भाग-35 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-35 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

गोदान – भाग-35

होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जा रही थी । जीवन के संघर्ष में उसकी सदैव हार हुई; पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी । प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थी; मगर अब वह उस अन्तिम दशा को पहुँच गया था, जब उसमें आत्म-विश्वास भी न रहा था । अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता, तो भी कुछ आँसू पुछते; मगर वह बात भी न थी । उसने नीयत भी बिगाड़ी, अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो; पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुई, और भले दिन मृगतृष्णा की भाँति दूर ही होते चले गये, यहाँ तक कि अब उसे धोखा भी न रह गया था, झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नजर न आती थी ।
हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इन तीन बीघे के किले में बन्द कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था । फ़ाके सहे सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की; पर किले को हाथ से न जाने दिया; मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था । तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और अब पण्डित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था । कहीं से रुपये मिलने की आशा न थी । जमीन उसके हाथ से निकल जायेगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे । भगवान की इच्छा! राय साहब को क्या दोष दे? असामियों ही से उनका भी गुजर है । इसी गाँव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही है; आये । औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगी । भाग्य में सुख बदा होता, तो लड़का यों हाथ से निकल जाता?
साँझ हो गयी थी । वह इसी चिन्ता में डूबा बैठा था कि पण्डित दातादीन ने आकर कहा-क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदखली के बारे में? इन दिनों नोखेराम से मेरी बोल-चाल बन्द है । कुछ पता नहीं । सुना, तारीख को पन्द्रह दिन और रह गये हैं । होरी ने उनके लिए खाट डालकर कहा-वह मालिक हैं, जो चाहें करें, मेरे पास रुपये होते, तो वह दुर्दशा क्यों होती । खाया नहीं, उड़ाया नहीं, लेकिन उपज ही न हो और जो हो भी, वह कौड़ियों के मोल बिके, तो किसान क्या करे?
‘लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी । निबाह कैसे होगा । बाप दादों की इतनी ही निसानी बच रही है । वह निकल गयी, तो कही रहोगे?’
‘भगवान की मरजी है, मेरा क्या बस!’
‘एक उपाय है जो तुम करो ।’
होरी को जैसे अभय-दान मिल गया । इनके पाँव पकड़कर बोला-बड़ा धरम होगा महाराज, तुम्हारे सिवा मेरा कौन है? मैं तो निरास हो गया था ।
‘निरास होने की कोई बात नहीं । बस, इतना ही समझा लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है, दुःख में कुछ और । सुख में आदमी दान देता है, मगर दुःख में भीख तक माँगता है । उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है । सरीर अच्छा रहता है तो हम बिना असनान-पूजा किये मुँह में पानी भी नहीं डालते; लेकिन बीमार हो जाते हैं, तो बिना नहाये-धोये, कपड़े पहने, खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं । उस समय का यही धरम है । यहाँ हममें तुममें कितना भेद है; लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता । ऊंचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठकर खाते हैं । आपतकाल में श्रीरामचन्द्र ने सेवरी के जूठे फल खाये थे, बालि का छिपकर वध किया था । जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्यादा टूट जाती है, तो हमारी तुम्हारी कौन बात है? रामसेवक महतो को तो जानते हो न?’
