न्याय - मानसरोवर 2 - मुंशी प्रेमचंद | Nyaya - maansarovar 2 - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

न्याय - मानसरोवर 2 - मुंशी प्रेमचंद | Nyaya - maansarovar 2 - munshi premchand

न्याय

1

हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोड़े ही दिन हुए थे, दस-पांच पड़ोसियों और निकट सम्बन्धियों के सिवा अभी और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था। यहां तक कि उनकी लड़की जैनब और दामाद अबुलआस भी, जिनका विवाह इलहाम के पहले ही हो चुका था, अभी तक नए धर्म में दीक्षित न हुए थे। जैनब कई बार अपने मैके गई थी और अपने पिता के ज्ञानोपदेश सुने थे। वह दिल से इस्लाम पर श्रद्धा रखती थी, लेकिन अबुलआस के कारण दीक्षा लेने का साहस न कर सकती थी। अबुलआस विचार-स्वातन्त्र्य का समर्थक था। वह कुशल व्यापारी था। मक्के से खजूर, मेवे आदि लेकर बन्दरगाहों द्वारा व्यापार किया करता था। बहुत ही ईमानदार, लेन-देन का खरा, श्रमशील मनुष्य था, जिसे इहलोक से इतनी फुर्सत न थी कि परलोक की चिन्ता करे। जैनब के सामने कठिन समस्या थी, आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर, न धर्म को छोड़ सकती थी, न पति को। घर के अन्य प्राणी मूर्तिपूजक थे और इस नए सम्प्रदाय के शत्रु। जैनब अपनी लगन को छुपाती रहती, यहां तक कि पति से भी अपनी व्यथा न कह सकती। वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे। बात-बात पर खून की नदियां बहती थीं। खानदान के खानदान मिट जाते थे। अरब की अलौकिक वीरता पारस्परिक कलहों में व्यक्त होती थी। राजनैतिक संगठन का नाम न था। खून का बदल खून, धनहानि का बदला खून, अपमान का बदला खून- मानव रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था। ऐसी अवस्था में अपने धर्मानुराग को प्रकट करना अबुलआस के शक्तिशाली परिवार को मुहम्मद और उनके गिने-गिनाए अनुयायियों से टकराना था। उधर प्रेम का बन्धन पैरों को जकड़े हुए था। नए धर्म में प्रविष्ट होना अपने प्राण-प्रिय पति से सदा के लिए बिछुड़ जाना था। कुरश जाति के लोग ऐसे मिश्रित विवाहों को परिवार के लिए कलंक समझते थे। माया और धर्म की दुविधा में पड़ी हुई जैनब कुढ़ती रहती थी।

2

धर्म का अनुराग एक दुर्लभ वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग उठता है तब बड़े प्रचण्ड रूप से उठता है। दोपहर का समय था। धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते हुए आंखों से चिनगारियां निकलती थीं। हजरत मुहम्मद अपने मकान में चिन्तामग्न बैठै हुए थे। निराशा चारों ओर अंधकार के रूप में दिखाई देती थी। खुदैजा भी पास बैठी हुई एक फटा कुर्ता सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन के भेंट हो चुकी थी। विधर्मियों का दुराग्रह दिनोंदिन बढ़ता जाता था। इस्लाम के अनुयायियों को भांति-भांति की यातनाएं दी जा रही थीं। स्वयं हजरत को घर से निकलना मुश्किल था। खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेंकने लगें। खबर आती थी कि आज अमुक मुसलमान का घर लूटा गया, आज फलां को लोगों ने आहत किया। हजरत ये खबरें सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार सुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे।
हजरत ने फरमाया- मुझे ये लोग अब यहां न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूं पर अपने दोस्तों की तकलीफ नहीं देखी जाती।
खुदैजा- हमारे चले जाने से तो इन बेचारों को और भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम से कम आपके पास आकर रो तो लेते हैं। मुसीबत में रोने का सहारा कम नहीं होता। हजरत- तो मैं अकेले थोड़े ही जाना चाहता हूं। मैं अपने सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूं। अभी हम लोग यहां बिखरे हुए हैं। कोई किसी की मदद को नहीं पहुंच सकता। हम बस एक ही जगह एक कुटुम्ब की तरह रहेंगे तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने की हिम्मत न होगी। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं जिस पर चढ़ने का किसी को साहस न होगा। सहसा जैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था न कोई आदमजाद, ऐसा मालूम होता था कि कहीं से भगी चली आ रही हैं। खुदैजा ने उसे गले लगाकर कहा- क्या हुआ जैनब, खैरियत तो है? जैनब ने अपने अन्तर्द्वन्द्व की कथा सुनाई और पिता से दीक्षा की प्रार्थना की। हजरत मुहम्मद आंखों में आंसू भरकर बोले- जैनब, मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन डरता हूं कि तुम्हारा क्या हाल होगा।
जैनब- या हजरत, मैंने खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय किया हैं दुनिया के लिए अपनी आकबत को नहीं खोना चाहती।
हजरत- जैनब, खुदा की राह में कांटे हैं।
जैनब- लगन को कांटों की परवाह नहीं होती।
हजरत- ससुराल से नाता टूट जाएगा।
जैनब- खुदा से तो नाता जुड़ जाएगा।
हजरत- और अबुलआस?

