नेउर - मानसरोवर 2 - मुंशी प्रेमचंद | Neur - maansarovar 2 - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

नेउर - मानसरोवर 2 - मुंशी प्रेमचंद | Neur - maansarovar 2 - munshi premchand

नेउर

1

आकाश में चांदी के पहाड़ भाग रहे थे, टकरा रहे थे गले मिल रहे थे, जैसे सूर्य मेघ संग्राम छिड़ा हुआ हो। कभी छाया हो जाती थी कभी तेज धूप चमक उठती थी। बरसात के दिन थे। उमस हो रही थी । हवा बदं हो गई थी।
गावं के बाहर कई मजूर एक खेत की मेड़ बांध रहे, थे। नंगे बदन पसीने में तर कछनी कसे हुए, सब के सब फावड़े से मिट्टी खोदकर मेड़ पर रखते जाते थे। पानी से मिट्टी नरम हो गई थी।
गोबर ने अपनी कानी आंख मटकाकर कहा- अब तो हाथ नहीं चलता भाई गोल भी छूट गया होगा, चबेना कर ले।
नेउर ने हंसकर कहा- यह मेड़ तो पूरी कर लो फिर चबेना कर लेना मैं तो तुमसे पहले आया।
दोनों ने सिर पर झौवा उठाते हुए कहा- तुमने अपनी जवानी में जितना घी खाया होगा नेउर दादा उतना तो अब हमें पानी भी नहीं मिलता। नेउर छोटे डील का गठीला काला, फुर्तीला आदमी था। उम्र पचास से ऊपर थी, मगर अच्छे-अच्छे नौजवान उसके बराबर मेहनत न कर सकते थे अभी दो तीन साल पहले तक कुश्ती लड़ना छोड़ दिया था।
गोबर- तुमसे तमाखू पिए बिना कैसे रहा जाता है नेउर दादा? यहां तो चाहे रोटी न मिले लेकिन तमाखू के बिना नहीं रहा जाता।
दीना- तो यहां से आकर रोटी बनाओगे दादा? बुछिया कुछ नहीं करती? हमसे तो दादा ऐसी मेहरिय से एक दिन न पटे।
नेउर के पिचक खिचड़ी मूंछो से ढके मुख परहास्य की स्मित-रेखा चमक उठी, जिसने उसकी कुरुपता को भी सुन्दर बना दिया। बोला-जवानी तो उसी के साथ कटी है बेटा, अब उससे कोई काम नही होता। तो क्या करुं।
गोबर- तुमने उसे सिर चढ़ा रखा है, नहीं तो काम क्यों न करती? मजे से खाट पर बैठी चिलम पीती रहती है और सारे गांव से लड़ा करती है तुम बूढ़े हो गए, लेकिन वह तो अब भी जवान बनी है।
दीना- जवान औरत उसकी क्या बराबरी करेगी? सेंदुर, टिकुली, काजल, मेंहदी में तो उसका मन बसाता है। बिना किनारदार रंगीन धोती के उसे कभी देखा ही नहीं उस पर गहनों से भी जी नहीं भरता। तुम गऊ हो इससे निबाह हो जाता है, नहीं तो अब तक गली-गली ठोकरें खाती होती।
गोबर- मुझे तो उसके बनाव सिंगार पर गुस्सा आता है। काम कुछ न करेगी; पर खाने पहनने को अच्छा ही चाहिए।
नेउर- तुम क्या जानो बेटा जब वह आई थी तो मेरे घर सात हल की खेती होती थी। रानी बनी बैठी रहती थी। जमाना बदल गया, तो क्या हुआ। उसका मन तो वही है। घड़ी भर चूल्हे के सामने बैठ जाती है तो क्या हुआ! उसका मन तो वही है। घड़ी भर चूल्हे के सामने बैठ जाती है तो आंखे लाल हो जाती है और मूड़ थामकर पड़ जाती है। मुझसे तो यह नही देखा जाता। इसी दिन रात के लिए तो आदमी शादी ब्याह करता है और इसमें क्या रखा है। यहां से जाकर रोटी बनाउंगा, पानी लाऊंगा, तब दो कौर खाएगी। नहीं तो मुझे क्या था तुम्हारी तरह चार फंकी मारकर एक लोटा पानी पी लेता। जब से बिटिया मर गई। तब से तो वह और भी लस्त हो गई। यह बड़ा भारी धक्का लगा। मां की ममता हम-तुम क्या समझेंगे बेटा! पहले तो कभी-कभी डांट भी देता था। अब किस मुंह से डांटूं?