होरी ने निरुत्साह होकर कहा-हाँ जानता क्यों नहीं ।
मेरा जजमान है । बड़ा अच्छा जमाना है उसका । खेती अलग, लेन-देन अलग । ऐसे रोब-दाब का आदमी ही नहीं देखा । कई महीने हुए, उसकी औरत मर गयी है । सन्तान कोई नहीं । अगर रुपिया का ब्याह उससे करना चाहो, तो मैं उसे राजी कर लूँ । मेरी बात वह कभी न टालेगा । लड़की सयानी हो गयी है, और ज़माना बुरा है । कहीं कोई बात हो जाये, तो मुँह में कालिख लग जाये । यह बड़ा अच्छा औसर है ।
लड़की का ब्याह भी हो जायगा, और तुम्हारे खेत भी बच जायेंगे । सारे खरच-बरच से बचे जाते हो ।’
रामसेवक होरी से दो ही चार साल छोटा था ऐसे आदमी से रूपा के ब्याह करने का प्रस्ताव ही अपमानजनक था । कही फूल-सी रूपा और कहीं वह आ हूँठ । जीवन में होरी ने बड़ी-बड़ी चोटें सही थी, मगर यह चोट सबसे गहरी थी । आज उसके ऐसे दिन आ गये हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इनकार करने का साहस नहीं है । ग्लानि से उसका सिर झुक गया ।
दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा-तो क्या कहते हो?
होरी ने साफ जवाब न दिया । बोला-सोचकर कहूँगा ।
‘इसमें सोचने की क्या बात है?’
‘धनिया से भी तो पूँछ लूँ ।’
‘तुम राजी हो कि नहीं ।’
‘ज़रा सोच लेने दो महाराज । आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ । उसकी मरजाद भी तो रखना है ।’
‘पाँच-छः दिन के अन्दर मुझे जवाब दे देना । ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाये ।’
दातादीन चले गये । होरी की ओर से उन्हें कोई अन्देशा न था । अन्देशा था धनिया की ओर से । उसकी नाक बड़ी लम्बी है । चाहे मिट जाये, मरजाद न छोड़ेगी ।
मगर होरी ही कर ले तो वह भी रो-धोकर मान ही जायेगी । खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है ।
धनिया ने आकर पूछा-पंडित क्यों आये थे?
‘कुछ नहीं, यही बेदखली की बातचीत थी ।’
‘आंसू पोंछने आये होंगे । यह तो न होगा कि सौ रुपये उधार दे दें ।’
‘माँगने का मुँह भी तो नहीं ।’
‘तो यही आते ही क्यों हैं?’
‘रुपिया की सगाई की बात थी ।’
‘किससे?’
‘रामसेवक को जानती है? उन्हीं से ।’
‘मैंने उन्हें कब देखा, हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ । वह तो बूढ़ा होगा ।’
‘बूढ़ा नहीं है, हां अधेड़ है ।’
तुमने पंडित को फटकारा नहीं । मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते ।’
‘फटकारा नहीं; लेकिन इनकार कर दिया । कहते थे, ब्याह भी बिना खरच-बरच के हो जायगा; और खेत भी बच जायेंगे ।’
‘साफ-साफ क्यों नहीं बोलते कि लड़की बेचने को कहते थे । कैसे इस बूढ़े का हियाव पड़ा?’
लेकिन होरी इस प्रश्न पर जितना ही विचार करता, उतना ही उसका दुराग्रह कम होता जाता था । कुल-मर्यादा की लाज उसे कुछ कम न थी; लेकिन जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया हो, वह खाद्य-अखाद्य की परवाह कब करता है? दातादीन के सामने होरी ने कुछ ऐसा भाव प्रकट किया था, जिसे स्वीकृति नहीं कहा जा सकता, मगर भीतर से वह पिघल गया था । उम्र की ऐसी कोई बात नहीं । मरना-जीना तकदीर के हाथ है । बूढ़े बैठे रहते हैं, जवान चले जाते हैं । रूपा को सुख लिखा है, तो वहाँ भी सुख उठायेगी, दुःख लिखा है, तो कहीं भी सुख नहीं पा सकती । और लड़की बेचने की तो कोई बात ही नहीं । होरी उससे जो कुछ लेगा, उधार लेगा और हाथ में