जैनब की आंखों में आंसू डबडबा आए। कातर स्वर से बोली- अब्बाजान, इसी बेड़ी ने इतने दिनों मुझे बांधे रक्खा था, नहीं तो मैं कब की आपकी शरण में आ चुकी होती। मैं जानती हूं, उनसे जुदा होकर जीती न रहूंगी और शायद उनको भी मेरा वियोग दुस्सह होगा, पर मुझे विश्वास है कि एक दिन जरूर आएगा जब वे खुदा पर ईमान लाएंगे और मुझे फिर उनकी सेवा का अवसर मिलेगा। हजरत- बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सत्यवक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अन्त तक उसे ईश्वर से विमुख रखे है। वह तकदीर को नहीं मानता, आत्मा को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, ‘सृष्टि-संचालन के लिए खुदा की जरूरत ही क्या है? हम उससे क्यों डरें? विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है?’ ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। अधर्म को जीतना आसान है पर जब वह दर्शन का रूप धारण कर लेता है तो अजये हो जाता है।

जैनब ने निश्चयात्मक भाव से कहा- हजरत, आत्म का उपकार जिसमें हो मुझे वह चाहिए। मैं किसी इन्सान को अपने और खुदा के बीच न रहने दूंगी। हजरत- खुदा तुझ पर दया करे बेटी। तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया। यह कहकर उन्होंने जैनब को प्रेम से गले लगा लिया।

3

दूसरे दिन जैनब को जमा मसजिद में यथा विधि कलमा पढ़ाया गया।
कुरैशियों ने जब यह खबर पाई तब वे जल उठे। गजब खुदा का। इस्लाम ने तो बड़े-बड़े घरों पर हाथ साफ करना शुरू किया। अगर यही हाल रहा तो धीरे-धीरे उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाएगी कि उसका सामना करना कठिन हो जाएगा। लोग अबुलआस के घर पर जमा हुए। अबूसिफियान ने, जो इस्लाम के शत्रुओं में सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति थे (और जो बाद को इस्लाम पर ईमान लाया), अबुलआस से कहा- तुम्हें अपनी बीवी को तलाक देना पड़ेगा।
अबुल- हर्गिज नहीं।
अबूसि- तो क्या तुम भी मुसलामन हो जाओगे?
अबुल- हर्गिज नहीं।
अबूसि- जो उसे मुहम्मद ही के घर रहना पड़ेगा।
अबुल- हर्गिज नहीं, आप मुझे आज्ञा दीजिए कि उसे अपने घर लाऊं।
अबूसि- हर्गिज नहीं।
अबुल- क्या यह नहीं हो सकता कि मेरे घर में रह कर वह अपने मतानुसार खुदा की बन्दगी करें?
अबूसि- हर्गिज नहीं।
अबुल- मेरी कौम मेरे साथ इतनी भी सहानुभूति न करेगी?
अबूसि- हर्गिज नहीं।
अबुल- तो फिर आप लोग मुझे अपने समाज से पतित कर दीजिए। मुझे पतित होना मंजूर है, आप लोग चाहें जो सजा दें, वह सब मंजूर है। पर मैं अपनी बीवी को तलाक नहीं दे सकता। मैं किसी की धार्मिक स्वाधीनता का अपहरण नहीं करना चाहता, वह भी अपनी बीवी की।
अबूसि- कुरैश में क्या और लड़कियां नहीं हैं?
अबुल- जैनब की-सी कोई नहीं।
अबूसि- हम ऐसी लड़कियां बता सकते हैं जो चांद को लज्जित कर दें।
अबुल- मैं सौन्दर्य का उपासक नहीं।
अबूसि- ऐसी लड़कियां दे सकता हूं जो गृह-प्रबन्ध में निपुण हों, बातें ऐसी करें जो मुंह से फूल झरें, भोजन ऐसा बनाएं कि बीमार को भी रुचि हो और सीने-पिरोने में इतनी कुशल कि पुराने कपड़े को नया कर दें।
अबुल- मैं इन गुणों में किसी का भी उपासक नहीं। मैं प्रेम और केवल प्रेम का भक्त हूं और मुझे विश्वास है, कि जैनब का-सा प्रेम मुझे सारी दुनिया में नहीं मिल सकता।
अबूसि- प्रेम होता तो तुम्हें छोड़कर दगा न करती।
अबुल- मैं नहीं चाहता कि प्रेम के लिए कोई अपने आत्मस्वतान्त्रय का त्याग करे।
अबूसि- इसका मतलब यह है कि तुम समाज के विरोधी बनकर रहना चाहते हो। अपनी आंखों की कसम, समाज अपने ऊपर यह अत्याचार न होने देगा, मैं समझाए जाता हूं, न मानोगे तो रोओगे।

