भाग-36 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-36 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

गोदान – भाग-36

दो दिन तक गांव में खूब धूम-धाम रही । बाजे बजे, गाना-बजाना हुआ और रूपा रो-धोकर बिदा हो गयी; मगर होरी को किसी ने घर से निकलते न देखा । ऐसा छिपा बैठा था जैसे मुँह में कालिख लगी हो । मालती के आ जाने से चहल-पहल और बढ़ गयी । दूसरे गांवों की स्त्रियों भी आ गयी ।
गोबर ने अपने शील-स्नेह से सारे गाँव को मुग्ध कर लिया है । ऐसा कोई घर न था, जहाँ वह अपने मीठे व्यवहार की याद न छोड़ आया हो । भोला तो उसके पैरों पर गिर पड़े । उनकी स्त्री ने उसको पान खिलाये और एक रुपया बिदायी दी और उसका लखनऊ का पता भी पूछा । कभी लखनऊ आयेगी तो उससे ज़रूर मिलेगी । अपने रुपये की उससे चर्चा न की ।
तीसरे दिन जब गोबर चलने लगा, तो होरी ने धनिया के सामने आँखों में आंसू भरकर वह अपराध स्वीकार किया, जो कई दिन से उसकी आत्मा को मथ रहा था और रोकर बोला-बेटा मैंने इस ज़मीन के मोह से पाप की गठरी सिर लादी । न जाने भगवान मुझे इसका क्या दण्ड देंगे ।
गोबर ज़रा भी गर्म न हुआ, किसी प्रकार का रोष उसके मुँह पर न था । श्रद्धाभाव से बोला-इसमें अपराध की तो कोई बात नहीं है दादा, हां, रामसेवक के रुपये अदा कर देना चाहिए । आखिर तुम क्या करते? मैं किसी लायक नहीं, तुम्हारी खेती में उपज नहीं, करज कहीं मिल नहीं सकता, एक महीने के लिए भी घर में भोजन नहीं । ऐसी दसा में तुम और कर ही क्या सकते थे? जैजात न बचाते तो रहते कही? जब आदमी का कोई बस नहीं चलता, तो अपने को तकदीर पर ही छोड़ देता है । न जाने यह धाँधली कब तक चलती रहेगी । जिसे पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उसके लिए मरजाद और इज्जत सब ढोंग है । औरों की तरह तुमने भी दूसरों का गला दबाया होता, उनकी जमा मारी होती, तो तुम भी भले आदमी होते । तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ा, यह उसी का दण्ड है । तुम्हारी जगह मैं होता तो या तो जेहल में होता या फाँसी पा गया होता । मुझसे यह कभी बरदाश्त न होता कि मैं कमा-कमाकर सब का घर भरूँ और आप अपने बाल-बच्चों के साथ मुँह में जाली लगाये बैठा रहूँ ।
धनिया बहू को उसके साथ भेजने पर राजी न हुई । झुनिया का मन भी अभी कुछ दिन यहाँ रहने का था । तय हुआ कि गोबर अकेला ही जाये ।
दूसरे दिन प्रातःकाल गोबर सबसे बिदा होकर लखनऊ चला । होरी उसे गाँव के बाहर तक पहुँचाने आया । गोबर के प्रति इतना प्रेम उसे कभी न हुआ था । जब गोबर उसके चरणों पर झुका, तो होरी रो पड़ा, मानो फिर उसे पुत्र के दर्शन न होंगे । उसकी आत्मा में उल्लास था, गर्व था, संकल्प था । पुत्र से यह श्रद्धा और स्नेह पाकर वह तेज़वान हो गया है, विशाल हो गया है । कई दिन पहले उस पर जो अवसाद-सा छा गया था, एक अन्धकार-सा, जहाँ वह अपना मार्ग भूल जाता था, वहाँ अब उत्साह है और प्रकाश है ।
