह दमनक बुद्धिमान दिखता है; क्यों न इससे अपने मन की बात कह दी जाए।’ यह सोच वह कहने लगा-
पिंगलक- “दमनक! दूर से जो यह हुंकार की आवाज़ आ रही है, उसे तुम सुनते हो?”
दमनक- “सुनता हूं स्वामी! उससे क्या हुआ?”
पिंगलक- “दमनक! मैं इस वन चले जाने की बात सोच रहा हूँ। दमनक-किसलिए भगवन!”
पिंगलक- “इसलिए कि इस वन में यह कोई दूसरा बलशाली जानवर आ गया है; उसी का यह भयंकर घोर गर्जन है। अपनी आवाज की तरह वह स्वयं भी इतना ही भयंकर होगा। उसका पराक्रम भी इतना ही भयानक होगा।”
दमनक- “स्वामी! ऊँचे शब्द मात्र से भय करना युक्तियुक्त नहीं है। ऊंचे शब्द तो अनेक प्रकार के होते हैं। भेरी, मृदंग, पटह, शंख, काहल आदि अनेक वाद्य हैं, जिनकी आवाज़ बहुत ऊँची होती है। उनसे कौन डरता है? यह जंगल आपके पूर्वजों के समय का है। वे यहीं राज्य करते रहे हैं। इसे इस तरह छोड़कर जाना ठीक नहीं। ढोल भी कितने जोर से बजता है। गोमायु को उसके अंदर जाकर ही पता लगा कि वह अंदर से खाली था।”
पिंगलक ने कहा- “गोमायु की कहानी कैसी है?”
दमनक ने तब कहा- “ध्यान देकर सुनिए