गोदान – भाग-28
मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिल्कुल बेजा मालूम होती है । उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रहने की कोशिश की थी । वह अपने को जनता का ही आदमी समझते थे । पिछले कोसी आन्दोलन में उन्होंने बड़ा जोश दिखाया । जिले के प्रमुख नेता रहे थे, दो बार जेल गये थे और कई हजार का नुकसान उठाया था । अब भी वह मजूरों की शिकायतें सुनने को तैयार रहते थे, लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि वह शक्कर मिल के हिस्सेदारों के हित का विचार न करें । अपना स्वार्थ त्यागने को वह तैयार हो सकते थे अगर उनकी ऊँची मनोवृत्तियों को स्पर्श किया जाता, लेकिन हिस्सेदारों के स्वार्थ की रक्षा न करना, यह तो अधर्म था । यह तो व्यापार है, कोई सदाव्रत नहीं कि सब कुछ मजूरों को ही बाँट दिया जाय । हिस्सेदारों को यह विश्वास दिलाकर रुपये लिये गए थे कि इस काम में पन्द्रह-बीस सैकड़े का लाभ है । अगर उन्हें दस सैकड़े भी न मिले तो, वे डायरेक्टरों को और विशेषकर मिस्टर खन्ना को धोखेबाज ही समझेंगे ओर फिर अपना वेतन वह कैसे कम कर सकते थे? और कम्पनियों को देखेते उन्होंने अपना वेतन कम रखा था । केवल एक हजार रुपया महीना लेते थे । कुछ कमीशन भी मिल जाता था, मगर वह इतना लेते थे, तो मिल का संचालन भी करते थे ।
मजूर केवल हाथ से काम करते हैं । डायरेक्टर अपनी बुद्धि से, विद्या से, प्रतिभा से, प्रभाव से काम करता है । दोनों शक्तियों का मोल बराबर तो नहीं हो सकता मजूरों को यह सन्तोष क्यों नहीं होता कि मन्दी का समय है और चारों तरफ बेकारी फैली रहने के कारण आदमी सस्ते हो गए हैं । उन्हें तो एक जगह पौन भी मिले, तो संतुष्ट रहना चाहिए था । और सच पूछो तो वे सन्तुष्ट हैं । उनका कोई कसूर नहीं । वे तो मूर्ख हैं, बछिया के ताऊ! शरारत तो ओंकारनाथ और मिर्ज़ा खुर्शेद की है । यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़कर । यह नहीं सोचते कि उनकी दिल्लगी से कितने घर तबाह हो जायँगे । ओंकारनाथ का पत्र नहीं चलता तो बेचारे खन्ना क्या करें । और आज उनके पत्र के एक लाख ग्राहक हो जायें, और उससे उन्हें पाँच लाख का लाभ होने लगे, तो क्या वह केवल अपने गुजारे-भर को लेकर शेष कार्यकर्ताओं में बाँट देंगे? कही की बात! और वह त्यागी मिर्ज़ा खुर्शेद भी तो एक दिन लखपति थे । हज़ारों मजूर उनके नौकर थे । तो क्या वह अपने गुजारे-भर को लेकर सब कुछ मजूरों को बीट देते थे । वह उसी गुजारे की रकम से यूरोपियन छोरियों के साथ विहार करते थे । बड़े-बड़े अफसरों के साथ दावतें उड़ाते थे, हज़ारों रुपये महीने की शराब पी जाते थे और हर-साल फ्रांस और स्वीटजरलैण्ड की सैर करते थे । आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा फटता है ।
