गोदान – भाग-26
लाला पटेश्वरी पटवारी-समुदाय के सद्गुणों के साक्षात् अवतार थे । वह यह न देख सकते थे कि कोई असामी अपने दूसरे भाई की इंच भर भी जमीन दबा ले । न वह यही देख सकते थे कि असामी किसी महाजन के रुपये दबा ले । गाँव के समस्त प्राणियों के हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म था । समझौते या मेल-जोल में उनका विश्वास न था, यह तो निर्जीविता के लक्षण हैं! वह तो संघर्ष के पुजारी थे, जो सजीवता का लक्षण है । आये दिन इस जीवन को उत्तेज़ना देने का प्रयास करते रहते थे । एक-न-एक फुलझड़ी छोड़ते रहते थे । मँगरू साह पर इन दिनों उनकी विशेष कृपा-दृष्टि थी? मंगरू साह गांव का सबसे धनी आदमी था ; पर स्थानीय राजनीति में बिल्कुल भाग न लेता था । रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी । मकान भी उसका गांव के बाहर था, जहाँ उसने एक बाग और एक कुआं और एक छोटा रग शिव-मन्दिर बनवा लिया था । बाल-बच्चा कोई न था; इसलिए लेन-देन भी कम कर दिया था और अधिकतर पूजा-पाठ में ही लगा रहता था । कितने ही असामियों ने उसके रूपये हजम कर लिए थे; पर उसने किसी पर नालिश-फरियाद न की । होरी पर भी उसके सूद -ब्याज मिलाकर कोई डेढ़ सौ हो गये थे; मगर न होरी को ऋण चुकाने की कोई चिन्ता थी और न उसे वसूल करने की । दो-चार बार उसने तकाजा किया, घुड़का-डाँटा भी; मगर होरी की दशा देखकर चुप हो बैठा । अबकी संयोग से होरी की ऊख गाँव भर के ऊपर थी । कुछ नहीं तो उसके दो-ढाई सौ सीधे हो जायँगे, ऐसा लोगों का अनुमान था । पटेश्वरी प्रसाद ने मंगरू को सुझाया कि अगर हरन वक़्त होरी पर दावा कर दिया जाये तो सब रुपये वसूल हो जायँ । मँगरू इतना दयालु नहीं जितना आलसी था । झंझट में पड़ना न चाहता था; मगर जब पटेश्वरी ने जिम्मा लिया कि उसे एक दिन भी कचहरी न जाना पड़ेगा न कोई दूसरा कष्ट होगा, बैठे-बैठाये उसकी डिग्री हो जायेगी, तो उसने नालिश करने की अनुमति दे दी और अदालत-खर्च के लिये रुपये भी दे दिये ।
होरी को ख़बर भी न थी, क्या खिचड़ी पक रही है । कब दावा दायर हुआ, कब डिग्री हुई, उसे बिल्कुल पता न चला । कुर्कअमीन उसकी ऊख नीलाम करने आया, तब उसे मालूम हुआ । सारा गाँव खेत के किनारे जमा हो गया । होरी मंगरू साह के पास दौड़ा और धनिया पटेश्वरी को गालियाँ देने लगी । उसकी सहज-बुद्धि ने जाता दिया कि पटेश्वरी ही की काररतानी है, मगर मँगरू साह पूजा पर थे, मिल न सके और धनिया गालियों की वर्षा करके भी पटेश्वरी का कुछ बिगाड़ न सकी । उधर ऊख डेढ़ सौ रुपये में नीलाम हो गयी और बोली भी हो गयी मँगरू साह ही के नाम । कोई दूसरा आदमी न बोलन सका । दातादीन में भी धनिया की गालियाँ -सुनने का साहस न था । धनिया ने होरी को उत्तेजित करके कहा- बैठे क्या हो, जाकर पटवारी से पूछते क्यों नहीं, यही धरम है तुम्हारा गाँव-घर के साथ? होरी ने दीनता से कहा-पूछने के लिए तूने मुँह भी रखा हो । तेरी गालियाँ क्या उन्होंने न सुनी होगी? जो गाली-खाने का काम करेगा उसे गालियां मिलेंगी ही । तू गालियाँ भी देगी और भाईचारा भी निभायेगी? देखूँगी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता है । मिलवाले आकर काट ले जायेंगे तू क्या करेगी और मैं क्या करूंगा । गालियाँ देकर अपनी के की खुजली चाहे मिटा ले । मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायेगा? हाँ-हां तेरे और मेरे जीते-जी । सारा गाँव मिलकर भी उसे नहीं रोक सकता । अब वह चीज मेरी नहीं; मंगरू साह की है । मँगरू साह ने मर-मरकर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी? ‘वह सब तूने किया; मगर अब वह चीज मंगरू साह की है । हम उनके करजदार नहीं हैं? ऊख तो गयी; लेकिन उसके साथ ही एक नयी समस्या आ पड़ी । दुलारी इसी ऊख पर रुपये देने को तैयार हुई थी । अब वह किस जमानत पर रुपये दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ पड़े हुए थे । सोचा था, ऊख के पुराने रुपये मिल जायँगे, तो नया हिसाब चलने लगेगा । उसकी नज़र में होरी की साख दो सौ तक थी । इससे ज्यादा देना जोखिम था । सहालग सिर पर था । तिथि निश्चित हो चुकी थी । गौरी महतो ने सारी तैयारियाँ कर ली होंगी । अब विवाह का टलना असम्भव था । होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जाकर दुलारी का गला दबा दे । जितनी चिरौरी-विनती हो सकती थी, वह कर चुका; मगर वह पत्थर की देवी ज़रा