रुपये आते ही चुका देगा । इसमें शर्म या अपमान की कोई बात ही नहीं है । बेशक, उसमें समाई होती, तो वह रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से और अच्छे कुल में करता, दहेज भी देता, बरात के खिलाने-पिलाने में भी खूब दिल खोलकर खर्च करता; मगर जब ईश्वर ने उसे इस लायक नहीं बनाया, तो कुश-कन्या के सिवा और वह कर क्या सकता है? लोग हंसेंगे; लेकिन जो लोग खाली हंसते हैं, और कोई मदद नहीं करते, उनकी हंसी की वह क्यों परवा करे । मुश्किल यही है कि धनिया न राजी होगी । गधी तो है ही । वही पुरानी लाज ढोये जायेगी । यह कुल-प्रतिष्ठा के पालने का समय नहीं, अपनी जान बचाने का अवसर है । ऐसी ही बड़ी लाजवाली है, तो लाये, पाँच सौ निकाले । कहाँ धरे है?
दो दिन गुजर गये और इस मामले पर उन लोगों में कोई बातचीत न हुई । हाँ, दोनों सांकेतिक भाषा में बातें करते थे ।
धनिया कहती-वर-कन्या जोड़ के हों तभी ब्याह का आनन्द है ।
होरी जवाब देता-ब्याह आनन्द का नाम नहीं है पगली, यह तो तपस्या है ।
‘चलो तपस्या है?’
‘हाँ, मैं कहता जो हूँ । भगवान आदमी को जिस दशा में डाल दें, उसमें सुखी रहना तपस्या नहीं, तो और क्या है?’
दूसरे दिन धनिया ने वैवाहिक आनन्द का दूसरा पहलू सोच निकाला । घर में जब तक सास-ससुर, देवरानियाँ-जेठानियाँ न हों, तो सुसराल का सुख ही क्या? कुछ दिन तो लड़की बहुरिया बनने का सुख पाये ।
होरी ने कहा-वह वैवाहिक-जीवन का सुख नहीं, दंड है ।
धनिया तिनक उठी-तुम्हारी बातें भी निराली होती हैं । अकेली बहू घर में कैसे रहेगी, न कोई आगे, न कोई पीछे ।
होरी बोला-तू तो इस घर में आयी तो एक नहीं, दो-दो देवर थे, सास थी, ससुर था । तूने कौन-सा सुख उठा लिया, बता ।
‘क्या सभी घरों में ऐसे ही प्राणी होते हैं ।’
‘और नहीं तो क्या आकाश की देवियाँ आ जाती हैं । अकेली तो बहू । उस पर हुकूमत करने वाला सारा घर । बेचारी किस-किस को खुश करे । जिसका हुक्म न माने, वही बैरी । सबसे भला अकेला ।’
फिर भी बात यही तक रह गयी; मगर धनिया का पल्ला हल्का होता जाता था । चौथे दिन रामसेवक महतो खुद आ पहुँचे । कली-रास घोड़े पर सवार, साथ एक नाई और एक खिदमतगार, जैसे कोई बड़ा ज़मींदार हो । उम्र चालीस से ऊपर थी, बाल खिचड़ी हो गये थे; पर चेहरे पर तेज़ था, देह गठी हुई । होरी उनके सामने बिल्कुल बूढ़ा लगता था । किसी मुकद्दमे की पैरवी करने जा रहे थे । यहाँ ज़रा दोपहरी काट लेना चाहते हैं । धूप कितनी तेज़ है, और कितने जोरों की लू चल रही है । होरी सहुआइन की दुकान से गेहूँ का आटा और घी लाया । पूरियाँ बनी । तीनों मेहमानों ने खाया । दातादीन भी आशीर्वाद देने आ पहुँचे । बातें होने लगी ।
दातादीन ने पूछा-कैसा मुकद्दमा है महतो?
रामसेवक ने शान जमाते हुए कहा-मुकद्दमा तो एक-न-एक लगा ही रहता है महाराज! संसार में गऊ बनने से काम नहीं चलता । जितना दबो उतना ही लोग दबाते हैं । थाना-पुलिस, कचहरी-अदालत सब हैं हमारी रक्षा के लिए; लेकिन रक्षा कोई नहीं करता । चारों तरफ लूट है । जो गरीब है, बेवस है, उसकी गरदन काटने के लिए सभी तैयार रहते हैं । भगवान न करे कोई बेईमानी करे । यह बड़ा पाप है; लेकिन अपने हक और न्याय के लिए न लड़ना उससे भी बड़ा पाप है । तुम्हीं सोचो, आदमी कही तक दबे? यहाँ तो जो किसान है, वह सबका नरम चारा है । पटवारी को नज़राना और दस्तुरी न दे, तो गाँव में रहना मुश्किल । ज़मींदार के चपरासी और कारिन्दों का पेट न भरे तो निवाह न हो । थानेदार और कानिसिटिबिल तो जैसे उसके दामाद हैं, जब उनका दौरा गाँव में हो जाये, किसानों का धरम है कि वह उनका आदर-सत्कार करें, नजर-नयाज दें, नहीं एक रिपोर्ट