चार मूर्ख पंडित - पंचतंत्र - विष्णु शर्मा | Char Moorakh Pandit - Panchtantra - Vishnu Sharma
चार मूर्ख पंडित
अपि शास्त्रेषु कुशला लोकाचारविवर्जिताः ।
सर्वे ते हास्यतां यान्ति यथा ते मूर्खपंडिताः ।।
व्यवहार-बुद्धि के बिना पंडित भी मूर्ख होते हैं।
एक स्थान पर चार ब्राह्मण रहते थे। चारों विद्याभ्यास के लिये कान्यकुब्ज गये। निरन्तर १२ वर्ष तक विद्या पढ़ने के बाद वे सम्पूर्ण शास्त्रों के पारंगत विद्वान हो गये, किन्तु व्यवहार-बुद्धि से चारों खाली थे। विद्याभ्यास के बाद चारों स्वदेश के लिये लौट पड़े। कुछ़ देर चलने के बाद रास्ता दो ओर फटता था। ’किस मार्ग से जाना चाहिये,’ इसका कोई भी निश्चय न करने पर वे वहीं बैठ गये। इसी समय वहां से एक मृत वैश्य बालक की अर्थी निकली। अर्थी के साथ बहुत से महाजन भी थे। 'महाजन' नाम से उनमें से एक को कुछ याद आ गया। उसने पुस्तक के पन्ने पलटकर देखा तो लिखा था- "महाजनो येन गतः स पन्थाः" अर्थात् जिस मार्ग से महाजन जाये, वही मार्ग है। पुस्तक में लिखे को ब्रह्म-वाक्य मानने वाले चारों पंडित महाजनों के पीछे़-पीछे़ श्मशान की ओर चल पड़े।
थोड़ी दूर पर श्मशान में उन्होंने एक गधे को खड़ा हुआ देखा। गधे को देखते ही उन्हें शास्त्र की यह बात याद आ गई "राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः" अर्थात् राजद्वार और श्मशान में जो खड़ा हो, वह भाई होता है। फिर क्या था, चारों ने उस श्मशान में खड़े गधे को भाई बना लिया। कोई उसके गले से लिपट गया, तो कोई उसके पैर धोने लगा।
इतने में एक ऊँट उधर से गुजरा। उसे देखकर सब विचार में पड़ गये कि यह कौन है। १२ वर्ष तक विद्यालय की चारदीवारी में रहते हुए उन्हें पुस्तकों के अतिरिक्त संसार की किसी वस्तु का ज्ञान नहीं था। ऊँट को वेग से भागते हुए देखकर उनमें से एक को पुस्तक में लिखा यह वाक्य याद आ गया- "धर्मस्य त्वरिता गतिः" अर्थात् धर्म की गति में बड़ा वेग होता है। उन्हें निश्चय हो गया कि वेग से जाने वाली यह वस्तु अवश्य धर्म है। उसी समय उनमें से एक को याद आया- "इष्टं धर्मेण योजयेत् " अर्थात् धर्म का संयोग इष्ट से करादे। उनकी समझ में इष्ट बान्धव था गधा और ऊँट या धर्म; दोनों का संयोग कराना उन्होंने शास्त्रोक्त मान लिया। बस, खींचखांच कर उन्होंने ऊँट के गले में गधा बाँध दिया। वह गधा एक धोबी का था। उसे पता लगा तो वह भागा हुआ आया। उसे अपनी ओर आता देखकर चारों शास्त्र-पारंगत पंडित वहाँ से भाग खडे़ हुए।
थोड़ी दूर पर एक नदी थी। नदी में पलाश का एक पत्ता तैरता हुआ आ रहा था। इसे देखते ही उनमें से एक को याद आ गया- "आगमिष्यति यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति" अर्थात् जो पत्ता तैरता हुआ आयगा, वही हमारा उद्धार करेगा। उद्धार की इच्छा से वह मूर्ख पंडित पत्ते पर लेट गया । पत्ता पानी में डूब गया तो वह भी डूबने लगा। केवल उसकी शिखा पानी से बाहिर रह गई। इसी तरह बहते-बहते जब वह दूसरे मूर्ख पंडित के पास पहुँचा तो उसे एक और शास्त्रोक्त वाक्य याद आ गया- "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पंडितः" अर्थात् सम्पूर्ण का नाश होते देखकर आधे को बचाले और आधे का त्याग कर दे। यह याद आते ही उसने बहते हुए पूरे आदमी का आधा भाग बचाने के लिये उसकी शिखा पकड़कर गरदन काट दी। उसके हाथ में केवल सिर का हिस्सा आ गया। देह पानी में बह गई ।
उन चार के अब तीन रह गये। गाँव पहुँचने पर तीनों को अलग-अलग घरों में ठहराया गया। वहां उन्हें जब भोजन दिया गया तो एक ने सेमियों को यह कहकर छो़ड़ दिया- "दीर्घसूत्री विनश्यति" अर्थात् दीर्घ तन्तु वाली वस्तु नष्ट हो जाती है। दूसरे को रोटियां दी गईं तो उसे याद आ गया- "अतिविस्तारविस्तीर्णं तद्भवेन्न चिरायुषम्" अर्थात् बहुत फैली हुई वस्तु आयु को घटाती है। तीसरे को छिद्र वाली वटिका दी गयी तो उसे याद आ गया- “छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति” अर्थात् छिद्र वाली वस्तु में बहुत अनर्थ होते हैं। परिणाम यह हुआ कि तीनों की जगहँसाई हुई और तीनों भूखे भी रहे।
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व्यवहार-बुद्धि के बिना पंडित भी मूर्ख ही रहते हैं। व्यवहार-बुद्धि भी एक ही होती है। सैकड़ों बुद्धियाँ रखने वाला सदा डांवा-डोल रहता है। उसकी वही दशा होती है जो शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि मछली की हुई थी। मंडूक के पास एक ही बुद्धि थी इसलिये वह बच गया।
चक्रधर ने पूछा- “यह कैसे हूआ?”
स्वर्णसिद्धि ने तब यह कथा सुनाई-