धन सब क्लेशों की जड़ है - पंचतंत्र - विष्णु शर्मा | Dhan sab kleshon ki jad - Panchtantra - Vishnu Sharma by विष्णु शर्मा

धन सब क्लेशों की जड़ है

दक्षिण देश के एक प्रान्त में महिलारोप्य नामक नगर से थोड़ी दूर महादेव जीका मंदिर था। वहाँ ताम्रचूड़ नाम का भिक्षु रहता था। वह नगर से भिक्षा माँगकर भोजन कर लेता था और भिक्षा-शेष को भिक्षा-पात्र में रखकर खूंटी पर टांग देता था। सुबह उसी भिक्षा-शेष में से थोड़ा-थोड़ा अन्न वब अपने नौकरों को बांट देता था और उन नौकरों से मंदिर की लिपाई-पुताई और सफाई कराता था।
एक दिन मेरे कई जाति-भाई चूहों ने मेरे पास आकर कहा- “स्वामी! वब ब्राह्मण खूंटी पर भिक्षा-शेष वाला पात्र टांग देता है, जिससे हम उस पात्र तक नहीं पहुँच सकते। आप चाहें तो खूंटी पर टंगे पात्र तक पहुँच सकते हैं। आपकी कृपा से हमें भी प्रतिदिन उस में से अन्न-भोजन मिल सकता है।
उनकी प्रार्थना सुनकर मैं उन्हें साथ लेकर उसी रात वहाँ पहुँचा। उछलकर मैं खूंटी पर टंगे पात्र तक पहुँच गया। वहाँ से अपने साथियों को भी मैंने भरपेट अन्न दिया और स्वयं भी खूब खाया। प्रतिदिन इसी तरह मैं अपना और अपने साथियों का पेट पालता रहा।
ताम्रचूड़ ब्राह्मण ने इस चोरी का एक उपाय किया। वह कहीं से बास का डंडा ले आया और उससे रात भर खूंटी पर टंगे पात्र को खटखटाता रहता। मैं भी बांस से पिटने के डर से पात्र में नहीं जाता था। सारी रात यही संघर्ष चलता रहता।
कुछ दिन बाद उस मंदिर में बृहत्स्फिक नाम का एक संन्यासी अतिथि बनकर आया। ताम्रचूड़ ने उसका बहुत सत्कार किया। रात के समय दोनों में देर तक धर्म-चर्चा भी होती रही। किंतु ताम्रचूड़ ने उस चर्चा के बीच भी फटे बांस से भिक्षापात्र को खटकाने का कार्यक्रम चालू रखा। आगन्तुक संन्यासी को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने समझा कि ताम्रचूड़ उसकी बात को पूरे ध्यान से नहीं सुन रहा। इसे उसने अपना अपमान भी समझा। इसीलिये अत्यन्त क्रोधविष्ट होकर उसने कहा- “ताम्रचूड़! तू मेरे साथ मैत्री नहीं निभा रहा। मुझ से पूरे मन से बात भी नहीं करता। मैं भी इसी समय तेरा मंदिर छोड़कर दूसरी जगह चला जाता हूँ।”
ताम्रचूड़ ने डरते हुए उत्तर दिया- “मित्र, तू मेरा अनन्य मित्र है। मेरी व्यग्रता का कारण दूसरा है; वह यह कि यह दुष्ट चूहा खूंटी पर टंगे भिक्षापात्र में से भी भोज्य वस्तुओं को चुराकर खा जाता है। चूहे को डराने के लिये ही मैं भिक्षापात्र को खटका रहा हूँ। इस चूहे ने तो उछलने में बिल्ली और बन्दर को भी मात कर दिया है।”
बृहत्स्फिक- “उस चूहे का बिल तुझे मालूम है?”
ताम्रचूड़- “नहीं, मैं नहीं जानता।”
बृहत्स्फिक- “हो न हो इसका बिल भूमि में गड़े किसी खजाने के ऊपर है; तभी, उसकी गर्मी से यह इतना उछलता है। कोई भी काम अकारण नहीं होता। कूटे हुए तिलों को यदि कोई बिना कूटे तिलों के भाव बेचने लगे तो भी उसका कारण होता है।
ताम्रचूड़ ने पूछा कि, “कूटे हुए तिलों का उदाहरण आप ने कैसे दिया?”
बृहत्स्फिक ने तब कूटे हुए तिलों की बिक्री की यह कहानी सुनाई-

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