इन दोनों नेताओं की तो खन्ना को परवाह न थी । उनकी नियति की सफाई में पूरा सन्देह था । न रायसाहब की ही उन्हें परवाह थी जो हमेशा खन्ना की हाँ-में-हाँ मिलाया करते थे और उनके हर एक काम का समर्थन कर दिया करते थे । अपने परिचितों में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति था जिसके निष्पक्ष विचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और वह डॉक्टर मेहता थे । जब से उन्होंने मालती से घनिष्ठता बढ़ानी शुरू की थी खन्ना की नज़रों में उनकी इज्जत बहुत कम हो गयी थी । मालती बरसों खन्ना की हृदयेश्वरी रह चुकी थी, पर उसे उन्होंने सदैव खिलौना समझा था । इसमें सन्देह नहीं कि वह खिलौना उन्हें बहुत प्रिय था । उसके खो जाने, या टूट जाने, या छिन जाने पर वह खूब रोते और वह रोए थे, लेकिन थी वह खिलौना ही । उन्हें कभी मालती पर विश्वास न हुआ । वह कभी उनके ऊपरी विलास-आवरण को छेदकर उनके अन्तःकरण तक न पहुँच सकी थी । वह अगर खुद खन्ना से विवाह का प्रस्ताव करती, तो वह स्वीकार न करते । कोई बहाना करके टाल देते ।
अन्य कितने ही प्राणियों की भाँति खन्ना का जीवन भी दोहरा या दो-रुखी था । एक ओर वह त्याग और जन-सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दूसरी ओर स्वार्थ और विलास और प्रभुता के । कौन उनका असली रुख था, यह कहना कठिन है । कदाचित् उनकी आत्मा का उत्तम आधा सेवा और सहृदयता से बना हुआ था मद्धिम आधा और स्वार्थ और विलास से । पर उत्तम और मद्धिम में बराबर संघर्ष होता रहता था । और मद्धिम ही अपनी उद्दण्डता और हठ के कारण सौम्य और शान्त उत्तम पर गालिब आता था । उनका मद्धिम मालती की ओर झुकता था, उत्तम मेहता की ओर, लेकिन वह उत्तम अब मद्धिम के साथ हो गया था । उनकी समझ में न आता था कि मेहता-जैसा आदर्शवादी व्यक्ति मालती-जैसी चंचल, विलासिनी रमणी पर कैसे आसक्त हो गया! वह बहुत प्रयास करने पर भी मेहता को वासनाओं का शिकार न स्थिर कर सकते थे और कभी-कभी उन्हें यह सन्देह भी होने लगा था कि मालती का कोई दूसरा रूप भी है, जिसे वह न देख सके या जिसे देखने की उनकी क्षमता न थी ।
पक्ष और विपक्ष के सभी पहलुओं पर विचार करके उन्होंने यही नतीजा निकाला कि इस परिस्थिति में मेहता ही से उन्हें प्रकाश मिल सकता है ।
डॉक्टर मेहता को काम करने का नशा था । आधी रात को सोते थे और घड़ी रात रहे उठ जाते थे । कैसा भी काम हो, उसके लिए वह कहीं-न-कहीं से समय निकाल लेते थे । हाँकी खेलना हो या युनिवर्सिटी डिबेट, ग्राम्य-संगठन हो या किसी शादी का नैवेद्य, सभी कामों के लिए उनके पास लगन थी और समय था । वह पत्रों में लेख भी लिखते थे और कई साल से एक वृहद् दर्शन-अन्य लिख रहे थे, जो अब समाप्त होने वाला था । इस वक़्त भी वह एक वैज्ञानिक खेल ही खेल रहे थे । अपने बगीचे में बैठे हुए पौधों पर विद्युत-संचार क्रिया की परीक्षा कर रहे थे । उन्होंने हाल में एक विद्वान परिषद् में यह सिद्ध किया था कि फसलें बिजली के जोर से बहुत थोड़े समय में पैदा की जा सकती हैं, उनकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है और बेफुसल की चीज़ें भी उपजायी जा सकती हैं । आजकल सवेरे के दो-तीन घण्टे वह इन्हीं परीक्षाओं में लागया करते थे ।
