कर्महीन नर पावत नाहिं - पंचतंत्र - विष्णु शर्मा | Karmheen nar pavat naahin - Panchtantra - Vishnu Sharma
कर्महीन नर पावत नाहिं
“अर्थस्योपार्जनं कृत्वा नैवऽभाग्यः समश्नुते।
करतलगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति।।”
भाग्य में न हो तो हाथ में आये धन का भी उपभोग नहीं होता।
एक नगर में सोमिलक नाम का जुलाहा रहता था । विविध प्रकार के रंगीन और सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी उसे भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन कभी प्राप्त नहीं होता था । अन्य जुलाहे मोटा-सादा कपड़ा बुनते हुए धनी हो गए थे। उन्हें देखकर एक दिन सोमलिक ने अपनी पत्नी से कहा- "प्रिये ! देखो, मामूली कपड़ा बुनने वाले जुलाहों ने भी कितना धन-वैभव संचित कर लिया है और मैं इतन सुन्दर, उत्कृष्ट वस्त्र बनाते हुए भी आज तक निर्धन ही हूँ । प्रतीत होता है यह स्थान मेरे लिए भाग्यशाली नहीं है; अतः विदेश जाकर धनोपार्जन करुँगा ।"
सोमिलक-पत्नी ने कहा- "प्रियतम ! विदेश में धनोपार्जन की कल्पना मिथ्या स्वप्न से अधिक नहीं । धन की प्राप्ति होनी हो तो स्वदेश में ही हो जाती है । न होनी हो तो हथेली में आया धन भी नष्ट हो जाता है । अतः यहीं रहकर व्यवसाय करते रहो, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जाएगी ।"
सोमिलक- "भाग्य-अभाग्य की बातें तो कायर लोग करते हैं । लक्ष्मी उद्योगी और पुरुषार्थी शेर-नर को ही प्राप्त होती है । शेर को भी अपने भोजन के लिए उद्यम करना पड़ता है । मैं भी उद्यम करुँगा; विदेश जाकर धन-संचय का यत्न करुँगा ।"
यह कहकर सोमिलक वर्धमानपुर चला गया । वहाँ तीन वर्षों में अपने कौशल से ३०० सोने की मुहरें लेकर वह घर की ओर चल दिया । रास्ता लम्बा था । आधे रास्ते में ही दिन ढल गया, शाम हो गई । आस-पास कोई घर नहीं था। एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बिताई । सोते-सोते स्वप्न आया कि दो भयंकर आकृति के पुरुष आपस में बात कर रहे हैं । एक ने कहा - "हे पौरुष ! तुझे क्या मालूम नहीं है कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता; तब तूने इसे ३०० मुहरें क्यों दीं ?" दूसरा बोला- "हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक पुरुषार्थी को एक बार उसका फल दूंगा ही । उसे उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तेरे अधीन है ।"
स्वप्न के बाद सोमिलक की नींद खुली तो देखा कि मुहरों का पात्र खाली था । इतने कष्टों से संचित धन के इस तरह लुप्त हो जाने से सोमिलक बड़ा दुःखी हुआ और सोचने लगा- "अपनी पत्नी को कौन-सा मुख दिखाऊँगा, मित्र क्या कहेंगे ?" यह सोचकर वह फिर वर्धमानपुर को ही वापिस आ गया । वहाँ दित-रात घोर परिश्रम करके उसने वर्ष भर में ही ५०० मुहरें जमा करलीं । उन्हें लेकर वह घर की ओर जा रहा था कि फिर आधे रास्ते में रात पड़ गई । इस बार वह सोने के लिए ठहरा नहीं; चलता ही गया । किन्तु चलते-चलते ही उसने फिर उन दोनों- पौरुष और भाग्य को पहले की तरह बात-चीत करते सुना । भाग्य ने फिर वही बात कही कि "हे पौरुष ! क्या तुझे मालूम नहीं कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता । तब, उसे तूने ५०० मुहरें क्यों दीं ?" पौरुष ने वही उत्तर दिया- "हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दूंगा ही, इससे आगे तेरे अधीन है कि उसके पास रहने दे या छीन ले ।" इस बात-चीत के बाद सोमिलक ने जब अपनी मुहरों वाली गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी ।
इस तरह दो बार खाली हाथ होकर सोमिलक का मन बहुत दुःखी हुआ । उसने सोचा- "इस धन-हीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है । आज इस वृक्ष की टहनी से रस्सी बाँधकर उस पर लटक जाता हूँ और यहीं प्राण दे देता हूँ ।"
गले में फन्दा लगा, उसे टहनी से बाँध कर जब वह लटकने ही वाला था कि उसे आकाश-वाणी हुई - "सौमिलक! ऐसा दुःसाहस मत कर । मैंने ही तेरा धन चुराया है । तेरे भाग्य में भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन का उपभोग नहीं लिखा । व्यर्थ के धन-संचय में अपनी शक्तियाँ नष्ट मत कर । घर जाकर सुख से रह । तेरे साहस से तो मैं प्रसन्न हूँ ; तू चाहे तो एक वरदान माँग ले । मैं तेरी इच्छा पूरी करुँगा ।"
सोमिलक ने कहा - "मुझे वरदान में प्रचुर धन दे दो ।"
अदृष्ट देवता ने उत्तर दिया- "धन का क्या उपयोग? तेरे भाग्य में उसका उपभोग नहीं है । भोग-रहित धन को लेकर क्या करेगा ?"
सोमिलक तो धन का भूखा था, बोला - "भोग हो या न हो, मुझे धन ही चाहिए । बिना उपयोग या उपभोग के भी धन कि बड़ी महिमा है । संसार में वही पूज्य माना जाता है, जिसके पास धन का संचय हो । कृपण और अकुलीन भी समाज में आदर पाते हैं । संसार आशा लगाये बैठा रहता है; जिस तरह वह गीदड़ बैल से आशा रखकर उसके पीछे 15 वर्ष तक घूमता रहा।”
भाग्य ने पूछा- “किस तरह?”
सोमिलक ने फिर बैल और गीदड़ की यह कहानी सुनाई-