दीना- तुम कल पेड़ काहे को चढ़े थे, अभी गूलर कौन पकी है?
नेउर- उस बकरी के लिए थोड़ी पत्ती तोड़ रहा था। बिटिया को दूध पिलाने को बकरी ली थी। अब बुढ़िया हो गई है। लेकिन थोड़ा दूध दे देती है। उसी का दूध और रोटी बुढ़िया का आधार है।
घर पहुंचकर नेउर ने लोटा और डोर उठाया और नहाने चला कि स्त्री ने खाट पर लेटे-लेटे कहा- इतनी देर क्यों कर दिया करते हो? आदमी काम के पीछे परान थोड़े ही देता है? जब मजूरी सब के बराबर मिलती है तो क्यों काम के पीछे मरते हो?
नेउर का अन्त:करण एक माधुर्य से सराबोर हो गया। उसके आत्मसमर्पण से भरे हुए प्रेम में मैं की गन्ध भी तो नहीं थी। कितनी स्नेह! और किसे उसके आराम की, उसके मरने जीने की चिन्ता है? फिर यह क्यों न अपनी बुढ़िया के लिए मरे? बोला- तू उन जनम में कोई देवी रही होगी बुढ़िया, सच।
'अच्छा रहने दो यह चापलूसी । हमारे आगे अब कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए इतनी हाय-हाय करते हो?'
नेउर गज भर की छाती किए स्नान करने चला गया। लौटकर उसने मोटी मोटी रोटियां बनाईं। आलू चूल्हे में डाल दिए। उनका भुरता बनाया, फिर बुढ़िया और वह दोनों साथ खाने बैठे।
बुढ़िया- मेरी जात से तुम्हें कोई सुख न मिला। पड़े-पड़े खाती हूं और तुम्हे तंग करती हूं और इससे तो कहीं अच्छा था कि भगवान मुझे उठा लेते।'
'भगवान आयेंगे तो मै कहूंगा पहले मुझे ले चलो। तब इस सूनी झोपड़ी में कौन रहेगा।'
'तुम न रहोगे, तो मेरी क्या दशा होगी। यह सोचकर मेरी आंखो में अंधेरा आ जाता है। मैने कोई बड़ा पुन्न किया था। कि तुम्हें पाया था। किसी और के साथ मेरा भला क्या निबाह होता?' ऐसे मीठे संन्तोष के लिए नेउर क्या नहीं कर डालना चाहता था।
आलसिन लोभिन, स्वार्थिन बुढ़िया अपनी जीभ पर केवल मिठास रखकर नेउर को नचाती थी जैसे कोई शिकारी कंटिये में चारा लगाकर मछली को खिलाता है। पहले कौन मरे, इस विषय पर आज यह पहली ही बार बातचीत न हुई थी। इसके पहले भी कितनी ही बार यह प्रश्न उठा था और यों ही छोड़ दिया गया था! लेकिन न जाने क्यों नेउर ने अपनी डिग्री कर ली थी और उसे निश्चय था कि पहले मैं जाऊंगा। उसके पीछे भी बुढ़िया जब तक रह आराम से रहे, किसी के सामने हाथ न फैलाए, इसीलिए वह मरता रहता था, जिसमें हाथ में चार पैसे जमा हो जाएं।' कठिन से कठिन काम जिसे कोई न कर सके नेउर करता दिन भर फावड़े कुदाल का काम करने के बाद रात को वह ऊख के दिनों में किसी की ऊख पेरता या खेतों की रखवाली करता, लेकिन दिन निकलते जाते थे और जो कुछ कमाता था वह भी निकला जाता था। बुढ़िया के बगैर वह जीवन....नहीं, इसकी वह कल्पना ही न कर सकता था।