मिस्टर खन्ना की कथा सुनकर उन्होंने कठोर मुद्रा से उनकी ओर देखकर कहा-क्या यह ज़रूरी था कि ड्यूटी लग जाने से मजूरों का वेतन घटा दिया जाय? आपको सरकार से शिकायत करनी चाहिए थी । अगर सरकार ने नहीं सुना, तो उसका दण्ड मजूरों को क्यों दिया जाय? क्या आपका विचार है कि मजूरों को इतनी मजूरी दी जाती है कि उसमें चौथाई कम कर देने से मजूरों को कष्ट नहीं होगा? आपके मजूर बिलों में रहते हैं-गंदे, बदबूदार बिलों में-जहाँ आप एक मिनट भी रह जाय, तो आपको कै हो जाए । कपड़े जो पहनते हैं उनसे आप अपने जूते भी न पोछेंगे । खाना जो वह खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खाएगा । मैंने उनके जीवन में भाग लिया है । आप उनकी रोटियाँ छीनकर अपने हिस्सेदारों का पेट भरना चाहते हैं ।…
खन्ना ने अधीर होकर कहा-लेकिन हमारे सभी हिस्सेदार तो धनी नहीं हैं । कितनों ही ने अपना सर्वस्व इसी मिल को भेंट कर दिया है और इसके नफे के सिवा उनके जीवन का कोई आधार नहीं है ।
मेहता ने इस भाव से जवाब दिया, जैसे इस दलील का उनकी नज़रों में कोई मूल्य नहीं है । जो आदमी किसी व्यापार में हिस्सा लेता है, वह इतना दरिद्र नहीं होता कि इसके नफ़े ही को जीवन का आधार समझे । हो सकता है कि नफ़ा कम मिलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर देना पड़े या उसके मक्खन और फलों का बिल कम हो जाय, लेकिन वह नंगा या भूखा न रहेगा । जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक उन लोगों से ज्यादा है, जो केवल रुपया लगाते हैं ।
यही बात पण्डित ओंकारनाथ ने कही थी । मिर्ज़ा खुर्शेद ने भी यही सलाह दी थी । यही तक कि गोविन्दी ने भी मजूरों का ही पक्ष लिया था, पर खन्नाजी ने उन लोगों की परवाह न की थी, लेकिन मेहता के मुँह से वही बात सुनकर वह प्रभावित हो गए । ओंकारनाथ को वह स्वार्थी समझते थे, मिर्ज़ा खुर्शेद को गैरजिम्मेदार और गोविन्दी को अयोग्य । मेहता की बात में चरित्र, अध्ययन और सदभाव की शक्ति थी ।
सहसा मेहता ने पूछा-आपने अपनी देवीजी से भी इस विषय में राय ली? खन्ना ने सकुचाते हुए कहा-हाँ पूछा था ।
‘उनकी क्या राय थी?’
‘वही, जो आपकी है ।’
‘मुझे यही आशा थी कि आप उस विदुषी को अयोग्य समझते हैं ।’
उसी वक़्त मालती आ पहुँची और खन्ना को देखकर बोली-अच्छा, आप बिराज रहे हैं? मैंने मेहताजी की आज दावत की है । सभी चीज़ें अपने हाथों से पकायी है । आपको भी नेवता देती हूँ । गोविन्दी देवी से आपका यह अपराध क्षमा करा दूंगी ।
खन्ना को कुतूहल हुआ । अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी है? मालती… वही मालती, जो खुद कभी अपने जूते न पहनती थी, जो खुद कभी बिजली का बटन तक न दबाती थी, विलास और विनोद ही जिसका जीवन था! मुस्कुराकर कहा-अगर आपने पकाया है तो जरूर खाऊँगा । मैं तो कभी सोच ही नहीं सकता था कि आप पाक-कला में भी निपुण हैं ।
मालती निःसंकोच भाव में बोली-इन्होंने मार-माकर वैद्य बना दिया । इनका हुक्म कैसे टाल सकती? पुरुष देवता ठहरे ।
खन्ना ने इस व्यंग्य का आनन्द लेकर मेहता की ओर आंखें मारते हुए कहा-पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी ।