4

अबूसिफियान और उनकी टोली के लोग तो धमकियां देकर उधर गए इधर अबुलआस ने लकड़ी सम्हाली और ससुराल जा पहुंचे। शाम हो गई थी। हजरत अपने मुरीदों के साथ मगरिब की नमाज पढ़ रहे थे। अबुलआस ने उन्हें सलाम किया और जब तक नमाज होती रही, गौर से देखते रहे। आदमियों की कतारों का एक साथ उठना-बैठना और सिजदे करना देखकर उनके दिल पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। वह अज्ञात भाव से संगत के साथ बैठते, झुकते और खड़े हो जाते थे। वहां का एक-एक परमाणु इस समय ईश्वरमय हो रहा था। एक क्षण के लिए अबुलआस भी उसी भक्ति-प्रवाह में आ गए।
जब नमाज खत्म हो गई तब अबुलआस ने हजरत से कहा- मैं जैनब को विदा करने आया हूं।
हजरत ने विस्मित होकर कहा- तुम्हें मालूम नहीं कि वह खुदा और रसूल पर ईमान ला चुकी है?
अबुल- जी हां, मालूम है।
हजरत- इस्लाम ऐसे सम्बन्धों का निषेध करता है।
अबुल- क्या इसका मतलब है कि जैनब ने मुझे तलाक दे दिया?
हजरत- अगर यही मतलब हो तो?
अबुल- तो कुछ नहीं, जैनब को खुदा और रसूल की बन्दगी मुबारक हो। मैं एक बार उससे मिलकर घर चला जाऊंगा और फिर कभी आपको अपनी सूरत न दिखाऊंगा। लेकिन उस दशा में अगर कुरैश जाति आपसे लड़ने के लिए तैयार हो जाए तो इसका इल्जाम मुझ पर न होगा। हां, अगर जैनब मेरे साथ जाएगी तो कुरैश के क्रोध का भाजन मैं हूंगा। आप और आपके मुरीदों पर कोई आफत न आएगी।
हजरत- तुम दबाव में आकर जैनब को खुदा की तरफ से फेरने का तो यत्न न करोगे?
अबुल- मैं किसी के धर्म में विघ्न डालना लज्जाजनक समझता हूं।
हजरत- तुम्हें लोग जैनब को तलाक देने पर तो मजबूर न करेंगे?
अबुल- मैं जैनब को तलाक देने के पहले जिन्दगी को तलाक दे दूंगा।
हजरत को अबुलआस की बातों से इत्मीनान हो गया। आस को हरम में जैनब से मिलने का अवसर मिला। आस ने पूछा- जैनब, मैं तुम्हें साथ ले चलने आया हूं। धर्म के बदलने से कहीं तुम्हारा मन तो नहीं बदल गया?
जैनब रोती हुई पति के पैरों पर गिर पड़ी और बोली- स्वामी, धर्म बार-बार मिलता है, हृदय केवल एक बार। मैं आपकी हूं। चाहे यहां रहूं, चाहे वहां। लेकिन समाज मुझे आपकी सेवा में रहने देगा?
अबुल- यदि समाज न रहने देगा तो मैं समाज ही से निकल जाऊंगा। दुनिया में रहने के लिए बहुत स्थान है। रहा मैं, तुम खूब जानती हो कि किसी के धर्म में विघ्न डालना मेरे सिद्धान्त के प्रतिकूल है। जैनब चली तो खुदैजा ने उसे बदख्शां के लालों का एक बहुमूल्य हार विदाई में दिया।

