अति लोभ नाश का मूल - पंचतंत्र - विष्णु शर्मा | Ati lobh nash ka mool - Panchtantra - Vishnu Sharma
अति लोभ नाश का मूल
अतितृष्णा न कर्त्तव्या, तृष्णां नैव परित्यजेत्।
लोभ तो स्वाभाविक है, किंतु अतिशय
लोभ मनुष्य का सर्वनाश कर देता है।
एक दिन एक शिकारी शिकार की खोज में जंगल की ओर गया । जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा काला बड़ा सूअर दिखाई दिया । उसे देखकर उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींचकर निशाना मारा । निशाना ठीक स्थान पर लगा । सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दौड़ा । शिकारी भी तीखे दाँतों वाले सूअर के हमले से गिरकर घायल हो गया । उसका पेट फट गया । शिकारी और शिकार दोनों का अन्त हो गया ।
इस बीच एक भटकता और भूख से तड़पता गीदड़ वहाँ आ निकला । वहाँ सूअर और शिकारी, दोनों को मरा देखकर वह सोचने लगा, "आज दैववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है । कई बार बिना विशेष उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है । इसे पूर्वजन्मों का फल ही कहना चाहिए ।"
यह सोचकर वह मृत लाशों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा । उसे याद आ गया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिए; इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है । इस तरह अल्प से अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है । अतः इनका भोग मैं इस रीति से करूँगा कि बहुत दिन तक इनके उपभोग से ही मेरी प्राणयात्रा चलती रहे।
यह सोचकर उसने निश्चय किया कि वह पहले धनुष की डोरी को खाएगा । उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बँधी हुई थी । गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया । चबाते ही वह डोरी बहुत वेग से टूट गई; और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेद कर ऊपर निकला आया, मानो माथे पर शिखा निकल आई हो । इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वहीं मर गया ।
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ब्राह्मण ने कहा- "इसीलिए मैं कहता हूँ कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है ।"
ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की यह कहानी सुनने के बाद कहा- "यदि यही बात है तो मेरे घर में थोड़े से तिल पड़े हैं। उनका शोधन करके कूट छाँटकर अतिथि को खिला देती हूँ ।"
ब्राह्मण उसकी बात से सन्तुष्ट होकर भिक्षा के लिए दूसरे गाँव की ओर चल दिया । ब्राह्मणी ने भी अपने वचनानुसार घर में पड़े तिलों को छाँटना शुरु कर दिया । छाँट-पछोड़ कर जब उसने तिलों को सुखाने के लिए धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तिलों को मूत्र-विष्ठा से खराब कर दिया । ब्राह्मणी बड़ी चिन्ता में पड़ गई । यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसने अतिथि को भोजन देना था । बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल माँगेगी तो कोई भी दे देगा । इनके उच्छिष्ट होने का किसी को पता ही नहीं लगेगा । यह सोचकर वह उन तिलों को छाज में रखकर घर-घर घूमने लगी और कहने लगी- "कोई इन छँटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छँटे तिल दे दे ।"
अचानक यह हुआ कि ब्राह्मणी तिलों को बेचने एक घर में पहुँच गई और कहने लगी कि "बिना छँटे हुए तिलों के स्थान पर छँटे हुए तिलों को ले लो ।" उस घर की गृहपत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी तब उसके लड़के ने, जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा-
"माता! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छँटे तिलों को लेकर छँटे हुए तिल देगा । यह बात निष्कारण नहीं हो सकती । अवश्यमेव इन छँटे तिलों में कोई दोष होगा ।"
पुत्र के कहने से माता ने यह सौदा नहीं किया ।
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यह कहानी सुनाने के बाद बृहत्स्फिक ने ताम्रचूड़ से पूछा- “क्या तुम्हें उसके आने जाने का मार्ग मालूम है?”
ताम्रचूड़- “भगवन! वह तो मालूम नहीं। वह अकेला नहीं आता, दलबल समेत आता है। उनके साथ ही वह आता है और साथ ही जाता है।”
बृहत्स्फिक- “ तुम्हारे पास कोई फावड़ा है?”
ताम्रचूड़ ने कहा- “हां, फावड़ा तो है।”
दोनों ने दूसरे दिन फावड़ा लेकर हमारे (चूहों के) पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए मेरे बिल तक आने का निश्चय किया। मैं उनकी बातें सुनकर बड़ा चिंतित हुआ। मुझे निश्चय हो गया कि वे इस तरह मेरे दुर्ग तक पहुँच कर फावड़े से उसे नष्ट कर देंगे। इसलिये मैंने सोचा कि मैं अपने दुर्ग की ओर न जाकर किसी अन्य स्थान की ओर चल देता हूँ। इस तरह सीधा रास्ता छोड़कर दूसरे रास्ते से जब मैं सदलबल जा रहा था तो मैंने देखा कि एक मोटा बिल्ला आ रहा है। वह बिल्ला चूहों की मंडली देखकर उस पर टूट पड़ा। बहुत चूहे मारे गए, बहुत से घायल हुए। एक भी चूहा ऐसा न था जो लहूलुहान न हुआ हो। उन सब ने इस विपत्ति का कारण मुझे ही माना। मैं ही उन्हें असली रास्ते के स्थान पर दूसरे रास्ते से ले जा रहा था। बाद में उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। वे सब पुराने दुर्ग में चले गये।
इस बीच बृहत्स्फिक और ताम्रचूड़ भी फावड़ा समेत दुर्ग तक पहुँच गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने दुर्ग को खोदना शुरू कर दिया। खोदते-खोदते उनके हाथ वह खजाना लग गया, जिसकी गर्मी से मैं बन्दर और बिल्ली से भी अधिक उछल सकता था। खजाना लेकर दोनों ब्राह्मण मंदिर को लौट गए। मैं जब अपने दुर्ग में गया तो उसे उजड़ा देखकर मेरा दिल बैठ गया। उसकी वह अवस्था देखी नहीं जाती थी। सोचने लगा, क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे मन को कहाँ शान्ति मिलेगी?
