जिज्ञासु बनो - पंचतंत्र - विष्णु शर्मा | Jigyashu Bano - Panchtantra - Vishnu Sharma by विष्णु शर्मा

जिज्ञासु बनो

पृच्छकेन सदा भाव्यं पुरुषेण विजानता

मनुष्य को सदा प्रश्नशील, जिज्ञासु रहना चाहिये

किसी जंगली प्रदेश में चंडकर्मा नाम का एक राक्षस रहता था। जंगल में घूमते-घूमते उसके हाथ एक दिन एक ब्राह्मण आ गया।
वह राक्षस ब्राह्मण के कंधे पर बैछ गया। ब्राह्मण के प्रश्न करने पर वह बोला- “ब्राह्मण! मैंने व्रत लिया हुआ है। गीले पैरों से मैं जमीन को नहीं छू सकता। इसीलिए तेरे कंधों पर बैठा हूँ।”
थोड़ी दूर पर जलाशय था। जलाशय में स्नान के लिये जाते हुए राक्षस ने ब्राह्मण को सावधान कर दिया कि “जब तर मैं स्नान करता हूँ, तू यहीं बैठकर मेरी प्रतीक्षा कर।” राक्षस की इच्छा थी कि वह स्नान के बाद ब्राह्मण का वध करके उसे खा जायेगा। ब्राह्मण को भी इसका संदेह हो गया था। अतः ब्राह्मण अवसर पाकर वहाँ से भाग निकला। उसे मालूम हो चुका था कि राक्षस गीले पैरों से जमीन नहीं छू सकता, इसलिये वह उसका पीछा नहीं कर सकेगा।