में गांव का गाँव बँध जाय । कभी कानूनगो आते हैं, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी, कभी जण्ट, कभी कलक्टर, कभी कमिसनर । किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाजिर रहना चाहिए । उनके लिए रसद चारे, अंडे-मुर्गी, दूध-घी का इन्तजाम करना चाहिए । तुम्हारे सिर भी तो वही बीत रही है महाराज! एक-न-एक हाकिम रोज नये-नये बढ़ते जाते हैं । एक डॉक्टर कुओं में दवाई डालने के लिए आने लगा है । एक दूसरा डॉक्टर कभी-कभी आकर ढोरों को देखता है, लड़कों का इन्तहान लेने वाला इसपिट्टर है, न जाने किस-किस महकमे के अफसर हैं, नहर के अलग, जंगल के अलग, ताड़ी-सराब के अलग, गाँव-सुधार के अलग, खेती-विभाग के अलग । कहीं तक गिनाऊँ । पादड़ी आ जाता है, तो उसे भी रसद देना पड़ता है, नहीं शिकायत कर दे । और तो कहो कि इतने महकमों और इतने अफसरों से किसान का कुछ उपकार होता हो, तो नाम को नहीं । अभी ज़मींदार ने गाँव पर हल पीछे दो-दो रुपये चन्दा लगाया । किसी बड़े अफसर की दावत की थी । किसानों ने देने से इनकार कर दिया । बस, उसने सारे गांव पर ज़ाफ़ा कर दिया । हाकिम भी ज़मींदार ही का पच्छ करते हैं । यह नहीं सोचते कि किसान भी आदमी हैं, उनके भी बाल-बच्चे हैं, उनकी भी इज्जत-आबरू है । और यह सब हमारे दब्बूपन का फल है । मैंने गाँवभर में डोंडी पिटवा दी कि कोई बेसी लगान न दो और न खेत छोड़ो, हमको कोई कायल कर दे, तो हम ज़ाफ़ा देने को तैयार हैं; लेकिन जो तुम चाहो कि बेमुँह के किसानों को पीसकर पी जायँ तो यह न होगा । गाँववालों ने मेरी बात मान ली, और सबने ज़ाफ़ा देने से इनकार कर दिया । ज़मींदार ने देखा, सारा गाँव एक हो गया है तो लाचार हो गया । खेत बेदखल कर दे, तो जोते कौन! इस ज़माने में जब तक कड़े न पड़ो, कोई नहीं सुनता । बिना रोये तो बालक भी माँ से दूध नहीं पाता ।
रामसेवक तीसरे पहर चला गया और धनिया और होरी पर न मिटने वाला असर छोड़ गया । दातादीन का मन्त्र जाग गया ।
उन्होंने पूछा-अब क्या कहते हो?
होरी ने धनिया की ओर इशारा करके कहा-इससे पूछो ।
‘हम तुम दोनों से पूछते हैं ।’
धनिया बोली-उमिर तो ज़्यादा है; लेकिन तुम लोगों की राय है, तो मुझे भी मंजूर है । तकदीर में जो लिखा होगा, वह तो आगे आयेगा ही; मगर आदमी अच्छा है।
और होरी को तो रामसेवक पर विश्वास हो गया था, जो दुर्बलों को जीवटवाले आदमियों पर होता है । वह शेख चिल्ली के-से मंसूबे बाँधने लगा था । ऐसा आदमी उसका हाथ पकड़ ले, तो बेड़ा पार है ।
विवाह का मुहूर्त ठीक हो गया । गोबर को भी बुलाना होगा । अपनी तरफ से लिख दो, आने-न आने का उसे अख्तियार है । यह कहने को तो मुँह न रहे कि तुमने मुझे बुलाया कब था? सोना को भी बुलाना होगा ।
धनिया ने कहा-गोबर तो ऐसा नहीं था, लेकिन जब झुनिया आने दे । परदेश जाकर ऐसा भूल गया कि न चिट्ठी-न-पत्री । न जाने कैसे हैं । यह कहते-कहते उसकी आँखें सजल हो गयी ।
गोबर को खत मिला, तो चलने को तैयार हो गया । झुनिया को जाना अच्छा तो न लगता था, पर इस अवसर पर कुछ कह न सकी । बहन के ब्याह में भाई का न जाना कैसे सम्भव है! सोना के ब्याह में न जाने का कलंक क्या कम है?
गोबर आर्द्र कण्ठ से बोला-माँ-बाप से खिंचे रहना कोई अच्छी बात नहीं है । अब हमारे हाथ-पाँव हैं, उनसे खिंच लें, चाहें लड़ लें, लेकिन जन्म तो उन्हीं ने दिया, पाल-पोसकर जवान तो उन्हीं ने किया, अब वह हमें चार बातें भी कहें, तो हमें गम खाना चाहिए । इधर मुझे बार-बार अम्माँ-दादा की याद आया करती है । उस बखत मुझे न जाने क्यों उन पर गुस्सा आ गया । तेरे कारन माँ-बाप को भी छोड़ना पड़ा ।