मालती झेंपी नहीं । इस संकोच का आशय समझकर जोश-भरे स्वर में बोली-लेकिन अब हो गई हूँ, इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा था, उससे यह कहीं सुन्दर है । पुरुष इतना सुन्दर, इतना कोमल हृदय…
मेहता ने मालती की ओर दीन-भाव से देखा और बोले-नहीं मालती, मुझ पर दया करो, नहीं तो मैं यहाँ से भाग जाऊँगा ।
इन दिनों जो कोई मालती से मिलता है, वह उससे मेहता की तारीफों के पुल बाँध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नए विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे । सुरुचि का ध्यान भी उसे न रहता । और बेचारे मेहता दिल में कटकर रह जाते थे । वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक से सुनते थे, लेकिन अपनी तारीफ सुनकर बेवकूफ बन जाते थे, मुँह ज़रा-सा निकल आता था, जैसे कोई फबती छा गई हो । और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर रह सके । वह बाहर ही रह सकती थी, पहले भी और अब भी, व्यवहार में भी, विचार में भी । मन में, कुछ रखना वह न जानती थी । जैसे एक अच्छी साड़ी पाकर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थी, उसी तरह मन में कोई सुन्दर भाव आये, तो वह उसे प्रकट किए बिना चैन न पाती थी ।
मालती ने और समीप आकर उनकी पीठ पर हाथ रखकर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा-अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूँगी । मालूम होता है, तुम्हें अपनी निन्दा ज्यादा पसन्द है । तो निन्दा ही सुनो-खन्ना जी, महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल…
शक्कर-मिल की चिमनी यहाँ से साफ नजर आती थी । खन्ना ने उसकी तरफ देखा । वह चिमनी खन्ना के कीर्तिस्तम्भ की भाँति आकाश में सिर उठाए खड़ी थी । खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा । इसी वक़्त उन्हें मिल के दफ्तर जाना है । वही डायरेक्टरों की एक अर्जेण्ट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा ।
मगर चिमनी के पास यह धुँआ कही से उठ रहा है? देखते-देखते सारा आकाश बैलून की भाँति धुएँ से भर गया । सबों ने सशंक होकर उधर देखा । कही आग तो नहीं लग गई? आग ही मालूम होती है ।
सहसा सामने सड़क पर हज़ारों आदमी मिल की तरफ दौड़ते नजर आये । खन्ना ने खड़े होकर जोर से पूछा-तुम लोग कही दौड़े जा रहे हो?
एक आदमी ने रुककर कहा-अजी, शक्कर-मिल में आग लग गई! आप देख नहीं रहे हैं?
खन्ना ने मेहता की और देखा और मेहता ने खन्ना की ओर । मालती दौड़ी हुई अपने बँगले में गयी और अपने जूते पहन आयी । अफसोस और शिकायत करने का अवसर न था । किसी के मुँह से एक बात न निकली । खतरे में हमारी चेतना अन्तर्मुखी हो जाती है । खन्ना की कार खड़ी थी ही । तीनों आदमी घबराए हुए आकर बैठे और मिल की तरफ भागे । चौरस्ते पर पहुँचे तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है । आग में आदमियों को खींचने का जादू है । कार आगे न बढ़ सकी ।
मेहता ने पूछा-आग बीमा तो करा लिया था न!
खन्ना ने लम्बी साँस खींचकर कहा-कहाँ भाई! अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी । क्या जानता था यह आफत आने वाली है?
कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गई और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे । देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था । अग्नि की उन्मत लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थी, जीभ लपलपाती थी, जैसे आकाश को भी निगल जायेंगी । उस अग्नि-समुद्र के नीचे ऐसा धुँआ छाया था, मानों सावन की घटा कालिख में नहाकर नीचे उतर आयी हो । उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमालय खड़ा था । हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फायर ब्रिग्रेड के छींटे उस अग्नि-सागर में जाकर जैसे बुझ जाते थे । ईंटें जल रही थी, लोहे के गर्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरह बह रहे थे । और-तो-और जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी ।
दूर से मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते! मगर अब इन्हें भी ज्ञात हो गया कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है । मिल की दीवारों से पचास गज के अन्दर जाना जान-जोखिम था । ईंट और पत्थर के टुकड़े चटाक-चटाक टूट कर इधर-उधर उड़ रहे थे । कभी-कभी हवा का रुख इधर हो जाता था, तो भगदड़ मच जाती थी ।
ये तीनों आदमी भीड़ के पास खड़े थे । कुछ समझ में न आता था, क्या करें । आखिर आग लगी कैसे! और इतनी जल्द फैल कैसे गई? क्या पहले किसी ने देखा ही नहीं? या देखकर भी बुझाने का प्रयास नहीं किया? इस तरह के प्रश्न सभी के मन में उठ रहे थे, मगर वही पूछें किससे, मिल के कर्मचारी होंगे तो जरूर! लेकिन इस भीड़ में उनका मिलना कठिन था ।
सहसा हवा का इतना तेज़ झोंका आया कि आग की लपटें नीचे होकर इधर लपकी, जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो । लोग सिर पर पाँव रखकर भागे । एक-दूसरे पर गिरते, रेलते, जैसे कोई शेर झपटा आता हो । अग्नि-ज्वालाएँ जैसे सजीव हो गई थीं, सचेष्ट भी, जैसे कोई शेषनाग अपने सहस मुख से आग फुंकार रहा हो । कितने ही आदमी तो इस रेले में कुचल गए । खन्ना मुँह के बल गिर पड़े, मालती को मेहता जी दोनों हाथों से पकड़े हुए थे, नहीं जरूर कुचल गई होती? तीनों आदमी हाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आकर रुके । खन्ना एक प्रकार की चेतनाशून्य तन्मयता से मिल की चिमनी की ओर टकटकी लगाए खड़े थे ।
मेहता ने पूछा-आपको ज्यादा चोट तो नहीं आयी?
खन्ना ने कोई जवाब न दिया । उसी तरफ ताकते रहे । उनकी आँखों में वह शून्यता थी, जो विक्षिप्तता का लक्षण है ।
मेहता ने उनका हाथ पकड़कर फिर पूछा-हम लोग यहाँ व्यर्थ खड़े हैं । मुझे भय होता है, आपको चोट ज्यादा आ गई । आइए, लौट चलें ।
खन्ना ने उनकी तरफ देखा और जैसे सनककर बोले-जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खूब जानता हूँ । अगर उन्हें इसी में सन्तोष मिलता है, तो भगवान उनका भला करे । मुझे कुछ परवाह नहीं, कुछ परवाह नहीं, कुछ…परवाह नहीं । मैं आज चाहें तो, ऐसी नई मिल खड़ी कर सकता हूँ । जी हाँ, बिल्कुल नई मिल खड़ी कर सकता हूँ । ये लोग मुझे क्या समझते हैं? मिल ने मुझे नहीं बनाया मैंने मिल को बनाया है । और मैं फिर बना सकता हूँ, मगर जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खाक में मिला दूँगा । मुझे सब मालूम है, रत्ती-रत्ती मालूम है ।
मेहता ने उनका चेहरा और उनकी चेष्टा देखी और घबराकर बोले-चलिए, आपको घर पहुँचा दूँ । आपकी तबीयत अच्छी नहीं है ।