भी न पसीजी । उसने चलते-चलते हाथ बाँधकर कहा-दुलारी, मैं तुम्हारे रुपये लेकर भाग न जाऊँगा । न इतनी जल्दी मरा ही जाता हूँ । खेत हैं, पेड़-पालो है, घर है, जवान बेटा है । तुम्हारे रुपये मारे न जायँगे, मेरी इज़्ज़त जा रही है, इसे सँभालो मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया, अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती, तो उसे कोई आपत्ति न होती । पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था । होरी ने घर आकर धनिया से कहा-अब? धनिया ने उसी पर दिल? का गुबार निकाला-यही तो तुम चाहते थे, होरी ने जख्मी आँखों से देखा-मेरा ही दोष है? किसी का दोष हो, हुई तुम्हारे मन की । तेरी इच्छा है कि जमीन रेहन रख दूँ’ जमीन रेहन रख दोगे, तो करोगे क्या, मंजूरी । मगर जमीन दोनों को एक-सी प्यारी थी । उसी पर तो उनकी इज़्ज़त और आबरू अवलम्बित थी । जिसके पास जमीन नहीं, वह गृहस्थ नहीं, मजूर है । होरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा-तो क्या कहती है? धनिया ने आहत कण्ठ से कहा-कहना क्या है । गौरी बरात लेकर आयेंगे । एक जून खिला देना । सबेरे बेटी बिदा कर देना । दुनिया हँसेगी, हँस ले । भगवान की यही इच्छा है कि हमारी नाक कटे, मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे । सहसा नोहरी चुँदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी । होरी को देखते ही जरा-सा घूँघट निकाल लिया । उससे समधी का नाता मानती थी । धनिया से उसका परिचय हो चुका था । उसने पुकारा-आज किधर चली समधिन? आओ बैठो । नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी । आकर खड़ी हो गयी । धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देखकर कहा-आज इधर कैसे भूल पड़ी? नोहरी ने कातर स्वर में कहा-ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आयी । बिटिया का ब्याह कब तक है? धनिया सन्दिग्ध भाव से बोली-भगवान के अधीन है, जब हो जाये । मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा । तिथि ठीक हो गयी है? हाँ, तिथि तो ठीक हो गयी है । मुझे भी नेवता देना । तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा? दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगा । ज़रा मैं भी देखूँ । धनिया असमजस में पड़ी, क्या कहे । होरी ने उसे सँभाला-अभी तो कोई सामान नहीं मंगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है । नोहरी ने अविश्वास-भरी आंखों से देखा-कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिल खोलकर करो । होरी हंसा; मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हरा दिखायी देता होगा; यहाँ तो सूखा ही पड़ा हुआ है । रूपये-पैसे की तंगी है, क्या दिल खोलकर करूँ । तुमसे कौन परदा । बेटा कमाता है तुम कमाते हो; फिर भी रुपये-पैसे की तंगी? किसे विश्वास आयेगा । बेटा ही लायक होता, तो फिर काहे को रोना था । चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपये क्या भेजेगा! यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं… । इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठा सिर पर लिये, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आयी और गट्ठा वहीं पटक-कर अन्दर चली गयी । नोहरी ने कहा-लड़की तो खूब सयानी हो गयी है ।
धनिया बोली-लड़की की बाढ़ रेड की बाढ़ है । नहीं है अभी कै दिन की । वर तो ठीक हो गया है न? हाँ, वर तो ठीक है । रुपये का बन्दोबस्त हो गया, तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे । नोहरी दिल की ओछी थी । इधर उसने जो थोड़े-से रुपये जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल रहे थे; अगर वह सोना के ब्याह के लिए कुछ रुपये दे दे, तो कितना यश मिलेगा । सारे गांव में उसकी चर्चा हो जायगी । लोग चकित होकर कहेंगे, नोहरी ने इतने रुपये दे दिए । बड़ी देवी है । होरी और धनिया दोनों घर-घर उसका बखान करते फिरेंगे । गांव में उसका मान-सम्मान कितना बढ़ जायगा । वह उँगली दिखाने वालों का मुँह सी देगी । फिर किसकी हिम्मत है, जो उस पर हँसे, या उस पर आवाजें करने । अभी सारा गाँव उसका दुश्मन है । तब सारा गाँव उसका हितैषी हो जायेगा । इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गयी।
