गोपाल चालीसा | Gopal chaleesa by विकास

गोपाल चालीसा | Gopal chaleesa

।। गोपाल चालीसा ।।

।। दोहा ।।

श्री राधापद कमल रज, सिर धरि यमुना कूल ।
वरणो चालीसा सरस, सकल सुमंगल मूल ।।

।। चौपाई ।।

जय जय पूरण ब्रह्म बिहारी । दुष्ट दलन लीला अवतारी ।।१।।
जो कोई तुम्हरी लीला गावै । बिन श्रम सकल पदारथ पावै ।।२।।
श्री वसुदेव देवकी माता । प्रकट भये संग हलधर भ्राता ।।३।।
मथुरा सों प्रभु गोकुल आये । नन्द भवन में बजत बधाये ।।४।।
जो विष देन पूतना आई । सो मुक्ति दै धाम पठाई ।।५।।
तृणावर्त राक्षस संहारयौ । पग बढ़ाय सकटासुर मारयौ ।।६।।
खेल खेल में माटी खाई । मुख मे सब जग दियो दिखाई ।।७।।
गोपिन घर घर माखन खायो । जसुमति बाल केलि सुख पायो ।।८।।
ऊखल सों निज अंग बँधाई । यमलार्जुन जड़ योनि छुड़ाई ।।९।।
बका असुर की चोंच विदारी । विकट अघासुर दियो सँहारी ।।१०।।
ब्रह्मा बालक वत्स चुराये । मोहन को मोहन हित आये ।।११।।
बाल वत्स सब बने मुरारी । ब्रह्मा विनय करी तब भारी ।।१२।।
काली नाग नाथि भगवाना । दावानल को कीन्हों पाना ।।१३।।
सखन संग खेलत सुख पायो । श्रीदामा निज कन्ध चढ़ायो ।।१४।।
चीर हरन करि सीख सिखाई । नख पर गिरवर लियो उठाई ।।१५।।
दरश यज्ञ पत्निन को दीन्हों । राधा प्रेम सुधा सुख लीन्हों ।।१६।।
नन्दहिं वरुण लोक सों लाये । ग्वालन को निज लोक दिखाये ।।१७।।
शरद चन्द्र लखि वेणु बजाई । अति सुख दीन्हों रास रचाई ।।१८।।
अजगर सों पितु चरण छुड़ायो । शंखचूड़ को मूड़ गिरायो ।।१९।।
हने अरिष्टा सुर अरु केशी । व्योमासुर मार्यो छल वेषी ।।२०।।
व्याकुल ब्रज तजि मथुरा आये । मारि कंस यदुवंश बसाये ।।२१।।
मात पिता की बन्दि छुड़ाई । सान्दीपनि गृह विद्या पाई ।।२२।।
पुनि पठयौ ब्रज ऊधौ ज्ञानी । प्रेम देखि सुधि सकल भुलानी ।।२३।।
कीन्हीं कुबरी सुन्दर नारी । हरि लाये रुक्मिणि सुकुमारी ।।२४।।
भौमासुर हनि भक्त छुड़ाये । सुरन जीति सुरतरु महि लाये ।।२५।।
दन्तवक्र शिशुपाल संहारे । खग मृग नृग अरु बधिक उधारे ।।२६।।
दीन सुदामा धनपति कीन्हों । पारथ रथ सारथि यश लीन्हों ।।२७।।
गीता ज्ञान सिखावन हारे । अर्जुन मोह मिटावन हारे ।।२८।।
केला भक्त बिदुर घर पायो । युद्ध महाभारत रचवायो ।।२९।।
द्रुपद सुता को चीर बढ़ायो । गर्भ परीक्षित जरत बचायो ।।३०।।
कच्छ मच्छ वाराह अहीशा । बावन कल्की बुद्धि मुनीशा ।।३१।।
ह्वै नृसिंह प्रह्लाद उबार्यो । राम रुप धरि रावण मार्यो ।।३२।।
जय मधु कैटभ दैत्य हनैया । अम्बरीय प्रिय चक्र धरैया ।।३३।।
ब्याध अजामिल दीन्हें तारी । शबरी अरु गणिका सी नारी ।।३४।।
गरुड़ासन गज फन्द निकन्दन । देहु दरश ध्रुव नयनानन्दन ।।३५।।
देहु शुद्ध सन्तन कर सङ्गा । बाढ़ै प्रेम भक्ति रस रङ्गा ।।३६।।
देहु दिव्य वृन्दावन बासा । छूटै मृग तृष्णा जग आशा ।।३७।।
तुम्हरो ध्यान धरत शिव नारद । शुक सनकादिक ब्रह्म विशारद ।।३८।।
जय जय राधारमण कृपाला । हरण सकल संकट भ्रम जाला ।।३९।।
बिनसैं बिघन रोग दुःख भारी । जो सुमरैं जगपति गिरधारी ।।४०।।
जो सत बार पढ़ै चालीसा । देहि सकल बाँछित फल शीशा ।।४१।।

।। छंद ।।

गोपाल चालीसा पढ़ै नित, नेम सों चित्त लावई ।
सो दिव्य तन धरि अन्त महँ, गोलोक धाम सिधावई ।।
संसार सुख सम्पत्ति सकल, जो भक्तजन सन महँ चहैं ।
‘जयरामदेव’ सदैव सो, गुरुदेव दाया सों लहैं ।।

।। दोहा ।।

प्रणत पाल अशरण शरण, करुणा-सिन्धु ब्रजेश ।
चालीसा के संग मोहि, अपनावहु प्राणेश ।।
।। इति श्री गोपाल चालीसा संपूर्णम् ।।