लेकिन आज की बातों ने नेउर को सशंक कर दिया। जल में एक बूंद रंग की भांति यह शंका उसके मन मे समा कर अतिरंजित होने लगी।

2

गांव में नेउर को काम की कमी न थी, पर मजूरी तो वही मिलती थी, जो अब तक मिलती आई थी; इस मन्दी में वह मजूरी भी नहीं रह गई थी। एकाएक गांव में एक साधु कहीं से घूमते-फिरते आ निकले और नेउर के घर के सामने ही पीपल की छांह मे उनकी धुनी जल गई गांव वालो ने अपना धन्य भाग्य समझा। बाबाजी का सेवा स्त्कार करने के लिए सभी जमा हो गए। कहीं से लकड़ी आ गईं, कहीं से बिछाने को कम्बल, कहीं से आटा-दाल। नेउर के पास क्या था? बाबाजी के लिए भेजन बनाने की सेवा उसने ली। चरस आ गई, दम लगने लगा।
दो तीन दिन में ही बाबाजी की कीर्ति फैलने लगी। वह आत्मदर्शी है भूत भविष्य बात देते हैं। लोभ तो छू नहीं गया। पैसा हाथ से नहीं छूते और भोजन भी क्या करते है। आठ पहर में एक दो बाटियां खा ली; लेकिन मुख दीपक की तरह दमक रहा है। कितनी मीठी बानी है! सरल हृदय नेउर बाबाजी का सबसे बड़ा भक्त था। उस पर कहीं बाबाजी की दया हो गई। तो पारस ही हो जाएगा। सारा दुख दलिद्दर मिट जाएगा।
भक्तजन एक-एक करके चले गए थे। खूब कड़ाके की ठंड़ पड़ रही थी केवल नेउर बैठा बाबाजी के पांव दबा रहा था।
बाबा जी ने कहा- बच्चा! संसार माया है इसमें क्यों फंसे हो?
नेउर ने नत मस्तक होकर कहा-अज्ञानी हूं महाराज, क्या करूं?
स्त्री है उसे किस पर छोडूं!
'तू समझता है तू स्त्री का पालन करता है?'
'और कौन सहारा है उसे बाबाजी?'
'ईश्वर कुछ नहीं है तू ही सब कुछ है?'
नेउर के मन में जैसे ज्ञान-उदय हो गया। तु इतना अभिमानी हो गया है। तेरा इतना दिमाग! मजदूरी करते-करते जान जाती है और तू समझता है मैं ही बुढ़िया का सब कुछ हूं। प्रभु जो संसार का पालन करते है, तु उनके काम में दखल देने का दावा करता है। उसे सरल करते है। आस्था की ध्वनि-सी उठकर उसे धिक्कारने लगी बोला- अज्ञानी हूं महाराज!
इससे ज्यादा वह और कुछ न कह सका। आखों से दीन विषाद के आंसु गिरने लगे।
बाबाजी ने तेजस्विता से कहा- 'देखना चाहता है ईश्वर का चमत्कार! वह चाहे तो क्षण भर मे तुझे लखपति कर दे। क्षण भर में तेरी सारी चिन्ताएं। हर लें! मै उसका एक तुच्छ भक्त हूं काकविष्टा; लेकिन मुझमें भी इतनी शक्ति है कि तुझे पारस बना दूँ। तू साफ दिल का, सच्चा ईमानदार आदमी है। मुझे तुझ पर दया आती है। मैंने इस गांव में सबको ध्यान से देखा। किसी में शक्ति नहीं, विश्वास नहीं । तुझमे मैंने भक्त का हृदय पाया तेरे पास कुछ चांदी है?
