खुचड़ - मानसरोवर 4 - मुंशी प्रेमचंद | khuchar - maansarovar 4 - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

खुचड़

बाबू कुन्दनलाल कचहरी से लौटे, तो देखा कि उनकी पत्नी जी एक कुँजड़िन से कुछ साग-भाजी ले रही हैं। कुँजड़िन पालक टके सेर कहती है, वह डेढ़ पैसे दे रही हैं। इस पर कई मिनट तक विवाद होता रहा। आखिर कुँजड़िन डेढ़ ही पैसे पर राजी हो गई। अब तराजू और बाट का प्रश्न छिड़ा। दोनों पल्ले बराबर न थे। एक में पसंगा था। बाट भी पूरे न उतरते थे। पड़ोसिन के घर से सेर आया। साग तुल जाने के बाद अब घाते का प्रश्न उठा। पत्नीजी और माँगती थीं, कुँजड़िन कहती थी, 'अब क्या सेर-दो-सेर घाते में ही ले लोगी बहूजी।'
खैर, आधा घंटे में वह सौदा पूरा हुआ, और कुँजड़िन फिर कभी न आने की धमकी देकर बिदा हुई। कुन्दनलाल खड़े-खड़े यह तमाशा देखते रहे। कुँजड़िन के जाने के बाद पत्नी जी लोटे का पानी लाईं तो आपने कहा, 'आज तो तुमने जरा-सा साग लेने में पूरे आधा घंटे लगा दिये। इतनी देर में तो हजार-पाँच का सौदा हो जाता। जरा-जरा से साग के लिए इतनी ठांय-ठांय करने से तुम्हारा सिर भी नहीं दुखता ?'
रामेश्वरी ने कुछ लज्जित होकर कहा, 'पैसे मुफ्त में तो नहीं आते !'
'यह ठीक है; लेकिन समय का भी कुछ मूल्य है। इतनी देर में तुमने बड़ी मुश्किल से एक धेले की बचत की। कुँजड़िन ने भी दिल में कहा, होगा कहाँ की गँवारिन है। अब शायद भूलकर भी इधर न आये।'
'तो, फिर मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि पैसे की जगह धेले का सौदा लेकर बैठ जाऊँ।'
'इतनी देर में तो तुमने कम-से-कम 10 पन्ने पढ़े होते। कल महरी से घंटों सिर मारा। परसों दूध वाले के साथ घंटों शास्त्रार्थ किया। जिन्दगी क्या इन्हीं बातों में खर्च करने को दी गई है ?'
कुन्दनलाल प्राय: नित्य ही पत्नी को सदुपदेश देते रहते थे। यह उनका दूसरा विवाह था। रामेश्वरी को आये अभी दो ही तीन महीने हुए थे। अब तक तो बड़ी ननद जी ऊपर के काम किया करती थीं। रामेश्वरी की उनसे न पटी। उसको मालूम होता था, यह मेरा सर्वस्व ही लुटाये देती हैं। आखिर वह चली गईं। तब से रामेश्वरी ही घर की स्वामिनी है; वह बहुत चाहती है कि पति को प्रसन्न रखे। उनके इशारों पर चलती है; एक बार जो बात सुन लेती है, गाँठ बाँध लेती है। पर रोज ही तो कोई नई बात हो जाती है, और कुन्दनलाल को उसे उपदेश देने का अवसर मिल जाता है। एक दिन बिल्ली दूध पी गई। रामेश्वरी दूध गर्म करके लाई और स्वामी के सिरहाने रखकर पान बना रही थी कि बिल्ली ने दूध पर अपना ईश्वर प्रदत्त अधिकार सिद्ध कर दिया। रामेश्वरी यह अपहरण स्वीकार न कर सकी। रूल लेकर बिल्ली को इतने जोर से मारा कि वह दो-तीन लुढ़कियाँ खा गई। कुन्दनलाल लेटे-लेटे अखबार पढ़ रहे थे। बोले, 'और जो मर जाती ?'
रामेश्वरी ने ढिठाई के साथ कहा, 'तो मेरा दूध क्यों पी गई ?'
'उसे मारने से दूध मिल तो नहीं गया ?'
'जब कोई नुकसान कर देता है, तो उस पर क्रोध आता ही है।'
'न आना चाहिए। पशु के साथ आदमी भी क्यों पशु हो जाय ? आदमी और पशु में इसके सिवा और क्या अन्तर है?'
