मित्र की शिक्षा मानो - पंचतंत्र - विष्णु शर्मा | Mitra ki siksha mano - Panchtantra - Vishnu Sharma
मित्र की शिक्षा मानो
एक बार मन्थरक नाम के जुलाहे के सब उपकरण, जो कपड़ा बुनने के काम आते थे, टूट गये। उपकरणों को फिर बनाने के लिये लकड़ी की जरुरत थी। लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी लेकर वह समुद्रतट पर स्थित वन की ओर चल दिया। समुद्र के किनारे पहुँचकर उसने एक वृक्ष देखा और सोचा कि इसकी लकड़ी से उसके सब उपकरण बन जायेंगे। यह सोच कर वृक्ष के तने में वह कुल्हाडी मारने को ही था कि वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक देव ने उसे कहा- "मैं इस वृक्ष पर आनन्द से रहता हूँ, और समुद्र की शीतल हवा का आनन्द लेता हूँ। तुम्हें इस वृक्ष को काटना उचित नहीं। दूसरे के सुख को छीनने वाला कभी सुखी नहीं होता।"
जुलाहे ने कहा- "मैं भी लाचार हूँ। लकड़ी के बिना मेरे उपकरण नहीं बनेंगे, कपड़ा नही बुना जायेगा, जिससे मेरे कुटुम्बी भूखे मर जायेंगे। इसलिये अच्छा यही है कि तुम किसी और वृक्ष का आश्रय लो, मैं इस वृक्ष की शाखायें काटने को विवश हूँ।"
देव ने कहा- "मंथरक! मैं तुम्हारे उत्तर से प्रसन्न हूँ। तुम कोई भी एक वर माँग लो, मैं उसे पूरा करुँगा, केवल इस वृक्ष को मत काटो।"
मंथरक बोला- "यदि यही बात है तो मुझे कुछ देर का अवकाश दो। मैं अभी घर जाकर अपनी पत्नी से और मित्र से सलाह करके तुम से वर मांगूंगा।"
देव ने कहा- "मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करुँगा।"
गाँव में पहुँचने के बाद मंथरक की भेंट अपने एक मित्र नाई से हो गई। उसने उससे पूछा़- "मित्र! एक देव मुझे वरदान दे रहा है, मैं तुझ से पूछ़ने आया हूँ कि कौन सा वरदान माँगा जाए।"
नाई ने कहा- "यदि ऐसा ही है तो राज्य मांग ले। मैं तेरा मन्त्री बन जाऊंगा, हम सुख से रहेंगे।"
तब, मंथरक ने अपनी पत्नी से सलाह लेने के बाद वरदान का निश्चय करने की बात नाई से कही। नाई ने स्त्रियों के साथ ऐसी मंत्रणा करना नीति-विरुद्ध बतलाया। उसने सम्मति दी कि "स्त्रियां प्रायः स्वार्थपरायणा होती हैं। अपने सुख-साधन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी सूझ नहीं सकता। अपने पुत्र को भी जब वह प्यार करती है, तो भविष्य में उसके द्वारा सुख की कामनाओं से ही करती है।"
मंथरक ने फिर भी पत्नी से सलाह किये बिना कुछ भी न करने का विचार प्रकट किया। घर पहुँचकर वह पत्नी से बोला- "आज मुझे एक देव मिला है। वह एक वरदान देने को उद्यत है। नाई की सलाह है कि राज्य मांग लिया जाय। तू बता कि कौन सी चीज मांगी जाये।"
पत्नी ने उत्तर दिया- "राज्य-शासन का काम बहुत कष्ट-प्रद है। सन्धि-विग्रह आदि से ही राजा को अवकाश नहीं मिलता। राजमुकुट प्रायः कांटों का ताज होता है। ऐसे राज्य से क्या अभिप्राय जो सुख न दे।"
मंथरक ने कहा- "प्रिय! तुम्हारी बात सच है, राजा राम को और राजा नल को भी राज्य-प्राप्ति के बाद कोई सुख नहीं मिला था। हमें भी कैसे मिल सकता है? किन्तु प्रश्न यह है कि राज्य न मांग जाय तो क्या मांगा जाये।"
मंथरक की पत्नी ने उत्तर दिया- "तुम अकेले दो हाथों से जितना कपड़ा बुनते हो, उससे भी हमारा व्यय पूरा हो जाता है। यदि तुम्हारे हाथ दो की जगह चार हों और सिर भी एक की जगह दो हों तो कितना अच्छा हो। तब हमारे पास आज की अपेक्षा दुगना कपड़ा हो जायेगा। इससे समाज में हमारा मान बढ़ेगा।"
मंथरक को पत्नी की बात जंच गई। समुद्रतट पर जाकर वह देव से बोला- "यदि आप वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दो कि मैं चार हाथ और दो सिर वाला हो जाऊँ ।"
मंथरक के कहने के साथ ही उसका मनोरथ पूरा हो गया। उसके दो सिर और चार हाथ हो गये। किन्तु इस बदली हालत में जब वह गाँव में आया तो लोगों ने उसे राक्षस समझ लिया और राक्षस-राक्षस कहकर सब उसपर टूट पड़े।
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चक्रधर ने कहा- “बात तो सच है। पत्नी की सलाह न मानता, और मित्र की ही मानता तो उसकी जान बच जाती। सभी लोग आशारूपी पिशाचिनी से दबे हुए ऐसै काम कर जाते हैं, जो जगत में हास्यास्पद होते हैं, जैसे सोमशर्मा के पिता ने किया था।”
स्वर्णसिद्धि ने पूछा- “किस तरह?”
तब, चक्रधर ने यह कथा सुनाई-