नेउर को जान पड़ रहा था कि सामने स्वर्ग का द्वार है।
'दस पाँच रुपये होगे महाराज?'
'कुछ चांदी के टूटे फूटे गहने नहीं है?'
'घरवाली के पास कुछ गहने है।'
'कल रात को जितनी चांद मिल सके यहां ला और ईश्वर की प्रभुता देख। तेरे सामने मै चांदी को हांड़ी में रखकर इसी धुनी में रख दूंगा प्रात:काल आकर हांडी निकला लेना; मगर इतना याद रखना कि उन अशर्फियो को अगर शराब पीने में जुआ खेलने में या किसी दूसरे बुरे काम में खर्च किया तो कोढ़ी हो जाएगा। अब जा सो रह। हां, इतना और सुन ले इसकी चर्चा किसी से मत करना घरवालों से भी नहीं।'
नेउर घर चला, तो ऐसा प्रसन्न था मानो ईश्वर का हाथ उसके सिर पर है। रात-भर उसे नींद नही आई। सबेरे उसने कई आदमियों से दो-दो चार-चार रुपये उधार लेकर पचास रुपये जोड़े! लोग उसका विश्वास करते थे। कभी किसी का पैसा भी न दबाता था। वादे का पक्का नीयत का साफ। रुपये मिलने में दिक्कत न हुई। पचीस रुपये उसके पास थे। बुढ़िया से गहने कैसे ले। चाल चली। तेरे गहने बहुत मैले हो गए है। खटाई से साफ कर ले । रात भर खटाई में रहने से नए हो जाएंगे। बुढ़िया चकमे में आ गई। हांड़ी में खटाई डालकर गहने भिगो दिए और जब रात को वह सो गई तो नेउर ने रुपये भी उसी हांडी मे डाला दिए और बाबाजी के पास पहुंचा। बाबाजी ने कुछ मन्त्र पढ़ा। हांड़ी को छूनी की राख में रखा और नेउर को आशीर्वाद देकर विदा किया।
रात भर करबटें बदलने के बाद नेउर मुंह अंधेरे बाबा के दर्शन करने गया। मगर बाबाजी का वहां पता न था। अधीर होकर उसने धूनी की जलती हुई राख टटोली । हांड़ी गायब थी। छाती धक-धक करने लगी। बदहवास होकर बाबा को खोजने लगा। हाट की तरफ गया। तालाब की ओर पहुंचा। दस मिनट, बीस मिनट, आधा घंटा! बाबा का कहीं निशान नहीं। भक्त आने लगे। बाबा कहां गए? कम्बल भी नहीं बरतन भी नहीं!
भक्त ने कहा- रमते साधुओं का क्या ठिकाना! आज यहां कल वहां, एक जगह रहे तो साधु कैसे? लोगों से हेल-मेल हो जाए, बन्धन में पड़ जाएं।
'सिद्ध थे।'
'लोभ तो छू नहीं गया था।'
नेउर कहां है? उस पर बड़ी दया करते थे। उससे कह गए होंगे।'
नेउर की तलाश होने लगी, कहीं पता नहीं। इतने में बुढ़िया नेउर को पुकारती हुई घर में से निकली। फिर कोलाहल मच गया। बुढ़िया रोती थी और नेउर को गालियां देती थी।
नेउर खेतों की मेड़ो से बेतहाशा भागता चला जाता था। मानो उस पापी संसार से निकल जाएगा।
एक आदमी ने कहा- नेउर ने कल मुझसे पांच रुपये लिए थे। आज सांझ को देने को कहा था।
दूसरा-हमसे भी दो रूपये आज ही के वादे पर लिए थे।
बुढ़िया रोई- दाढ़ीजार मेरे सारे गहने ले गया। पचीस रुपये रखे थे । वह भी उठा ले गया।
लोग समझ गए, बाबा कोई धूर्त था। नेउर को साझा दे गया। ऐसे-ऐसे ठग पड़े है संसार में। नेउर के बारे में किसी को ऐसा संदेह नहीं था। बेचारा सीधा आदमी आ गया पट्टी में। मारे लाज के कहीं छिपा बैठा होगा।