कुन्दनलाल कई मिनट तक दया, विवेक और शांति की शिक्षा देते रहे। यहाँ तक कि बेचारी रामेश्वरी मारे ग्लानि के रो पड़ी। इसी भाँति एक दिन रामेश्वरी ने एक भिक्षुक को दुत्कार दिया, तो बाबू साहब ने फिर उपदेश देना शुरू किया। बोले तुमसे न उठा जाता हो, तो लाओ मैं दे आऊँ। गरीब को यों न दुत्कारना चाहिए।
रामेश्वरी ने त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहा, 'दिन भर तो तांता लगा रहता है। कोई कहाँ तक दौड़े। सारा देश भिखमंगों ही से भर गया है शायद।'
कुन्दनलाल ने उपेक्षा के भाव से मुस्कराकर कहा, 'उसी देश में तो तुम भी बसती हो !'
'इतने भिखमंगे आ कहाँ से जाते हैं ? ये सब काम क्यों नहीं करते ?'
'कोई आदमी इतना नीच नहीं होता, जो काम मिलने पर भीख माँगे।'
हाँ, अपंग हो, तो दूसरी बात है। अपंगों का भीख के सिवा और क्या सहारा हो सकता है ?'
'सरकार इनके लिए अनाथालय क्यों नहीं खुलवाती ?'
'जब स्वराज्य हो जायगा, तब शायद खुल जायँ; अभी तो कोई आशा नहीं है मगर स्वराज्य भी धर्म ही से आयेगा।'
'लाखों साधु-संन्यासी, पंडे-पुजारी मुफ्त का माल उड़ाते हैं, क्या इतना धर्म काफी नहीं है ? अगर इस धर्म में से स्वराज्य मिलता, तो कब का मिल चुका होता।'
'इसी धर्म का प्रसाद है कि हिन्दू-जाति अभी तक जीवित है, नहीं कब की रसातल पहुँच चुकी होती। रोम, यूनान, ईरान, सीरिया किसी का अब निशान भी नहीं है। यह हिन्दू-जाति है, जो अभी तक समय के क्रूर आघातों का सामना करती चली जाती है।'
'आप समझते होंगे; हिन्दू-जाति जीवित है। मैं तो उसे उसी दिन से मरा हुआ समझती हूँ, जिस दिन से वह अधीन हो गई। जीवन स्वाधीनता का नाम है, गुलामी तो मौत है।'
कुन्दनलाल ने युवती को चकित नेत्रों से देखा, ऐसे विद्रोही विचार उसमें कहाँ से आ गये ? देखने में तो वह बिल्कुल भोली थी। समझे, कहीं सुन-सुना लिया होगा। कठोर होकर बोले- 'क्या व्यर्थ का विवाद करती हो। लजाती तो नहीं, ऊपर से और बक-बक करती हो।'
रामेश्वरी यह फटकार पाकर चुप हो गई। एक क्षण वहाँ खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे कमरे से चली गई।
एक दिन कुन्दनलाल ने कई मित्रों की दावत की। रामेश्वरी सबेरे से रसोई में घुसी तो शाम तक सिर न उठा सकी। उसे यह बेगार बुरी मालूम हो रही थी। अगर दोस्तों की दावत करनी थी तो खाना बनवाने का कोई प्रबन्ध क्यों नहीं किया ? सारा बोझ उसी के सिर क्यों डाल दिया ! उससे एक बार पूछ तो लिया होता कि दावत करूँ या न करूँ। होता तब भी यही; जो अब हो रहा था। वह दावत के प्रस्ताव का बड़ी खुशी से अनुमोदन करती, तब वह समझती, दावत मैं कर रही हूँ। अब वह समझ रही थी, मुझसे बेगार ली जा रही है। खैर, भोजन तैयार हुआ, लोगों ने भोजन किया और चले गये; मगर मुंशी जी मुँह फुलाये बैठे हुए थे। रामेश्वरी ने कहा, 'तुम क्यों नहीं खा लेते, क्या अभी सबेरा है ?'
बाबू साहब ने आँखें फाड़कर कहा, 'क्या खा लूँ, यह खाना है, या बैलों की सानी !'
रामेश्वरी के सिर से पाँव तक आग लग गई। सारा दिन चूल्हे के सामने जली; उसका यह पुरस्कार ! बोली, 'मुझसे जैसा हो सका बनाया। जो बात अपने बस की नहीं है, उसके लिए क्या करती ?'
'पूड़ियाँ सब सेवर हैं !'
'होंगी।'
'कचौड़ी में इतना नमक था किसी ने छुआ तक नहीं।'
'होगा।'
'हलुआ अच्छी तरह भुना नहीं कचाइयाँ आ रही थीं।'