झुनिया तिनक उठी-मेरे सिर पर यह पाप न लगाओ ही! तुम्हीं को लड़ने की सूझी थी । मैं तो अम्माँ के पास इतने दिन रही, कभी साँस तक न लिया ।
‘लड़ाई तेरे कारन हुई ।’
‘अच्छा मेरे ही कारन सही । मैंने भी तो तुम्हारे लिए अपना घर-बार छोड़ दिया ।’
‘तेरे घर में कौन तुझे प्यार करता था । भाई बिगड़ते थे, भावजें जलाती थी । भोला जो तुझे पा जाते तो कच्चा ही खा जाते ।’
‘तुम्हारे ही कारन ।’
‘अबकी जब तक रहे, इस तरह रहे कि उन्हें भी जिन्दगानी का कुछ सुख मिले, उनकी मरजी के खिलाफ कोई काम न करें । दादा इतने अच्छे हैं कि कभी मुझे डाँटा तक नहीं । अम्माँ ने कई बार मारा है; लेकिन वह जब मारती थी, तब कुछ-न-कुछ खाने को देती थी । मारती थी; पर जब तक मुझे हंसा न लें, उन्हें चैन न आता था ।’
दोनों ने मालती से जिक्र किया । मालती ने छुट्टी ही नहीं दी, कन्या के उपहार के लिए एक चर्चा और हाथों का कंगन भी दिया । वह खुद जाना चाहती थी; लेकिन कई ऐसे मरीज उसके इलाज में थे, जिन्हें एक दिन के लिए भी न छोड़ सकती थी । हाँ, शादी के दिन आने का वादा किया और बच्चे के लिए खिलौनों का ढेर लगा दिया । उसे बार-बार चूमती थी और प्यार करती थी, मानो सब कुछ पेशगी ले लेना चाहती है और बच्चा उसके प्यार की बिल्कुल परवाह न करके घर चलने के लिए खुश था-उस घर के लिए, जिसको उसने देखा तक न था । उसकी बाल-कल्पना में घर स्वर्ग से भी बढ़कर कोई चीज़ थी ।
गोबर ने घर पहुँचकर उसकी दशा देखी, तो ऐसा निराश हुआ कि इसी वक़्त यही से लौट जाय । घर का एक हिस्सा गिरने-गिरने हो गया था । द्वार पर केवल एक बैल बँधा हुआ था, वह भी नीमजान । धनिया और होरी दोनों फूले न समाये लेकिन गोबर का जी उचाट था । अब इस घर के संभलने की क्या आशा है। वह गुलामी करता है; लेकिन भरपेट खाता तो है । केवल एक ही मालिक का तो नौकर है । यहाँ तो जिसे देखो, वही रोब जमाता है । गुलामी है; पर सूखी । मेहनत करके अनाज पैदा करो और जो रुपये मिलें, वह दूसरों को दे दो । आप बैठे राम-राम करो । दादा ही का कलेजा है कि यह सब सहते हैं । उसने तो एक दिन न सहा जाय ।
और यह दशा कुछ होरी ही की न थी । सारे गांव पर यह विपत्ति थी । ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सूरत न हो, मानो उनके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो । चलते-फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे; इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था । जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गये हों और सारी हरियाली मुरझा गयी हो ।
जेठ के दिन हैं, अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है; मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है । बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिन्दों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह भी दूसरों का है । भविष्य अन्धकार की भाँति उनके सामने है । उसमें उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता । उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल हो गयी हैं । द्वार पर मनों कूड़ा जमा है, दुर्गन्ध उड़ रही है; मगर उनकी नाक में न गन्ध है, न आंखों में ज्योति । सरेशाम द्वार पर गीदड़ रोने लगते हैं; मगर किसी को गम नहीं । सामने जो कुछ मोटा-झोटा आ जाता है, वह खा लेते हैं, उसी तरह जैसे इंजिन कोयला खा लेता है । उनके बैल चूनी-चोकर के गैर नाद में मुँह नहीं डालते; मगर उन्हें केवल पेट में कुछ डालने को चाहिए । स्वाद से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं । उनकी रसना मर चुकी है । उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है । उनसे धेले-धेले के लिए बेईमानी करवा लो, मुट्ठीभर अनाज के लिए लाठियाँ चलवा लो । पतन की वह इन्तहा है, जब आदमी शर्म और इज्जत को भी भूल जाता है ।