5

इस्लाम पर विधर्मियों के अत्याचार दिन-दिन बढ़ने लगे। अवहेलना की दशा में निकलकर उसने भय के क्षेत्र में प्रेवश किया। शत्रुओं ने उसे समूल नाश करने की आयोजना करना शुरू की। दूर-दूर के कबीलों से मदद मांगी गई। इस्लाम में इनती शक्ति न थी कि शस्त्रबल से शत्रुओं को दबा सके। हजरत मुहम्मद ने अन्त को मक्का छोड़कर मदीने की राह ली। उनके कितने ही भक्तों ने उनके साथ हिजरत की। मदीने में पहुंचकर मुसलमानों में एक नई शक्ति, एक नई स्फूर्ति का उदय हुआ। वे नि:शंक होकर धर्म का पालन करने लगे। अब पड़ोसियों से दबने और छिपने की जरूरत न थी। आत्मविश्वास बढ़ा। इधर भी विधर्मियों का सामना करने की तैयारियां होने लगीं।
एक दिन अबुलआस ने आकर स्त्री से कहा- जैनब, हमारे नेताओं ने इस्लाम पर जेहाद करने की घोषणा कर दी।
जैनब ने घबराकर कहा- अब तो वे लोग यहां से चले गए फिर जेहाद की क्या जरूरत?
अबुल- मक्का से चले गए, अरब से तो नहीं चले गए, उनकी ज्यादतियां बढ़ती जा रही हैं। जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं। मेरा उस जिहाद में शरीक होना बहुत जरूरी है।
जैनब- अगर तुम्हारा दिल तुम्हें मजबूर कर रहा है तो शौक से जाओ लेकिन मुझे भी साथ लेते चलो।
अबुल- अपने साथ?
जैनब- हां, मैं वहां आहत मुसलमानों की सेवा-सुश्रुषा करूंगी।
अबुल- शौक से चलो।