'आती होंगी।'
'शोरबा इतना पतला था, जैसे चाय।'
'होगा।'
'स्त्री का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम में चतुर हो।'
फिर उपदेशों का तार बँधा; यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊब कर चली गई ! पाँच-छ: महीने गुजर गये। एक दिन कुन्दनलाल के एक दूर के संबंधी उनसे मिलने आये। रामेश्वरी को ज्यों ही उनकी खबर मिली, जलपान के लिए मिठाई भेजी; और महरी से कहला भेजा आज यहीं भोजन कीजिएगा। वह महाशय फूले न समाये। बोरिया-बँधना लेकर पहुँच गये और डेरा डाल दिया। एक हफ्ता गुजर गया; आप टलने का नाम भी नहीं लेते। आवभगत में कोई कमी होती, तो शायद उन्हें कुछ चिन्ता होती; पर रामेश्वरी उनके सेवा-सत्कार में जी-जान से लगी हुई थी। फिर वह भला क्यों हटने लगे। एक दिन कुन्दनलाल ने कहा, 'तुमने यह बुरा रोग पाला।'
रामेश्वरी ने चौंककर पूछा, 'कैसा रोग ?'
'इन्हें टहला क्यों नहीं देतीं ?'
'मेरा क्या बिगाड़ रहे हैं ?'
'कम-से-कम 10 की रोज चपत दे रहे हैं। और अगर यही खातिरदारी रही, तो शायद जीते-जी टलेंगे भी नहीं।'
'मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि कोई दो-चार दिन के लिए आ जाय, तो उसके सिर हो जाऊँ। जब तक उनकी इच्छा हो रहें।'
'ऐसे मुफ्तखोरों का सत्कार करना पाप है। अगर तुमने इतना सिर न चढ़ाया होता, तो अब तक लंबा हुआ होता। जब दिन में तीन बार भोजन और पचासों बार पान मिलता है, तो उसे कुत्ते ने काटा है, जो अपने घर जाय।'
'रोटी का चोर बनना तो अच्छा नहीं !'
'कुपात्र और सुपात्र का विचार तो कर लेना चाहिए। ऐसे आलसियों को खिलाना-पिलाना वास्तव में उन्हें जहर देना है, जहर से तो केवल प्राण निकल जाते हैं; यह खातिरदारी तो आत्मा का सर्वनाश कर देती है। अगर यह हजरत महीने भर भी यहाँ रह गये, तो फिर जिंदगी-भर के लिए बेकार हो जायँगे। फिर इनसे कुछ न होगा और इसका सारा दोष तुम्हारे सिर होगा।'
तर्क का तांता बँध गया। प्रमाणों की झड़ी लग गई। रामेश्वरी खिसियाकर चली गई। कुन्दनलाल उससे कभी सन्तुष्ट भी हो सकते हैं, उनके उपदेशों की वर्षा कभी बन्द भी हो सकती है, यह प्रश्न उसके मन में बार-बार उठने लगा।
एक दिन देहात से भैंस का ताजा घी आया। इधर महीनों से बाजार का घी खाते-खाते नाक में दम हो रहा था। रामेश्वरी ने उसे खौलाया, उसमें लौंग डाली और कड़ाह से निकालकर एक मटकी में रख दिया। उसकी सोंधी-सोंधी सुगंध से सारा घर महक रहा था। महरी चौका-बर्तन करने आई तो उसने चाहा कि मटकी चौके से उठाकर छींके या आले पर रख दे। पर संयोग की बात, उसने मटकी उठाई, तो वह उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी। सारा घी बह गया। धमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो महरी खड़ी रो रही थी और मटकी चूर-चूर हो गई थी। तड़पकर बोली, 'मटकी कैसे टूट गई ? मैं तेरी तलब से काट लूँगी। राम-राम, सारा घी मिट्टी में मिला दिया ! तेरी आँखें फूट गई थीं क्या ? या हाथों में दम नहीं था ? इतनी दूर से मँगाया, इतनी मिहनत से गर्म किया; मगर एक बूँद भी गले के नीचे न गया। अब खड़ी बिसूर क्या रही है, जा अपना काम कर।'