लड़कपन से गोबर ने गाँवों की यही दशा देखी थी और उनका आदी हो चुका था; पर आज चार साल के बाद उसने जैसे एक नयी दुनिया देखी । भले आदमियों के साथ रहने से उसकी बुद्धि कुछ जग उठी है; उसने राजनीतिक जलसों में पीछे खड़े होकर भाषण सुने हैं और उनसे अंग-अंग में बिंधा है । उसने सुना है और समझा है कि अपना भाग्य खुद बनाना होगा, अपनी बुद्धि और साहस से इन आफ्तों पर विजय पाना होगा । कोई देवता, कोई गुप्त शक्ति उनकी मदद करने न आयेगी । और उसमें गहरी संवेदना सजग हो उठी है । अब उसमें वह पहले की उद्दण्डता और गरूर नहीं है । वह नम्र और उद्योगशील हो गया है । जिस दशा में पड़े हो, उसे स्वार्थ और लोभ के वश होकर और क्यों बिगाड़ते हो? दुःख ने तुम्हें एक सूत्र में बाँध दिया है । बन्धुत्व के इस दैवी बन्धन को क्यों अपने तुच्छ स्वार्थ से तोड़े डालते हो? उस बन्धन को एकता का बन्धन बना लो । इस तरह के भावों ने उसकी मानवता को पंख-से लगा दिये हैं ।
संसार का ऊंच-नीच देख लेने के बाद निष्कपट मनुष्यों में जो उदारता आ जाती है, वह अब मानो आकाश में उड़ने के लिए पंख फड़फड़ा रही है । होरी को अब वह कोई काम करते देखता है, तो उसे हटाकर खुद करने लगता है, जैसे पिछले दुर्व्यवहार का प्रायश्चित्त करना चाहता हो । कहता है, दादा अब कोई चिन्ता मत करो, सारा भार मुझ पर छोड़ दो, मैं अब हर महीने खर्च भेजूँगा, इतने दिन तो मरते खपते रहे, कुछ दिन तो आराम कर लो; मुझे धिक्कार है कि मेरे रहते तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़े । और होरी के रोम-रोम से बेटे के लिए आशीर्वाद निकल जाता है । उसे अपनी जीर्ण देह में दैवी स्फूर्ति का अनुभव होता है । वह इस समय अपने कर्ज का ब्योरा कहकर उसकी उठती जवानी पर चिन्ता की बिजली क्यों गिराये? वह आराम से खाये-पीये, जिन्दगी का सुख उठाये । मरने-खपने के लिए वह तैयार है । यही उसका जीवन है । राम-राम जपकर वह जी भी तो नहीं सकता । उसे तो फावड़ा और कुदाल चाहिए । राम-राम की माला फेरकर उसका चित्त न शान्त होगा ।
गोबर ने कहा-कहो तो मैं सबसे किस्त बँधवा लूँ और हर महीने-महीने देता जाऊँ । सब मिलाकर कितना होगा?
होरी ने सिर हिलाकर कहा-नहीं बेटा, तुम काहे को तकलीफ उठाओगे । तुम्हीं को कौन बहुत मिलते हैं । मैं सब देख लूँगा । जमाना इसी तरह थोड़े ही रहेगा । रूपा चली जाती है । अब’ कर्ज ही तो चुकाना है । तुम कोई चिन्ता मत करना । खाने-पीने का संजम रखना । अभी देह बना लोगे, तो सदा आराम से रहोगे । मेरी कौन? मुझे तो मरने-खपने की आदत पड़ गयी है । अभी मैं तुम्हें खेती में नहीं जोतना चाहता बेटा! मालिक अच्छा मिल गया है । उसकी कुछ दिन सेवा कर लोगे तो आदमी बन जाओगे! वह तो यही आ चुकी हैं । साक्षात् देवी हैं ।
‘ब्याह के दिन फिर आने को कहा है ।’
‘हमारे सिर-आंखों पर आये । ऐसे भले आदमियों के साथ रहने से चाहे पैसे कम भी मिलें; लेकिन ज्ञान बढ़ता है और आँखें खुलती हैं ।’
उसी वक़्त पण्डित दातादीन ने होरी को इशारे से बुलाया और दूर ले जाकर कमर से सौ सौ रुपये के दो नोट निकालते हुए बोले-तुमने मेरी सलाह मान ली बड़ा अच्छा किया । दोनों काम बन गये । कन्या से भी उरिन हो गये और बाप-दादों की निशानी भी बच गयी । मुझसे जो कुछ हो सका, मैंने तुम्हारे लिए कर दिया, अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने ।