रूपा अपनी ससुराल में खुश थी । जिस दशा में उसका बालपन बीता था, उसमें पैसा सबसे कीमती चीज़ थी । मन में कितनी साधे थी, जो मन में ही घुट-घुटकर रह गयी थी । वह अब उन्हें पूरा कर रही थी और रामसेवक अधेड़ होकर भी जवान हो गया था । रूपा के लिए वह पति था, उसके जवान, अधेड़ या बूढ़े होने से उसकी नारी-भावना में कोई अन्तर न आ सकता था । उसकी यह भावना पति के रंग-रूप या उम्र पर आश्रित न थी, उसकी बुनियाद इससे बहुत गहरी थी, श्वेत परम्पराओं की तह में जो केवल किसी भूकम्प से ही हिल सकती थी । उसका यौवन अपने ही में मस्त था, वह अपने ही लिए अपना बनाव-सिंगार करती थी और आप ही खुश होती थी । रामसेवक के लिए उसका दूसरा रूप था । तब वह गृहिणी बन जाती थी, घर के काम-काज में लगी हुई । अपनी जवानी दिखाकर उसे लज्जा या चिन्ता में न डालना चाहती थी । किसी तरह की अपूर्णता का भाव उसके मन में न आता था । अनाज से भरे हुए बखार और गांव से सिवान तक फैले हुए खेत और द्वार पर ढोरों की कतारें और किसी प्रकार की अपूर्णता को उसके अन्दर आने ही न देती थीं ।
और उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी अपने घरवालों की खुशी देखना । उनकी गरीबी कैसे दूर कर दे? उस गाय की याद अभी तक उसके दिल में हरी थी, जो मेहमान की तरह आयी थी और सब को रोता छोड़कर चली गयी थी । वह स्मृति इतने दिनों के बाद अब और भी मृदु हो गयी थी । अभी उसका निजत्व इस नये घर में न जम पाया था । वही पुराना घर उसका अपना घर था । वहीं के लोग अपने आत्मीय थे, उन्हीं का दुःख उसका दुःख और उन्हीं का सुख उसका सुख था । इस द्वार पर ढोरों का एक रेवड़ देखकर उसे वह हर्ष न हो सकता था, जो अपने द्वार पर एक गाय देखकर होता । उसके दादा की यह लालसा कभी पूरी न हुई । जिस दिन वह गाय आयी थी, उन्हें कितना उछाह हुआ था, जैसे आकाश से कोई देवी आ गयी हो । तब से फिर उन्हें इतनी समाई ही न हुई कि कोई दूसरी गाय लाते, पर वह जानती थी, आज भी वह लालसा होरी के मन में उतनी ही सजग है । अबकी यह जायगी, तो साथ वह धौरी गाय जरूर लेती जायगी 1 नहीं, अपने आदमी से क्यों न भेजवा दे । रामसेवक से पूछने की देर थी । मंजूरी हो गयी, और दूसरे दिन एक अहीर के मारफत रूपा ने गाय भेज दी । अहीर ने कहा, दादा से कह देना, मंगल के दूध पीने के लिए भेजी है । होरी भी गाय लेने की फिक्र में था । यों अभी उसे गाय की कोई जल्दी न थी; मगर मंगल यही है और बिना दूध के कैसे रह सकता है! रुपये मिलते ही वह सबसे पहले गाय लेगा ।