महरी ने आँसू पोंछकर कहा, बहूजी, अब तो चूक हो गई, चाहे तलब काटो, चाहे जान मारो। मैंने तो सोचा उठाकर आले पर रख दूँ, तो चौका लगाऊँ। क्या जानती थी कि भाग्य में यह लिखा है। न-जाने किसका मुँह देखकर उठी थी।'
रामेश्वरी- 'मैं कुछ नहीं जानती, सब रुपये तेरी तलब से वसूल कर लूँगी। एक रुपया जुरमाना न किया तो कहना।'
महरी- 'मर जाऊँगी सरकार, कहीं एक पैसे का ठिकाना नहीं है।'
रामेश्वरी- 'मर जा या जी जा, मैं कुछ नहीं जानती।'
महरी ने एक मिनट तक कुछ सोचा और बोली, 'अच्छा, काट लीजिएगा सरकार। आपसे सबर नहीं होता; मैं सबर कर लूँगी। यही न होगा, भूखों मर जाऊँगी। जीकर ही कौन-सा सुख भोग रही हूँ कि मरने को डरूँ। समझ लूँगी; एक महीना कोई काम नहीं किया। आदमी से बड़ा-बड़ा नुकसान हो जाता है, यह तो घी ही था।' रामेश्वरी को एक ही क्षण में महरी पर दया आ गई ! बोली, 'तू भूखों मर जायगी, तो मेरा काम कौन करेगा?'
महरी- 'काम कराना होगा, खिलाइएगा; न काम कराना होगा, भूखों मारिएगा। आज से आकर आप ही के द्वार पर सोया करूँगी।'
रामेश्वरी- 'सच कहती हूँ, आज तूने बड़ा नुकसान कर डाला।'
महरी- 'मैं तो आप ही पछता रही हूँ सरकार।'
रामेश्वरी- 'जा गोबर से चौका लीप दे, मटकी के टुकड़े दूर फेंक दे और बाजार से घी लेती आ।'
महरी ने खुश होकर चौका गोबर से लीपा और मटकी के टुकड़े बटोर रही थी कि कुन्दनलाल आ गए और हाँड़ी टूटी देखकर बोले, 'यह हाँड़ी कैसे टूट गई ?'
रामेश्वरी ने कहा- ‘महरी उठाकर ऊपर रख रही थी, उसके हाथ से छूट पड़ी।'
कुन्दनलाल ने चिल्लाकर कहा- 'तो सब घी बह गया ?'
'और क्या कुछ बच भी रहा !'
'तुमने महरी से कुछ कहा, नहीं ?'
'क्या कहती ? उसने जान-बूझकर तो गिरा नहीं दिया।'
'यह नुकसान कौन उठायेगा ?'
'हम उठायेंगे, और कौन उठायेगा। अगर मेरे ही हाथ से छूट पड़ती तो क्या हाथ काट लेती।'
कुन्दनलाल ने ओंठ चबाकर कहा, 'तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आती। जिसने नुकसान किया है, उससे वसूल होना चाहिए। यही ईश्वरीय नियम है। आँख की जगह आँख, प्राण के बदले प्राण, यह ईसामसीह-जैसे दयालु पुरुष का कथन है। अगर दण्ड का विधान संसार से उठ जाय, तो यहाँ रहे कौन ? सारी पृथ्वी रक्त से लाल हो जाय, हत्यारे दिनदहाड़े लोगों का गला काटने लगें। दण्ड ही से समाज की मर्यादा कायम है। जिस दिन दण्ड न रहेगा, संसार न रहेगा। मनु आदि स्मृतिकार बेवकूफ नहीं थे कि दण्ड-न्याय को इतना महत्त्व दे गये और किसी विचार से नहीं, तो मर्यादा की रक्षा के लिए दण्ड अवश्य देना चाहिए। ये रुपये महरी को देने पड़ेंगे। उसकी मजदूरी काटनी पड़ेगी। नहीं तो आज उसने घी का घड़ा लुढ़का दिया है, कल कोई और नुकसान कर देगी।'
रामेश्वरी ने डरते-डरते कहा, 'मैंने तो उसे क्षमा कर दिया है।'
कुन्दनलाल ने आँखें निकालकर कहा, 'लेकिन मैं नहीं क्षमा कर सकता।'
महरी द्वार पर खड़ी यह विवाद सुन रही थी। जब उसने देखा कि कुन्दनलाल का क्रोध बढ़ता जाता है और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड़कियाँ सुननी पड़ रही हैं, तो वह सामने जाकर बोली, 'बाबूजी, अब तो कसूर हो गया। अब सब रुपये मेरी तलब से काट लीजिए। रुपये नहीं हैं, नहीं तो अभी लाकर आपके हाथ पर रख देती।'
रामेश्वरी ने उसे घुड़ककर कहा, 'जा भाग यहाँ से, तू क्या करने आई। बड़ी रुपये वाली बनी है !'