होरी ने रुपये लिए तो उसका हाथ काँप रहा था, उसका सिर ऊपर न उठ सका, मुँह से एक शब्द न निकला, जैसे अपमान के अथाह गढ़े में गिर पड़ा है और गिरता चला जाता है । आज तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद वह परास्त हुआ है और ऐसा परास्त हुआ है कि मानों उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर दिया गया है और जो आता है, उससे मुँह पर थूक देता है । वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है, भाइयो, मैं दया का पात्र हूँ, मैंने नहीं जाना, जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है? इस देह को चीरकर देखो, इनमें कितना प्राण रह गया है, कितना जख्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ! उससे पूछो कभी तूने विश्राम के दर्शन किये, कभी तू छह में बैठा । उस पर यह अपमान! और वह अब भी जीता है, कायर, लोभी, अधम । उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अच्छा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है ।
दातादीन ने कहा-तो मैं जाता हूँ । न हो, तो तुम इसी बखत नोखेराम के पास चले जाओ ।
होरी दीनता से बोला-चला जाऊँगा महाराज! मगर मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है।

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नाग पूजा - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | naag pooja - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

महातीर्थ - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | mahateerth - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

लोकमत का सम्मान - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | lokmat ka samman - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

दो भाई - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | do bhai - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jul 3, 2023

फ़ातिहा - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | fatiha - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 11, 2023

जिहाद - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | jihaad - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 11, 2023

शंखनाद - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | shankhnaad - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 10, 2023

पंच परमेश्वर - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | panch parmeshwar - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 10, 2023

दुर्गा का मंदिर - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | durga ka mandir - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 9, 2023

आत्माराम - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | aatmaram - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 9, 2023

बड़े घर की बेटी - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | barey ghar ki beti - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 8, 2023

बैंक का दिवाला - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | bank ka diwala - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · Jun 8, 2023

मैकू - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | maiku - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · May 23, 2023

पत्नी से पति - मानसरोवर 7 - मुंशी प्रेमचंद | patni se pati - maansarovar 7 - munshi premchand

By मुंशी प्रेमचंद · May 22, 2023