बहुत सोचने के बाद मैं फिर निराशा में डूबा हुआ उसी मंदिर में चला गया जहां ताम्रचूड़ रहता था। मेरे पैरों की आहट सुनकर ताम्रचूड़ ने फिर खूंटी पर टंगे भिक्षापात्र को फटो बांस से पीटना शुरू कर दिया। बृहत्स्फिक ने उससे पूछा-
“मित्र! अब भी तू निःशंक होकर नहीं सोता। क्या बात है?”
ताम्रचूड़- “भगवन! वह चूहा फिर यहाँ आ गया है। मुझे डर है, मेरे भिक्षा-शेष को वह फिर न कहीं खा जाय।”
बृहत्स्फिक- “मित्र! अब डरने की कोई बात नहीं। धन के खजाने के साथ उसके उछलने का उत्साह भी नष्ट हो गया। सभी जीवों के साथ ऐसा होता है। धन-बल से ही मनुष्य उत्साही होता है, वीर होता है और दूसरों को पराजित करता है।”
यह सुनकर मैंने पूरे बल से छलाँग मारी, किंतु खूंटी पर टंगे पात्र तक न पहुँच सका, और मुख के बल जमीन पर मिर पड़ा। मेरे गिरने की आवाज सुनकर मेरा शत्रु बृहत्स्फिक ताम्रचूड़ से हँसकर बोला-
“देख, ताम्रचूड़! इस चूहे को देख। खजाना छिन जाने के बाद वह फि मामूली चूहा ही रह गया है। इसकी छलाँग में अब वह वेग नहीं रहा, जो पहले था। धन में बड़ा चमत्कार है। धन से ही सब बली होते हैं, पण्डित होते हैं। धन के बिना मनुष्य की अवस्था दन्त-हीन सांप की तरह हो जाती है।”
धनाभाग से मेरी भी बड़ी दुर्गति हो गई। मेरे ही नौकर मुझे उलाहना देने लगे कि यह चूहा हमारा पेट पालने योग्य तो है नहीं; हाँ, हमें बिल्ली को खिलाने योग्य अवश्य है। यह कहकर उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे साथी मेरे शत्रुओं के साथ मिल गये।
मैंने भी एक दिन सोचा कि मैं फिर मंदिर में जाकर खजाना पाने का यत्न करूँगा। इस यत्न में मेरी मृत्यु भी हो जाय तो भी चिंता नहीं।
यह सोचकर मैं फिर मंदिर में गया। मैंने देखा कि ब्राह्मण खजाने की पेटी को सिर के नीचे रखकर सो रहे हैं। मैं पेटी में छिद्र करके जब धन चुराने लगा तो वे जाग गये। लाठी लेकर वे मेरे पीछे दौड़े। एक लाठी मेरे सिर पर लगी। आयु शेष थी इस लिये मृत्यु नहीं हुई- किंतु, घायल हो गया। सच तो यह है कि जो धन भाग्य में लिखा होता है वह मिल ही जाता है। संसार की कोई शक्ति उसे हस्तगत होने में बाधा नहीं डाल सकती। इसीलिये मुझे कोई शोक नहीं है। जो हमारे हिस्से का है, वह हमारा अवश्य होगा।
इतनी कथा कहने के बाद हिरण्यक ने कहा- “इसलिये मुझे वैराग्य हो गया है। और इसीलिये मैं लघुपतनक की पीठ पर चढ़कर यहां आ गया हूँ।”
मन्थरक ने उसे आश्वासन देते हुए कहा-
“मित्र! नष्ट हुए धन की चिंता न करो। जवानी और धन का उपभोग क्षणिक ही होता है। पहले धन के अर्जन में दुःख है; फिर उसके संरक्षण में दुःख। जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय करता है उसके शतांश कष्टों से भी यदि वह धर्म का संचय करे तो उसे मोक्ष मिल जाए। विदेश-प्रवास का भी दुःख मत करो। व्यवसायी के लिये कोई स्थान दूर नहीं, विद्वान के लिये कोई विदेश नहीं और प्रियवादी के लिये कोई पराया नहीं।
इसके अतिरिक्त धन कमाना तो भाग्य की बात है। भाग्य न हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है। अभागा आदमी अर्थोपार्जन करके भी उसका भोग नहीं कर पाता; जैसे मूर्ख सोमिलक नहीं कर पाया था।”
हिरण्यक ने पूछा- “कैसे?”
मन्थरक ने तब सोमिलक की यह कथा सुनाई-