कुन्दनलाल ने पत्नी की ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा, 'तुम क्यों उसकी वकालत कर रही हो। यह मोटी-सी बात है और इसे एक बच्चा भी समझता है कि जो नुकसान करता है, उसे उसका दण्ड भोगना पड़ता है।
मैं क्यों पाँच रुपये का नुकसान उठाऊँ ? बेवजह ? क्यों नहीं इसने मटके को सँभालकर पकड़ा, क्यों इतनी जल्दबाजी की, क्यों तुम्हें बुलाकर मदद नहीं ली ? यह साफ इसकी लापरवाही है।' यह कहते हुए कुन्दनलाल बाहर चले गये।
रामेश्वरी इस अपमान से आहत हो उठी। डांटना ही था, तो कमरे में बुलाकर एकान्त में डांटते। महरी के सामने उसे रुई की तरह धुन डाला। उसकी समझ ही में न आता था, यह किस स्वभाव के आदमी हैं। आज एक बात कहते हैं, कल उसी को काटते हैं, जैसे कोई झक्की आदमी हो। कहाँ तो दया और उदारता के अवतार बनते थे, कहाँ आज पाँच रुपये के लिए प्राण देने लगे। बड़ा मजा आ जाय, कल महरी बैठ रहे। कभी तो इनके मुख से प्रसन्नता का एक शब्द निकला होता ! अब मुझे भी अपना स्वभाव बदलना पड़ेगा। यह सब मेरे सीधे होने का फल है। ज्यों-ज्यों मैं तरह देती हूँ, आप जामे से बाहर होते हैं। इसका इलाज यही है कि एक कहें, तो दो सुनाऊँ। आखिर कब तक और कहाँ तक सहूँ। कोई हद भी है ! जब देखो डांट रहे हैं। जिसके मिजाज का कुछ पता ही न हो, उसे कौन खुश रख सकता है। उस दिन जरा-सा बिल्ली को मार दिया, तो आप दया का उपदेश करने लगे। आज वह दया कहाँ गई। उनको ठीक करने का उपाय यही है कि समझ लूँ, कोई कुत्ता भूँक रहा है। नहीं, ऐसा क्यों करूँ। अपने मन से कोई काम ही न करूँ; जो यह कहें, वही करूँ; न जौ-भर कम, न जौ-भर ज्यादा। जब इन्हें मेरा कोई काम पसन्द नहीं आता, मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बरबस अपनी टाँग अड़ाऊँ। बस, यही ठीक है। वह रात-भर इसी उधेड़बुन में पड़ी रही। सबेरे कुन्दनलाल नदी स्नान करने गये। लौटे, तो 9 बज गये थे। घर में जाकर देखा, तो चौका-बर्तन न हुआ था। प्राण सूख गये। पूछा, 'क्या महरी नहीं आयी ?'
रामे- 'नहीं।'
कुन्दन- 'तो फिर ?'
रामे- 'जो आपकी आज्ञा।'
कुन्दन- 'यह तो बड़ी मुश्किल है।'
रामे- 'हाँ, है तो।'
कुन्दन- 'पड़ोस की महरी को क्यों न बुला लिया ?'
रामे- 'किसके हुक्म से बुलाती; अब हुक्म हुआ है, बुलाये लेती हूँ।'
कुन्दन- 'अब बुलाओगी, तो खाना कब बनेगा ? नौ बज गये और इतना तो तुम्हें अपनी अक्ल से काम लेना चाहिए था कि महरी नहीं आयी तो पड़ोसवाली को बुला लें।'
रामे- 'अगर उस वक्त सरकार पूछते, क्यों दूसरी महरी बुलाई, तो क्या जवाब देती ? अपनी अक्ल से काम लेना छोड़ दिया। अब तुम्हारी ही अक्ल से काम लूँगी। मैं यह नहीं चाहती कि कोई मुझे आँखें दिखाये।
कुन्दन- 'अच्छा, तो इस वक्त क्या होगा ?'
रामे- 'जो हुजूर का हुक्म हो।'
कुन्दन- 'तुम मुझे बनाती हो।'
रामे- 'मेरी इतनी मजाल कि आप को बनाऊँ ! मैं तो हुजूर की लौंडी हूँ। जो कहिए, वह करूँ।'
कुन्दन- 'मैं तो जाता हूँ, तुम्हारा जो जी चाहे करो।'
रामे- 'जाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूँगी।'
कुन्दन- 'आखिर तुम क्या खाओगी ?'
रामे- 'जो आप देंगे, वही खा लूँगी।'
कुन्दन- 'लाओ, बाजार से पूड़ियाँ ला दूँ।'