6

घोर संग्राम हुआ। दोनों दलों ने खूब दिल के अरमान निकाले। भाई भाई से, मित्र मित्र से, बाप बेटे से लड़ा। सिद्ध हो गया कि धर्म का बन्धन रक्त और वीर्य के बन्धन से सुदृढ़ है। दोनों दल वाले वीर थे। अंतर यह था कि मुसलमानों में नया धर्मानुराग था, मृत्यु के पश्चात स्वर्ग की आशा थी, दिलों में आत्मविश्वास था जो नवजात सम्प्रदायों का लक्षण है। विधर्मियों में बलिदान का यह भाव लुप्त था। कई दिन तक लड़ाई होती रही। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी, पर अन्त में उनके धर्मोत्साह ने मैदान मार लिया। विधर्मियों में अधिकांश काम आये, कुछ घायल हुए और कुछ कैद कर लिए गए। अबुलआस भी इन्हीं कैदियों में थे। जैनब को ज्योंही यह मालूम हुआ उसने हजरत मुहम्मद की सेवा में अबुलआस का फदिया (मुक्तिधन) भेजा। यह वही बहुमूल्य हार था, जो खुदैज ने उसे दिया था। वह अपने पिता को उस धर्म-संकट में नहीं डालना चाहती थी जो मुक्तिधन के अभाव की दशा में उन पर पड़ता। हजरत ने यह हार देखा तो खुदैता की याद ताजी हो गई। मधुर स्मृतियों से चित्त चंचल हो उठा। अगर खुदैजा जीवित होती तो उसकी सिफारिश का असर उन पर इससे ज्यादा न होता जितना इस हार से हुआ, मानो स्वयं खुदैजा इस हार के रूप में आई थी। अबुलआस के प्रति हृदय कोमल हो गया। उसे सजा दी गई, यह हार ले लिया गया तो खुदैजा की आत्मा को कितना दुख होगा। उन्होंने कैदियों की फैसला करने के लिए एक पंचायत नियुक्त कर दी थी। यद्यपि पंचों में सभी हजरत के इष्ट-मित्र थे, पर इस्लाम की शिक्षा उनके दिलों में पुरानी आदतें, पुरानी चेष्टाएं न मिटा सकी थीं। उनमें अधिकांश ऐसे थे जिनको अबुलआस से पारिवारिक द्वेष था, जो उनसे किसी पुराने खून का बदला लेना चाहते थे। इस्लाम ने उनमें क्षमा और अहिंसा के भावों को अंकुरित न किया हो, पर साम्यवाद को उनके रोम-रोम में प्रतिष्ट कर दिया था। वे धर्म के विषय में किसी के साथ रू-रियायत न कर सकते थे, चाहे वह हजरत का निकट सम्बन्धी ही क्यों न हो। अबुलआस सिर झुकाए पंचों के सामने खड़े थे और कैदी पेश होते थे। उनके मुक्तिधन का मुलाहिजा होता था और वे छोड़ दिए जाते थे। अबुलआस को कोई पूछता ही न था, यद्यपि वह हार एक तश्तरी में पंचों के सम्मुख रक्खा हुआ था। हजरत के मन में बार-बार प्रबल इच्छा होती थी कि सहाबियों से कहें यह हार कितना बहुमूल्य है। पर धर्म का बन्धन, जिसे उन्होंने स्वयं प्रतिष्ठित किया था, मुंह से एक शब्द भी न निकलने देता था। यहां तक कि समस्त बन्दीजन मुक्त हो गए, अबुलआस अकेला सिर झुकाए खड़ा रहा- हजरत मुहम्मद के दामाद के साथ इतना लिहाज भी न किया गया कि बैठने की आज्ञा तो दे दी जाती। सहसा जैद ने अबुलआस की ओर कटाक्ष करके कहा- देखा, खुदा इस्लाम की कितनी हिमायत करता है। तुम्हारे पास हमसे पंचगुनी सेना थी, पर खुदा ने तुम्हारा मुंह काला किया। देखा या अब भी आंखें नहीं खुलीं? अबुलआस ने विरक्त भाव से उत्तर दिया- जब आप लोग यह मानते हैं कि खुदा सबका मालिक है तब वह अपने एक बन्दे को दूसरे की गर्दन काटने में मदद न देगा। मुसलमानों ने इसलिए विजय पायी कि गलत या सही उन्हें अटल विश्वास है कि मृत्यु के बाद हम स्वर्ग में जाएंगे। खुदा को आप नाहक बदनाम करते हैं।
जैद- तुम्हारा मुक्ति-धन काफी नहीं है।
अबुलआस- मैं इस हार को अपनी जान से ज्यादा कीमती समझता हूं। मेरे घर में इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है।
जैद- तुम्हारे घर में जैनब हैं जिन पर ऐसे सैकड़ों हार कुर्बान किए जा सकते हैं।
अबुल- तो आपकी मंशा है कि मेरी बीवी मेरा फदिया हो। इससे तो यह कहीं बेहतर है कि मैं कत्ल कर दिया जाता। अच्छा, अगर मैं वह फदिया न दूं तो?
जैद- तो तुम्हें आजीवन यहां गुलामों की तरह रहना पड़ेगा। तुम हमारे रसूल के दामाद हो, इस रिश्ते से हम तुम्हारा लिहाज करेंगे, पर तुम गुलाम ही समझे जाओगे।
हजरत मुहम्मद निकट बैठे हुए ये बातें सुन रहे थे। वे जानते थे कि जैनब और आस एक-दूसरे पर जान देते हैं। उनका वियोग दोनों ही के लिए घातक होगा। दोनों घुल-घुलकर मर जाएंगे। सहाबियों को एक बार पंच चुन लेने के बाद उनके फैसले में दखल देना नीति-विरुद्ध था। इससे इस्लाम की मर्यादा भंग होती थी। कठिन आत्मवेदना हुई। यहां बैठे न रह सके। उठकर अन्दर चले गए। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि जैनब की गर्दन पर तलवार फेरी जा रही हैं। जैनब की दीन, करुणापूर्ण मूर्ति आंखों के सामने खड़ी मालूम होती थी। पर मर्यादा, निर्दय, निष्ठुर मर्यादा का बलिदान मांग रही थी। अबुलआस के सामने भी विषम समस्या थी। इधर गुलामों का अपमान था, उधर वियोग की दारुण वेदना थी। अन्त में उन्होंने निश्चय किया, यह वेदना सहूंगा, अपमान न सहूंगा। प्रेम को गौरव पर समर्पित कर दूंगा। बोले- मुझे आपका फैसला मंजूर है। जैनब मेरा फदिया होगी।