खन्ना ने कहकहा मारकर कहा-मेरी तबीयत अच्छी नहीं है । इसलिए कि मिल जल गई । ऐसी मिलें मैं चुटकियों में खोल सकता हूँ । मेरा नाम खन्ना है, चन्द्रप्रकाश खन्ना! मैंने अपना सब कुछ इस मिल में लगा दिया । पहली मिल में हमने 20 प्रतिशत नफा दिया । मैंने प्रोत्साहित होकर यह मिल खोली । इसमें आधे रुपये मेरे हैं । मैंने बैंक के दो लाख इस मिल में लगा दिए । मैं एक घण्टा नहीं, आधा घण्टा पहले, दस लाख का आदमी था । जी हाँ, दस लाख, मगर इस वक़्त फाकेमस्त हूँ-नहीं दिवालिया हूँ। मुझे बैंक को दो लाख देना है । जिस मकान में रहता हूँ, वह अब मेरा नहीं है, जिस बर्तन में खाता हूँ वह भी अब मेरा नहीं है । बैंक से मैं निकाल दिया जाऊँगा । जिस खन्ना को देखकर लोग जलते थे, वह खन्ना अब धूल में मिल गया है । समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहीं, दया का पात्र समझेंगे । मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहीं, मुझ पर हँसेंगे । आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धान्तों की कितना हत्या की है । कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं । किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाट रखे । क्या कीजिएगा, यह सब सुनकर, लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों जिंदा रहे? जो कुछ होना है, हो, दुनिया जितना चाहे हँसे, मित्र लोग जितना चाहें अफसोस करें, लोग जितनी गालियाँ देना चाहें, दें । खन्ना अपनी आँखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा । वह बेहया नहीं, बेगैरत नहीं है!
यह कहते-कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीटकर जोर-जोर से रोने लगे ।
मेहता ने उन्हें छाती से लगाकर दुःखित स्वर में कहा-खन्नाजी, ज़रा धीरज से काम लीजिए । आप समझदार होकर दिल इतना छोटा करते हैं । दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है । आप निर्धन रहकर भी मित्रों के विश्वासपात्र रह सकते हैं । और शत्रुओं के भी, बल्कि तब कोई आपका शत्रु रहेगा ही नहीं । आइए, घर चलें । ज़रा आराम कर लेने से आपका चित्त शान्त हो जायगा ।
खन्ना ने कोई जवाब न दिया । तीनों आदमी चौरस्ते पर आये । कार खड़ी थी । दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुँच गये ।
खन्ना ने उतरकर शान्त स्वर में कहा-कार आप ले जायँ, अब मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है ।
मालती और मेहता भी उतर पड़े । मालती ने कहा-तुम चलकर आराम से लेटो, हम बैठे गप-शप करेंगे । घर जाने की तो ऐसी जल्दी नहीं है!
खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण-कंठ से बोले-मुझसे जो अपराध हुए हैं, उन्हें क्षमा कर देना मालती! तुम और मेहता, बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है । मुझे आशा है, तुम मुझे अपनी नज़रों से न गिराओगी । शायद दस-पाँच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पड़े । किस्मत ने कैसा धोखा दिया ।
मेहता ने कहा-मैं आपसे सच कहता हूँ खन्नाजी, आज मेरी नज़रों में आपकी जो इज्जत है वह कभी न थी ।
तीनों आदमी कमरे में दाखिल हुए । द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविन्दी भीतर आकर बोली-क्या आप लोग वहीं से आ रहे है? महाराज तो बड़ी बुरी ख़बर लाया ।
खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकने वाला, तूफानी आवेश उठा कि गोविन्दी के चरणों पर गिर पड़े और उसे आँसुओं से धो दें । भारी गले से बोले-हाँ प्रिय, हम तबाह हो गए ।
उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सान्त्वना के लिए विकल हो रही थी, सच्ची स्नेह में डूबी हुई सान्त्वना के लिए-उस रोगी की भाँति जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा-भरी आँखों से ताक रहा हो । वही गोविन्दी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म किया, जिसका हमेशा अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे आंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिये उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उनके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रखकर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार कर देगी । मन की इस दुर्बल दशा में, घोर विपत्ति में, मानो वह उन्हें कण्ठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी । नौका पर बैठे हुए जल-विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैं, और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोदकर फेंक देता, उन्हीं से, नौका टूट जाने पर, हम चिमट जाते हैं ।