‘थोड़े-बहुत से काम चलता हो, तो मुझसे ले लो; जब हाथ में रुपये आ जायें तो दे देना ।’ होरी और धनिया दानों ही ने उसकी ओर देखा । नहीं, नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है । दोनों की आँखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्देह था और लज्जा थी । नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं । नोहरी ने फिर कहा-तुम्हारी और हमारी इज्जत एक है । तुम्हारी हंसी हो तो क्या मेरी हंसी न होगी? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो । होरी ने सकुचाते हुए कहा-तुम्हारे रुपये तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा । ले लेंगे । आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है; मगर ऊपर से इन्तजाम हो जाये, तो घर के रुपये क्यों छुए । धनिया ने अनुमोदन किया-हाँ, और क्या । नोहरी ने अपनापन जताया-जब घर में रुपये हैं, तो बाहर वालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ । सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो, खुसामद करो । हाँ, मेरे रुपये में छूत लगी हो तो दूसरी बात है । होरी ने संभाला-नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायेगा, तो बाहर क्यों हाथ फैलायेंगे; लेकिन आपस वाली बात है । खेती-बारी का भरोसा नहीं । तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा ओर हमारी जान भी संकट में पड़ेगी । इससे कहता था । नहीं, लड़की तो तुम्हारी है । मुझे अभी रुपये की ऐसी जल्दी नहीं है । तो तुम्हीं से लेंगे । कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाये । कितने रुपये चाहिए? तुम कितने दे सकोगी? सौ में काम चल जायेगा?’
होरी को लालच आया । भगवान ने छप्पर फाड़कर रुपये दिये हैं, तो जितना ले सके, उतना क्यों न ले! सौ में भी चल जायेगा । पाँच सौ में भी चल जायेगा । जैसा हौसला हो ।
‘मेरे पास कुल दो सौ रुपये हैं, वह मैं दे दूँगी ।’
‘तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायेगा । अनाज घर में है; मगर ठकुराइन, आज तुमसे कहता हूँ, मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था । इस ज़माने में कौन किसकी मदद करता है, और किसके पास है । तुमने मुझे डूबते से बचा लिया ।’
दिया-बत्ती का समय आ गया था । ठंडक पड़ने लगी थी । जमीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी । धनिया अन्दर जाकर अँगीठी लायी । सब तापने लगे । पुआल के प्रकाश में छबीली, गीली, कुल्टा नोहरी उनके सामने वरदान-सी बैठी थी । इस समय उसकी उन आँखों में कितनी सहृदयता थी; कपोलों पर कितनी लज्जा, ओठों पर कितनी सत्प्रेरणा!
कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली-अब देर हो रही है । कल तुम आकर रुपये ले लेना महतो! चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूँ । नहीं-नहीं, तुम बैठो, मैं चली जाऊंगी । जी तो चाहता है, तुम्हें कन्धे पर बैठाकर पहुंचाऊँ। नोखेराम की चौपाल गाँव के दूसरे सिरे पर थी, और बाहर-बाहर जाने का रास्ता साफ था । दोनों उसी रास्ते से चले । अब चारों ओर सन्नाटा था । नोहरी ने कहा-तनिक समझा देते रावत को । क्यों सबसे लड़ाई किया करते हैं । जब इन्हीं लोगों के बीच में रहना है, तो ऐसे रहना चाहिए न कि चार आदमी अपने हो जायँ । और इनका हाल यह है कि सबसे लड़ाई, सबसे झगड़ा । जब तुम मुझे परदे में नहीं रख सकते, मुझे दूसरों की मजूरी करनी पड़ती है, तो यह कैसे निभ सकता है कि मैं न किसी से हसूं, न बोलूँ, न कोई मेरी और ताके, न हँसे । यह सब परदे में ही हो सकता है । पूछो, कोई मेरी ओर ताकता या घूरता है तो मैं क्या करूँ । उसकी आँखें तो नहीं फोड़ सकती । फिर मेल-मुहब्बत से आदमी के सौ काम निकलते हैं । जैसा समय देखो, वैसा व्यवहार करो । तुम्हारे घर हाथी झूमता था, तो अब वह तुम्हारे किस काम का । अब तो तुम तीन रुपये के मजूर हो । मेरे घर तो भैंस लगती थी, लेकिन अब तो मलिन हूँ मगर उनकी समझ में कोई बात आती ही नहीं । कभी लड़कों के साथ रहने की सोचते हैं, कभी लखनऊ जाकर रहने की सोचते हैं । नाक में दम कर रखा है मेरे ।
होरी ने ठकुरसुहाती की-यह भोला की सरासर नादानी है । बूढ़े हुए, अब तो उन्हें समझ आनी चाहिए । मैं समझा दूँगा । तो सबेरे आ जाना, रुपये दे दूँगी । कुछ लिखा-पढ़ी । तुम मेरे रुपये हजम न करोगे, मैं जानती हूँ । उसका घर आ गया । वह अन्दर चली गयी । होरी घर लौटा ।