मगर रुपये कहाँ से आयें । संयोग से उसी दिन एक ठीकेदार ने सड़क के लिए गांव के ऊपर में कंकड़ की खुदाई शुरू की । होरी ने सुना तो चट-पट वहाँ जा पहुँचा, और आठ आने रोज पर खुदाई करने लगा; अगर यह काम दो महीने भी टिक गया तो गाय भर को रुपये मिल जायेंगे । दिन-भर लू और धूप में काम करने के बाद वह घर आता, तो बिल्कुल मरा हुआ; अवसाद का नाम नहीं । उसी उत्साह से दूसरे दिन काम करने जाता । रात को भी खाना खा कर डिब्बी के सामने बैठ जाता, और सुतली कातता । कहीं बारह-एक बजे सोने जाता । धनिया भी पगला गयी थी-उसे इतनी मेहनत करने से रोकने के बदले खुद उसके साथ बैठी-बैठी सुतली कातती । गाय तो लेनी ही है, रामसेवक के रुपये भी तो अदा करने हैं । गोबर कह गया है उसे बड़ी चिन्ता है ।
रात के बारह बज गये थे । दोनों बैठे सुतली कात रहे थे । धनिया ने कहा-तुम्हें नींद आती हो तो जाके सो रहो । भोर फिर तो काम करना है ।
होरी ने आसमान की ओर देखा-चला जाऊँगा । अभी तो दस बजे होंगे । तू जा, सो रह ।
‘मैं तो दोपहर को छन-भर पौढ़ रहती हूँ ।’
‘मैं भी चबेना करके पेड़ के नीचे सो लेता हूँ ।’
‘बड़ी लू लगती होगी ।’
‘लू क्या लगेगी? अच्छी छाँह है ।’
‘मैं डरती हूँ, कहीं तुम बीमार न पड़ जाओ ।’
‘चल; बीमार वह पड़ते हैं, जिन्हें बीमार पड़ने की फुरसत होती है । यहाँ तो यह धुन है कि अबकी गोबर आये, तो रामसेवक के आधे रुपये जुमा रहें । कुछ वह भी लायेगा ही । बस इस साल इस रिन से गला छूट जाय, तो दूसरी जिन्दगी हो ।’
‘गोबर की अबकी बड़ी याद आती है । कितना सुशील हो गया है ।’
‘चलती बेर पैरों पर गिर पड़ा ।’
‘मंगल वही से आया तो कितना तैयार था । यही रोटी मिल जाय वही बहुत है । ठीकेदार से रुपये मिले और गाय लाया ।’
‘गाय तो कभी आ गयी होती, लेकिन तुम जब कहना मानो । अपनी खेती तो सँभाले न संभलती थी, पुनिया का भार भी अपने सिर ले लिया ।’
क्या करता, अपना धरम भी तो कुछ है । हीरा ने नालायकी की तो उसके बाल-बच्चों को संभालने वाला तो कोई चाहिए ही था । कौन था मेरे बिना, बता? मैं न मदद करता, तो आज उनकी क्या गति होती, सोच । इतना सब करने पर भी तो मँगरू ने उस पर नालिश कर दी!’
‘रुपये गाड़कर रखेगी तो क्या नालिश न होगी?’
‘क्या बकती है । खेती से पेट चल जाय यही बहुत है । गाड़कर कोई क्या रखेगा ।
‘हीरा तो जैसे संसार से ही चला गया ।’
‘मेरा मन तो कहता है कि वह आवेगा, कभी-न-कभी जरूर ।’
दोनों सोये । होरी अंधेरे मुँह उठा तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा है, बाल बड़े हुए, कपड़े तार-तार, मुँह सूखा हुआ, देह में रक्त और मांस का नाम नहीं, जैसे कद भी छोटा हो गया है । दौड़कर होरी के कदमों पर गिर पड़ा ।
होरी ने उसे छाती से लगाकर कहा-तुम तो बिल्कुल घुल गये हीरा! कब आये? आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी । बीमार हो क्या?
आज उसकी आँखों में वह हीरा न था जिसने उसकी जिन्दगी तल्ख कर दी थी, बल्कि वह हीरा था, जो बे-माँ-बाप का छोटा-सा बालक था । बीच के ये पचीस-तीस साल जैसे मिट गये, उनका कोई चिह्न भी नहीं था ।
हीरा ने कुछ जवाब न दिया । खड़ा रो रहा था ।
होरी ने उसका हाथ पकड़कर गद्गद कण्ठ से कहा-क्यों रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूक होती ही है । कही रहा इतने दिन?