रामेश्वरी रुपया निकाल लाई। कुन्दनलाल पूड़ियाँ लाये। इस वक्त का काम चला। दफ्तर गये। लौटे, तो देर हो गयी थी। आते-ही-आते पूछा, 'महरी आयी ?'
रामे- 'नहीं।'
कुन्दन- 'मैंने तो कहा, था, पड़ोसवाली को बुला लेना।'
रामे- 'बुलाया था। वह पाँच रुपये माँगती है।'
कुन्दन- 'तो एक ही रुपये का फर्क था, क्यों नहीं रख लिया ?'
रामे- 'मुझे यह हुक्म न मिला था। मुझसे जवाब-तलब होता कि एक रुपया ज्यादा क्यों दे दिया, खर्च की किफायत पर उपदेश दिया जाने लगता, तो क्या करती।'
कुन्दन- 'तुम बिल्कुल मूर्ख हो।'
रामे- 'बिल्कुल।'
कुन्दन- 'तो इस वक्त भी भोजन न बनेगा ?'
रामे- 'मजबूरी है।'
कुन्दनलाल सिर थामकर चारपाई पर बैठ गये। यह तो नयी विपत्ति गले पड़ी। पूड़ियाँ उन्हें रुचती न थीं। जी में बहुत झुँझलाये। रामेश्वरी को दो-चार उल्टी-सीधी सुनायीं, लेकिन उसने मानो सुना ही नहीं। कुछ बस न चला, तो महरी की तलाश में निकले। जिसके यहाँ गये, मालूम हुआ, महरी काम करने चली गयी। आखिर एक कहार मिला। उसे बुला लाये। कहार ने दो आने लिये और बर्तन धोकर चलता बना।
रामेश्वरी ने कहा, 'भोजन क्या बनेगा ?'
कुन्दन- 'रोटी-तरकारी बना लो या इसमें कुछ आपत्ति है ?'
रामे- 'तरकारी घर में नहीं है।'
कुन्दन- 'दिन भर बैठी रहीं, तरकारी भी न लेते बनी ? अब इतनी रात गये तरकारी कहाँ मिलेगी ?
रामे- 'मुझे तरकारी ले रखने का हुक्म न मिला था। मैं पैसा-धेला ज्यादा दे देती तो ?'
कुन्दनलाल ने विवशता से दाँत पीसकर कहा, 'आखिर तुम क्या चाहती हो ?'
रामेश्वरी ने शान्त भाव से जवाब दिया, 'कुछ नहीं, केवल अपमान नहीं चाहती।'
कुन्दन- 'तुम्हारा अपमान कौन करता है ?
रामे- 'आप करते हैं।'
कुन्दन- 'तो मैं घर के मामले में कुछ न बोलूँ ?'
रामे- 'आप न बोलेंगे, तो कौन बोलेगा ? मैं तो केवल हुक्म की ताबेदार हूँ।'
रात रोटी-दाल पर कटी। दोनों आदमी लेटे। रामेश्वरी को तो तुरन्त नींद आ गयी। कुन्दनलाल बड़ी देर तक करवटें बदलते रहे। अगर रामेश्वरी इस तरह सहयोग न करेगी, तो एक दिन भी काम न चलेगा। आज ही बड़ी
मुश्किल से भोजन मिला। इसकी समझ ही उल्टी है। मैं तो समझाता हूँ, यह समझती है, डांट रहा हूँ। मुझसे बिना बोले रहा भी तो नहीं जाता। लेकिन अगर बोलने का यह नतीजा है, तो फिर बोलना फिजूल है। नुकसान होगा, बला से; यह तो न होगा कि दफ्तर से आकर बाजार भागूँ। महरी से रुपये वसूल करने की बात इसे बुरी लगी और थी भी बेजा। रुपये तो न मिले, उल्टे महरी ने काम छोड़ दिया।
रामेश्वरी को जगाकर बोले, 'कितना सोती हो तुम ?'
रामे- 'मजूरों को अच्छी नींद आती है।'
कुन्दन- 'चिढ़ाओ मत, महरी से रुपये न वसूल करना।'
रामे- 'वह तो लिये खड़ी है शायद।'
कुन्दन- 'उसे मालूम हो जायगा, तो काम करने आयेगी।'
रामे- 'अच्छी बात है कहला भेजूँगी।'
कुन्दन- 'आज से मैं कान पकड़ता हूँ, तुम्हारे बीच में न बोलूँगा।'
रामे- 'और जो मैं घर लुटा दूँ तो ?'
कुन्दन- 'लुटा दो, चाहे मिटा दो, मगर रूठो मत। अगर तुम किसी बात में मेरी सलाह पूछोगी, तो दे दूँगा; वरना मुँह न खोलूँगा।'
रामे- 'मैं अपमान नहीं सह सकती।'
कुन्दन- 'इस भूल को क्षमा करो।'
रामे- 'सच्चे दिल से कहते हो न ?'
कुन्दन- 'सच्चे दिल से।'