गोविन्दी ने इन्हें एक सोफा पर बैठा दिया और लेह-कोमल स्वर में बोली-तो तुम दिल इतना छोटा क्यों करते हो? धन के लिए? जो सारे पाप की जड़ है? उस धन से हमें क्या सुख था? सबेरे से आधी रात तक एक-न-एक झंझट-आत्मा का सर्वनाश । लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम्हें सम्बन्धियों को पत्र लिखने तक की फुरसत न मिलती थी । क्या बड़ी इज्जत थी? हाँ, थी, क्योंकि दुनिया आज तक धन की पूजा करती चली आयी है । उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं । जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी है तुम्हारे सामने पूँछ हिलाएगी । कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी । तुम्हारी तरफ ताकेगी भी नहीं । सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते । वह देखते हैं, तुम क्या हो, अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे । नहीं तुम्हें समाज का लुटेरा समझकर मुँह फेर लेंगे, बल्कि; तुम्हारे दुश्मन हो जायँगे । मैं ग़लत तो नहीं कहती मेहता जी?
मेहता ने मानों स्वर्ग-स्वप्न से चौंककर कहा-ग़लत? आप वही कह रही हैं, जो संसार के महान पुरुषों ने जीवन का सात्त्विक अनुभव करने के बाद कहा है । जीवन का सच्चा आधार यही है ।
गोविन्दी ने मेहता को सम्बोधित करके कहा-धनी कौन होता है, इसका कोई विचार नहीं करता । वही जो अपने कौशल से दूसरों को बेवकूफ बना सकता है खन्ना ने बात काटकर कहा-नहीं गोविन्दी, धन कमाने के लिए अपने में सरकार चाहिए । केवल कौशल से धन नहीं मिलता । इसके लिए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती है । शायद इतनी साधना में ईश्वर भी मिल जाए । हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है ।
गोविन्दी ने विपक्षी न बनकर मध्यस्थ भाव से कहा-मैं मानती हूँ कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नहीं करनी पड़ती, लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन में जितने महत्त्व की वस्तु समझ रखी है उतना महत्त्व उसमें नहीं है । मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारे सिर से यह बोझ टला । अब तुम्हारे लड़के आदमी होंगे, स्वार्थ और अभिमान के पुतले नहीं । जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है । उनको लूटने में नहीं । बुरा न मानना, अब तक तुम्हारे जीवन का अर्थ था आत्मसेवा, भोग और विलास । देव ने तुम्हें उस साधन से वंचित करके तुम्हें ज्यादा ऊँचे और पवित्र जीवन का रास्ता खोल दिया है । यह सिद्धि प्राप्त करने में अगर कुछ कष्ट भी हो, तो उसका स्वागत करो । तुम इसे विपत्ति समझते ही क्यों हो? क्यों नहीं समझते, तुम्हें अन्याय से लड़ने का यह अवसर मिला है । मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है । धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है । न्याय के सैनिक बनकर लड़ने में जो गौरव, जो उल्लास है, क्या उसे इतनी जल्दी भूल गए?
गोविन्दी के पीले, सूखे मुख पर एक तेज़ की ऐसी चमक थी, मानों उसमें कोई विलक्षण शक्ति आ गई हो, मानों उसकी सारी मूक साधना प्रगल्म हो उठी हो ।
मेहता उसकी और भक्तिपूर्ण नेत्रों से ताक रहे थे, खन्ना सिर झुकाए इसे दैवी प्रेरणा समझने की चेष्टा कर रहे थे और मालती मन में लज्जित थी । गोविन्दी के विचार इतने ऊँचे, उसका हृदय इतना विशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल हैं ।