हीरा कातर पचर में बोला-कही बताऊँ दादा ।! बस यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बंदे थे, बच गया । हत्या सिर पर सवार थी । ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी है; हरदम, सोते-जागते, कभी आंखो से ओझल न होती । मैं पागल हो गया और पाँच साल पागलखाने में रहा । आज वही से निकले छः महीने हुए । माँगता-खाता फिरता रहा । यहाँ आने की हिम्मत न पड़ती थी । संसार को कौन मुँह दिखाऊँगा । आखिर जी न माना । कलेजा मजबूत करके चला आया । तुमने बाल-बच्चों को…? होरी ने बात काटी-तुम नाहक भागे । अरे, दारोग़ा को दस-पाँच देकर मामला रफे-दफे करा दिया जाता और होता क्या?
‘तुमसे जीते-जी उरिन न हूँगा दादा ।’
‘मैं कोई गैर थोड़े हूँ भैया ।’
होरी प्रसन्न था । जीवन के सारे संकट, सारी निराशाएँ मानो उसके चरणों पर लोट रही थी । कौन कहता है, जीवन संग्राम में वह हारा है । यह उल्लास, यह गर्व, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं । इन्हीं हारों में उसकी विजय है । उसके टूटे-फूटे वस्त्र उसकी विजय पताकाएं हैं । उसकी छाती फूल उठी है, मुख पर तेज आ गया है । हीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सफलता मूर्तिमान हो गयी है । उसके बखार में सौ-दो सौ मन अनाज भरा होता, उसकी हाड़ी में हजार-पाँच सौ गड़े होते, पर उससे यह स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता था?
हीरा ने उसे सिर से पाँव तक देखकर कहा-तुम भी तो बहुत दुबले हो गये दादा! होरी ने हंसकर कहा-तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन हैं? मोटे वह होते हैं, जिन्हें न रिन का सोच होता है, न इज्जत का । इस जमाने में मोटा होना बेहयाई है । सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है । ऐसे मोटेपन में क्या सुख? सुख तो जब है कि परभी मोटे हों । सोभा से भेंट हुई?
‘उससे तो रात ही भेंट हो गयी थी । तुमने तो अपनों को भी पाला, जो तुमसे बैर करते थे, उनको भी पाला और अपनी मरजाद बनाये बैठे हो । उसने तो खेत-बारी सब बेच-बाच डाली और अब भगवान ही जाने उसका निबाह कैसे होगा?’
आज होरी खुदाई करने चला, तो देह भारी थी । रात की थकान दूर न हो पाई थी; पर उसके कदम तेज थे और चाल में निर्द्वन्द्वता की अकड़ थी ।
आज दस बजे ही से लू चलने लगी और दोपहर होते-होते तो आग बरस रही थी । होरी कंकड़ के झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था । जब दोपहर की छुट्टी हुई, तो वह बेदम हो गया था । ऐसी थकान उसे कभी न हुई थी । उसके पाँव तक न उठते थे । देह भीतर से झुलसी जा रही थी । उसने न स्नान ही किया, न चबेना । उसी थकान में अपना अँगोछा बिछाकर एक पेड़ के नीचे सो रहा; मगर प्यास के मारे कण्ठ सूखा जाता है । खाली पेट पानी पीना ठीक नहीं । उसने प्यास को रोकने की चेष्टा की, लेकिन प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़ती जाती थी । न रहा गया । एक मजदूर ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर रहा था । होरी ने उठकर एक लोटा पानी खींचकर पिया और फिर आकर लेट रहा; मगर आधा घण्टे में उसे कै हो गयी और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गयी ।
उस मजदूर ने कहा-कैसा जी है होरी भैया?