3

तीन महीने गुजर गए।
झांसी जिले में धसान नदी के किनारे एक छोटा सा गांव है- काशीपुर नदी के किनारे एक पहाड़ी टीला है। उसी पर कई दिन से एक साधु ने अपना आसन जमाया है। नाटे कद का आदमी है, काले तवे का-सा रंग देह गठी हुई। यह नेउर है जो साधु बेश में दुनिया को धोखा दे रहा है। वही सरल निष्कपट नेउर है जिसने कभी पराये माल की ओर आंख नहीं उठाई जो पसीने की रोटी खाकर मग्न था। घर की गांव की और बुढ़िया की याद एक क्षण भी उसे नहीं भूलती इस जीवन में फिर कोई दिन आएगा कि वह अपने घर पहुंचेगा और फिर उस संसार मे हंसता-खेलता अपनी छोटी-छोटी चिन्ताओं और छोटी-छोटी आशाओ के बीच आनन्द से रहेगा। वह जीवन कितना सुखमय था। जितने थे सब अपने थे सभी आदर करते थे। सहानुभूति रखते थे। दिन भर की मजूरी, थोड़ा-सा अनाज या थोड़े से पैसे लेकर घर आता था, तो बुढ़िया कितने मीठे स्नेह से उसका स्वागत करती थी। वह सारी मेहनत, सारी थकावट जैसे उसे मिठास में सनकर और मीठी हो जाती थी। हाय! वे दिन फिर कब आयेगे? न जाने बुढ़िया कैसे रहती होगी। कौन उसे पान की तरह फेरेगा? कौन उसे पकाकर खिलाएगा? घर में पैसा भी तो नहीं छोड़ा गहने तक डुबा दिए। तब उसे क्रोध आता कि उस बाबा को पा जाए, तो कच्च ही खा जाए। हाय लोभ! लोभ!
उनके अनन्य भक्तो में एक सुन्दरी युवती भी थी जिसके पति ने उसे त्याग दिया था। उसका बाप फौजी-पेंशनर था, एक पढ़े लिखे आदमी से लड़की का विवाह किया: लेकिन लड़का माँ के कहने में था और युवती की अपनी सास से न पटती। वह चाहती थी शौहर के साथ सास से अलग रहे शौहर अपनी मां से अलग होने पर न राजी हुआ। वह रुठकर मैके चली आई। तब से तीन साल हो गए थे और ससुराल से एक बार भी बुलावा न आया न पतिदेव ही आए। युवती किसी तरह पति को अपने वश में कर लेना चाहती थी। महात्माओं की तरह पति को अपने वश में कर लेना चाहती थी महात्माओ के लिए किसी का दिल फेर देना ऐसा क्या मुश्किल है! हां, उनकी दया चाहिए।
एक दिन उसने एकान्त में बाबाजी से अपनी विपति कह सुनाई। नेउर को जिस शिकार की टोह थी वह आज मिलता हुआ जान पड़ा, गंभीर भाव से बोला- बेटी मैं न सिद्ध हूं, न महात्मा, न मै संसार के झमेलो में पड़ता हूं पर तेरी श्रृद्धा और प्रेम देखकर तुझ पर दया आती है। भगवान ने चाहा तो तेरा मनोरथ पूरा हो जाएगा।
'आप समर्थ हैं और मुझे आपके ऊपर विश्वास है।'
'भगवान की जो इच्छा होगी वही होगा।'
'इस अभागिनी की डोगी आप वही होगा।'
'मेरे भगवान आप ही हो।'
नेउर ने मानो धर्म-संकट में पड़कर कहा- लेकिन बेटी, उस काम में बड़ा अनुष्ठान करना पड़ेगा और अनुष्ठान में सैकड़ो हजारों का खर्च है। उस पर भी तेरा काज सिद्ध होगा या नही, यह मैं नहीं कह सकता। हां मुझसे जो कुछ हो सकेगा, वह मैं कर दूंगा। पर सब कुछ भगवान के हाथ में है। मैं माया को हाथ से नहीं छूता; लेकिन तेरा दुख नहीं देखा जाता।