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ब्राह्मण यदि राक्षस से प्रश्न न करता तो उसे यह भेद कभी मालूम न होता। अतः मनुष्य को प्रश्न करने से कभी चूकना नहीं चाहिये। प्रश्न करने की आदत अनेक बार उसकी जीवन-रक्षा कर देती है।
उसकी बात सुनकर राजा ने ब्राह्मणों को बुलाकर पूछा- "हे ब्राह्मणों! मेरे यहाँ त्रिस्तनी कन्या का जन्म हुआ है। इसकी शांति का कोई उपाय है या नहीं? ब्राह्मणों ने कहा- देव सुनिए! “मनुष्य के यहां कम अथवा अधिक अंगों वाली जो कन्या पैदा होती है, वह अपने पति और शील का नाश करती है। इनमें से भी अगर तीन स्तनों वाली कन्या अपने पिता की नजर पड़े, तो वह तुरन्त अपने पिता का नाश कर देती है, इसमें संदेह नहीं। इसलिए इस लड़की को आपको नहीं देखना चाहिए। अगर कोई इस कन्या के साथ विवाह करे तो उसे इस कन्या को देकर देश से बाहर कर दीजिए। ऐसा करने से आपके दोनों लोक सुधरेंगे।"
उनकी यह बात सुनकर राजा ने डंके की चोट पर मुनादी करा दी, "लोगो! इस त्रिस्तनी कन्या के साथ जो कोई ब्याह करेगा, उसे एक लाख सुवर्ण मुद्रा उसी समय मिलेंगी, किंतु उसे देश भी छोड़ना पड़ेगा।" मुनादी किये हुए बहुत दिन बीत गए, फिर भी उस कन्या को लेने को कोई तैयार न हुआ। वह जवान होने तक छिपे स्थान में रहकर यत्नपूर्वक पल-पुसकर बढ़ने लगी।
उसी नगर में कोई अंधा रहता था। उसका मंथरक नाम का एक कुबड़ा मित्र था जो उसकी लकड़ी पकड़ता था। उन दोनों ने डुग्गी सुनकर आपस में विचार किया- "भाग्यवश कन्या मिलती हो तो हमें डुग्गी रोकनी चाहिए, जिससे सोना मिले जौर उसके मिलने से हमारी जिंदगी सुख से कटे। उस कन्या के दोष से कहीं मैं मर गया तो भी दरिद्रता से पैदा हुई उस तकलीफ से छुटकारा मिल जायेगा। कहा है कि "लज्जा, स्नेह, वाणी की मिठास, बुद्धि, जवानी, स्त्रियों का साथ, अपनों का प्यार, दुःख की हानि, विलास, धर्म, तन्दुरुस्ती, बृहस्पति जैसी बुद्धि, पवित्रता, और आचार-विचार ये सब बातें, आदमियों का पेट-रूपी घड़ा जब अन्न से भरा होता हैँ, तभी संभव हैं।"
यह कहकर उस अंधे ने मुनादी करने वाले को रोक दिया और कहा- "मैं उस राजकन्या से विवाह करूँगा, यदि राजा मुझे उसे देगा।" बाद में राज कर्मचारियों ने जाकर राजा से कहा- "देव! किसी अंधे ने मुनादी रोक दी है, इस बारे में क्या करना चाहिए?”
राजा ने कहा- “अंधा हो, बहरा हो, कोढ़ी हो या चाण्डाल हो, कोई भी हो यदि वह राजकन्या लेना चाहता है, वो उसे एक लाख सुवर्ण मुद्रा के साथ देश निकाला दिया जायेगा।” राजा ने आज्ञा दे दी। राजपुरुषों ने नदी के किनारे ले जाकर एक लाख सुवर्ण मुद्रा के साथ त्रिस्तनी कन्या का उस अन्धे के साथ विवाह कर दिया और उसे जलयान (जहाज) पर बैठाकर केवटों से कह दिया- “केवटों! विदेश में ले जाकर इस अंधे, कुबड़े और राजकन्या को किसी नगर में छोड़ देना।”
केवटों ने वैसा ही किया। उन्होंने जहाज में बैठाकर उसे विदेश में ले जाकर एक नगर में पहुँचा दिया। केवटों के दिखाने पर वहाँ उन्होंने एक सुन्दर महल खरीद लिया और तीनों बड़े आराम के साथ वहाँ अपनी जिन्दगी का समय बिताने लगे। केवल अन्धा सदा पलंग पर सोया रहता था। घर का सारा कारबार कुबड़ा करता था। इस तरह उनका समय आराम से कटा चला जा रहा था कि कुछ ही दिनों में कुबड़े के साथ राजकन्या का अनुचित सम्बन्ध स्थापित हो गया। यह ठीक ही कहा गया है कि “यदि आग शीतल हो जाये, चन्द्रमा जलाने वाला बन जाये, समुद्र का पानी मीठा हो जाये तब स्त्रियों को सतीत्व हो सकता है।”
कुछ दिन बीतने पर त्रिस्तनी ने मंथरक से कहा- “हे सुन्दर! यदि किसी तरह यह अन्धा मर जाये तो हम दोनों सुख की जिन्दगी बिताएँ। कहीं से ढूँढ़कर तुम विष ले आओ, उसे देकर मैं इसका काम तमाम कर दूँ और सुखी बनूँ।” दूसरे दिन घूमते हुए कुबड़े को एक मरा हुआ काला साँप मिला। उसे लेकर वह प्रसन्न मन से घर वापस लौटा और त्रिस्तनी से बोला- “सुन्दरी! यह एक काला साँप मिल गया है। इसे टुकड़े-टुकड़े काटकर खूब अधिक सोंठ-मिर्च डालकर अच्छे स्वाद का बना डालो। उस अंधे को मछली का मांस बताकर इसे खिला दो। इसे खाते ही वह खत्म हो जायेगा, क्योंकि उसे मछली का मांस सदा बहुत रुचिकर लगता है।"
यह कहकर मंथरक बाहर चला गया। त्रिस्तनी ने तुरंत आग जलाई और काले साँप को टुकड़े टुकड़े काटकर उसमें मट्ठा डालकर चढ़ा दिया और घर के दूसरे कामों में व्यस्त होने के कारण अंधे के पास आकर विनय के साथ कहा- “आर्य पुत्र आज तुम्हें बहुत अधिक पसंद आने वाली मछली का मांस मैंने मँगा रखा है, तुम हमेशा उसे पूछा करते थे। उसे मैंने पकाने के लिए आग पर चढ़ा दिया है, मैं जब तक दूसरे कामों को निपटा लूँ तब तक तुम करछी लेकर थोड़ी देर उसे चला दो।”
यह सुनकर अन्धा बहुत खुश हुआ। वह जीभ चाटते हुए तुरंत पलंग से उठ बैठा और करछी लेकर उसे चलाने लगा। मछली का मांस समझकर कड़ाही में चलाते हुए उस अंधे की आँखों पर छाया हुआ काला परदा साँप की विषैली भाप की गरमी से गलने लगा। उसे तुरंत बहुत लाभ मालूम होने लगा। फिर तो उसने खूब फैला-फैलाकर आँखों में उसकी भाप ली। इस तरह थोड़ी देर में उसकी आँखें जब एकदम साफ हो गईं तो उसने देखा कि कड़ाही में केवल मट्ठा है और उसमें काले साँप के छोटे-छोटे टुकड़े पक रहे हैं, तब उसने सोचा- “अरे! इसने क्यों मुझे मछली का मांस बताया, यह तो काले साँप के टुकड़े हैं। तो मैं इसका अच्छी तरह पता लगा लूँ कि इस त्रिस्तनी का मुझे मारने का यह इरादा है या कुबड़े का। या किसी दूसरे ने तो ऐसा नहीं किया है। इस तरह की बातें सोचता हुआ, वह अपने इरादे को छिपाकर पहले की तरह अन्धा बनकर उसे चलाता रहा। इसी बीच कुबड़ा बाहर से आ गया। उसे किसी का कोई डर तो था नहीं, आने के साथ ही त्रिस्तनी आलिंगन एवं चुम्बनादि करने लगा। उस अन्धे ने कुबड़े की सारी करतूत देख ली, उसे जब समीप में उन्हें मारने का कोई हथियार नहीं दिखा तो वह क्रोध से व्याकुल होकर पहले की तरह अंधा बन कर उन दोनों की शैय्या के पास गया। वहाँ जाकर उसने मजबूती के साथ कुबड़े के दोनों पैरों को पकड़कर अपने सिर के ऊपर घुमाया और घुमाने के बाद त्रिस्तनी की छाती पर उसे जोर से पटक दिया। कुबड़े के मारने से त्रिस्तनी का तीसरा स्तन छाती के भीतर बैठ गया और जोर से ऊपर घुमाने के कारण कूबड़े की टेढ़ी कमर भी सीधी हो गई।

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इसी से मैंने कहा कि, 'अन्धा, कुबड़ा...इत्यादि।'
स्वर्णसिद्धि ने कहानी सुनकर कहा- “यह तो ठीक ही है। दैव अनुकूह हो तो सब काम स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। फिर पुरुष को श्रेष्ठ मित्रों के वचनों का पालन करना ही चाहिये। स्वेच्छाचार बुरा है। मित्रों की सलाह से मिल-जुलकर और एक दूसरे का भला चाहते हुए ही सब काम करने चाहिये। जो लोग एक दूसरे का भला नहीं चाहते और स्वेच्छया सब काम करते हैं, उनकी दुर्गति वैसी ही होती है जैसी स्वेच्छाचारी भारण्ड पक्षी की हुई थी।
चक्रधर ने पूछा- “वह कैसे?”
स्वर्णसिद्धि ने तब यह कथा सुनाई-

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