You might also like

भाग-36 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-36 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 17, 2024

भाग-35 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-35 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 17, 2024

भाग-34 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-34 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 17, 2024

भाग-33 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-33 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 17, 2024

भाग-32 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-32 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 17, 2024

भाग-31 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-31 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 17, 2024

भाग-30 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-30 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 16, 2024

भाग-29 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-29 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 16, 2024

भाग-28 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-28 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 15, 2024

भाग-27 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-27 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 15, 2024

भाग-26 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-26 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 14, 2024

भाग-25 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-25 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 14, 2024

भाग-24 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-24 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 13, 2024

भाग-23 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-23 - godan - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jan 13, 2024

सुहाग की साड़ी - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | suhag ki saree - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 4, 2023

प्रारब्ध - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | prarabdh - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 4, 2023

शान्ति-2 - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | shanti-2 - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 4, 2023

नाग पूजा - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | naag pooja - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

महातीर्थ - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | mahateerth - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

लोकमत का सम्मान - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | lokmat ka samman - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

दो भाई - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | do bhai - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

फ़ातिहा - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | fatiha - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 11, 2023

जिहाद - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | jihaad - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 11, 2023

शंखनाद - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | shankhnaad - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 10, 2023

पंच परमेश्वर - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | panch parmeshwar - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 10, 2023

दुर्गा का मंदिर - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | durga ka mandir - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 9, 2023

आत्माराम - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | aatmaram - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 9, 2023

बड़े घर की बेटी - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | barey ghar ki beti - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 8, 2023

बैंक का दिवाला - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | bank ka diwala - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 8, 2023

मैकू - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | maiku - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · May 23, 2023