7

निश्चय किया गया कि जैद अबुलआस के साथ जाएं और आबादी से बाहर ठहरे। आस घर जाकर तुरन्त जैनब को वहां भेज दें। आस पर इतना विश्वास था कि वे अपना वचन पूरा करेंगे। आस घर पहुंचे तो जैनब उनसे गले मिलने दौड़ी। आस हट गये और कातर स्वर से बोले- नहीं जैनब, मैं तुमसे गले न मिलूंगा। मैं तुम्हें अपने फदिये के रूप में दे आया। अब मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तुम्हारा हार है, ले लो और फौरन यहां से चलने की तैयारी करो। जैद तुम्हें लेने को आए हैं। जैनब पर वज्र-सा गिर पड़ा। पैर बंध गए, वहीं चित्र की भांति खड़ी रह गई। वज्र ने रक्त को जला दिया, आंसुओं को सुखा दिया, चेतना ही न रही, रोती और बिलखती क्या। एक क्षण के बाद उसने एक बार माथा ठोका- निर्दय तकदीर के सामने सिर झुका दिया। चलने को तैयार हो गई। घोर नैराश्य इतना दुखदाई नहीं होता जितना हम समझते हैं। उसमें एक रसहीन शान्ति होती है। जहां सुख की आशा नहीं वहां दुख का कष्ट कहाँ! मदीने में रसूल की बेटी की जितनी इज्जत होनी चाहिए उतनी होती थी। वह पितागृह की स्वामिनी थी। धन था, मान था, गौरव था, धर्म था, प्रेम न था। आंख में सब कुछ था, केवल पुतली न थी। पति के वियोग में रोया करती थी। जिन्दा थी, मगर जिन्दा दरागोर। तीन साल तीन युगों की भांति बीते। घण्टे, दिन और वर्ष साधारण व्यवहारों के लिए है प्रेम के यहां समय का माप कुछ और ही है। उधर अबुलआस द्विगुण उत्साह के साथ धनोपार्जन में लीन हुआ, महीनों घर न आता, हंसना-बोलना सब भूल गया। धन ही उसके जीवन का एक मात्र आधार था; उसके प्रणय-वंचित हृदय को किसी विस्मृतिकारक वस्तु की चाह थी। नैराश्य और चिन्ता बहुधा शराब से शान्त होती है, प्रेम उन्माद से। अबुलआस को धनोम्माद हो गया। धन के आवरण में छिपा हुआ वियोग- दुख था, माया के पर्दे में छिपा हुआ प्रेम- वैराग्य। जाड़ों के दिन थे। नाड़ियों में रूधिर जमा जाता था। अबुलआस मक्का से माल लादकर एक काफिले के साथ चला। रकफों का एक दल भी साथ था। कुरैशियों ने मुसलमानों के कई काफिले लूट लिए थे। अबुलआस को संशय था कि मुसलमानों का आक्रमण होगा, इसलिए उन्होंने मदीने की राह छोड़ एक दूसरा रास्ता अख्तियार किया। पर दुदैव, मुसलानों को टोह मिल ही गई। जैद ने सत्तर चुने हुए आदमियों के साथ काफिले पर धावा कर दिया। धन के भक्त धर्म के सेवकों से क्या बाजी ले जाते। सत्तर ने सात सौ को मार भगाया। कुछ मरे, अधिकांश भागे, कुछ कैद हो गए। मुसलमानों को अतुल धन हाथ लगा। कैदी घाते में मिले। अबुलआस फिर कैद हो गया।