होरी के सिर में चक्कर आ रहा था । बोला-कुछ नहीं, अच्छा हूँ ।
यह कहते-कहते उसे फिर कै हुई और हाथ-पाँव ठण्डे होने लगे । यह सिर में चक्कर क्यों आ रहा है? आँखों के सामने जैसे अँधेरा छाया जाता है । उसकी आँखें बन्द हो गयी और जीवन की सारी स्मृतियाँ राजीव हो-होकर हृदय-पट पर आने लगी; लेकिन बेक्रम, आगे की पीछे, पीछे की आगे स्वप्न-चित्रों की भाँति बेमेल, विकृत और असम्बद्ध । वह सुखद बालपन आया जब वह गुल्लियाँ खेलता था और माँ की गोद में सोता था । फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है । फिर दृश्य बदला, धनिया दुलहिन बनी हुई, लाल चुँदरी पहने उसको भोजन करा रही थी ।
फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिल्कुल कामधेनु-सी । उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गयी और…
उसी मजदूर ने फिर पुकारा-दोपहरी ढल गयी होरी, चलो झौवा उठाओ । होरी कुछ न बोला । उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे थे । उसकी देह जल रही थी, हाथ-पाँव ठण्डे हो रहे थे । लू लग गयी थी ।
उसके घर आदमी दौड़ाया गया । एक घण्टा में धनिया दौड़ी हुई आ पहुंची । शोभा और हीरा पीछे-पीछे खटोले की डोली बनाकर ला रहे थे ।
धनिया ने होरी की देह छुई, तो उसका कलेजा सन्त से हो गया । मुख कांतिहीन हो गया था ।
काँपती हुई आवाज से बोली-कैसा जी है तुम्हारा?
होरी ने अस्थिर आँखों से देखा और बोला-तुम आ गये गोबर । मैंने मंगल के लिये गाय ले ली है । वह खड़ी है, देखो ।
धनिया ने मौत की सूरत देखी थी । उसे पहचानती थी । उसे दबे पाँव आते भी देखा था, आँधी की तरह भी देखा था । उसके सामने सास मरी, ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गांव के पचासों आदमी मरे । प्राण में एक धक्का-सा लगा । वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था, लेकिन नहीं, यह धैर्य का समय है, उसकी शंका निर्मूल है, लू लग गयी है, इसी से अचेत हो गये हैं ।
उमड़ते हुए आँसुओं को रोककर बोली-मेरी ओर देखो, मैं हूँ, क्या मुझे नहीं पहचानते?
होरी की चेतना लौटी । मृत्यु समीप आ गयी थी; आग दहकने वाली थी । धुँआ शान्त हो गया था । धनिया को दीन आँखों से देखा, दोनों आंखों से आंसू की दो बूँदें झलक पड़ी । क्षीण स्वर में बोला-मेरा कहा-सुना माफ करना धनिया! अब जाता हूँ । गाय की लालसा मन में ही रह गयी । अब तो यहाँ के रुपये क्रिया-करम में जायेंगे । रो मत धनिया, अब कब तक जिलायेगी? सब दुर्दशा तो हो गयी । अब मरने दे । और उसकी आंखें फिर बन्द हो गयी । उसी वक़्त हीरा और शोभा डोली लेकर पहुँच गये । होरी को उठाकर डोली में लिटाया और गांव की ओर चले ।
गांव में यह ख़बर हवा की तरह फैल गयी । सारा गाँव जमा हो गया । होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता था, सब कुछ समझता था; पर ज़बान बन्द हो गयी थी । हाँ, उसकी आँखों से बहते हुए आंसू! बतला रहे थे कि मोह का बन्धन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है । जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दुःख का नाम तो मोह है । पाले हुए कर्तव्य और निपटाये हुए कामों का क्या मोह! मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सके; उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम न पूरा कर सके ।
मगर सब कुछ समझकर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी । आँखों से आँसू गिर रहे थे, मगर यन्त्र की भाँति दौड़-दौड़कर कभी आम भूनकर पना बनाती, कभी होरी की देह में गेहूँ की भूसी की मालिश करती । क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेजकर डॉक्टर बुलाती ।
हीरा ने रोते हुए कहा-भाभी, दिल कड़ा करो, गो-दान दो, दादा चले ।
धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा । अब वह दिल को और कितना कठोर करे? अपने पति के प्रति उसका जो कर्म है, क्या वह उसको बताना पड़ेगा? जो जीवन का संगी था उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है?
और कई आवाजें आयीं-हाँ, गो-दान करा दो, अब यही समय है ।
धनिया यन्त्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली-महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा । यही इनका गोदान है ।
और पछाड़ खाकर गिर पड़ी ।

।। समाप्त ।।

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