8

कैदियों के भाग्य-निर्णय के लिए नीति के अनुसार पंचायत चुनी गई। जैनब को यह खबर मिली तो आशाएं जाग उठीं; आशा मरती नहीं केवल सो जाती है। पिंजरे में बन्द पक्षी की भांति तड़फड़ाने लगी, पर क्या करे, किससे कहे, अबकी तो फदिये का भी कोई ठिकाना न था। या खुदा क्या होगा? पंचों ने अबकी हजरत मुहम्मद ही को अपना प्रधान बनाया। हजरत ने इनकार किया, पर अन्त में उनके आग्रह से विवश हो गए। अबुलआस सिर झुकाए बैठे हुए थे। हजरत ने एक बार उन पर करुणा-सूचक दृष्टि डाली, फिर सिर झुका लिया।
पंचायत शुरू हुई। अन्य कैदियों के घरों से मुक्तिधन आ गया था। वे मुक्त किए गए। अबुलआस के घर से मुक्तिधन न आया था। हजरत ने हुक्म दिया- इनका सारा माल और असबाब जब्त कर लिया जाए और ये उस वक्त तक बन्दी रहें जब तक इन्हें कोई छुड़ाने न आए। उनके अंतिम शब्द ये थे: अबुलआस, इस्लाम की रणनीति के अनुसार तुम गुलाम हो। तुम्हें बाजार में बेचकर रुपया मुसलमानों में तकसीम होना चाहिए था। पर तुम ईमानदार आदमी हो, इसलिए तुम्हारे साथ इतनी रिआयत की गई। जैनब दरवाजे के पास आड़ में बैठी हुई थी। हजरत का यह फैसल सुनकर रो पड़ी, तब घर से बाहर निकल आई और अबुलआस का हाथ पकड़कर बोली- अगर मेरा शौहर गुलाम है तो मैं उसकी लौंडी हूं। हम दोनों साथ बिकेंगे या साथ कैद होंगे।
हजरत- जैनब, मुझे लज्जित मत करो, मैं वही कर रहा हूं जो मेरा कर्त्तव्य है; न्याय पर बैठने वाले मनुष्य को प्रेम और द्वेष दोनों ही से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि इस नीति का संस्कार मैंने ही किया है, पर अब मैं उसका स्वामी नहीं, दास हूं। अबुलआस से मुझे जितना प्रेम है यह खुदा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। यह हुक्म देते हुए मुझे जितना मानसिक और आत्मिक कष्ट हो रहा है उसका अनुमान हर एक पिता कर सकता है। पर खुदा का रसूल न्याय और नीति को अपने व्यक्तिगत भावों से कलंकित नहीं कर सकता। सहबियों ने हजरत की न्याय-व्याख्या सुनी तो मुग्ध हो गए।
अबू जफर ने अर्ज की- हजरत, आपने अपना फैसला सुना दिया, लेकिन हम सब इस विषय में सहमत हैं कि अबुलआस जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के यह दण्ड न्यायोचित होते हुए भी अति कठोर है और हम सर्वसम्मति से उसे मुक्त करते हैं और उसका लूटा हुआ धन लौटा देने की आज्ञा मांगते हैं।
अबुलआस हजरत मुहम्मद की न्यायपरायणता पर चकित हो गए। न्याय का इतना ऊंचा आदर्श! मर्यादा का इतना महत्व! आह, नीति पर अपना सन्तान-प्रेम तक न्यौछावर कर दिया! महात्मा, तुम धन्य हो। ऐसे ही ममता-हीन सत्पुरुषों से संसार का कल्याण होता है। ऐसे ही नीतिपालकों के हाथों जातियां बनती हैं, सभ्यताएं परिष्कृत होती हैं।
मक्के आकर अबुलआस ने अपना हिसाब-किताब साफ किया, लोगों के माल लौटाए, ऋण चुकाए, और धन-बार त्यागकर हजरत मुहम्मत की सेवा में पहुंच गए। जैनब की मुराद पूरी हुई।