उसी रात को युवती ने अपने सोने के गहनों की पेटारी लाकर बाबाजी के चरणों पर रख दी बाबाजी ने कांपते हुए हाथों से पेटारी खोली और चन्द्रमा के उज्जवल प्रकाश में आभूषणो को देखा । उनकी बाधे झपक गईं यह सारी माया उनकी है वह उनके सामने हाथ बाधे खड़ी कह रही है मुझे अंगीकार कीजिए कुछ भी तो करना नहीं है केवल पेटारी लेकर अपने सिरहाने रख लेना है और युवती को आशीर्वाद देकर विदा कर देना है। प्रातःकाल वह आएगी उस वक्त वह उतना दूर होगें जहां उनकी टांगे ले जाएंगी। ऐसा आशातीत सौभाग्य! जब वह रुपये से भरी थैलियां लिए गांव में पहुंचेगा और बुढ़िया के सामने रख देगा! ओह! इससे बड़े आनन्द की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता।
लेकिन न जाने क्यों इतना जरा सा काम भी उससे नहीं हो सकता था। वह पेटारी को उठाकर अपने सिरहाने कंबल के नीचे दबाकर नहीं रख सकता। है। कुछ नहीं; पर उसके लिए असूझ है, असाध्य है वह उस पेटारी की ओर हाथ भी नही बढ़ा सकता है इतना कहने मे कौन सी दुनिया उल्टी जाती है कि बेटी इसे उठाकर इस कम्बल के नीचे रख दे। जबान कट तो न जाएगी; मगर अब उसे मालूम होता कि जबान पर भी उसका काबू नहीं है। आंखो के इशारे से भी यह काम हो सकता है। लेकिन इस समय आंखे भी बगावत कर रही हैं। मन का राजा इतने मत्रियों और सामन्तों के होते हुए भी अशक्त है, निरीह है, लाख रुपये की थैली सामने रखी हो नंगी तलवार हाथ में हो गाय मजबूत रस्सी के सामने बंधी हो, क्या उस गाय की गरदन पर उसके हाथ उठेगें। कभी नहीं कोई उसकी गरदन भले ही काट ले। वह गऊ की हत्या नहीं कर सकता। वह परित्याक्ता उसे उसी गऊ की तरह लग रही थी। जिस अवसर को वह तीन महीने से खोज रहा है उसे पाकर आज उसकी आत्मा कांप रही है। तृष्णा किसी वन्य जन्तु की भांति अपने संस्कारों से आखेटप्रिय है लेकिन जंजीरों से बधे-बधे उसके नख गिर गए हैं और दांत कमजोर हो गए हैं।
उसने रोते हुए कहा- बेटी पेटारी उठा ले जाओ। मै तुम्हारी परीक्षा कर रहा था। मनोरथ पूरा हो जाएगा।
चांद नदी के पार वृक्षों की गोद में विश्राम कर चुका था। नेउर धीरे से उठा और धसान मे स्नान करके एक ओर चल दिया। भभूत और तिलक से उसे घृणा हो रही थी उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह घर से निकला ही कैसे? थोड़े उपहास के भय से! उसे अपने अन्दर एक विचित्र उल्लास का अनुभव हो रहा था मानो वह बेड़ियों से मुक्त हो गया हो कोई बहुत बड़ी विजय प्राप्त की हो।

4

आठवें दिन नेउर गांव पहुंच गया। लड़को ने दौड़कर उछल कूदकर, उसकी लकड़ी उसके हाथ उसका स्वागत किया।
एक लड़के ने कहा काकी तो मर गई दादा।
नेउर के पांव जैसे बंध गए मुंह के दोनों कोने नीचे झुके गए। दीनविषाद आखों में चमक उठा कुछ बोला नहीं, कुछ पूछा भी नहीं। पलभर जैसे निस्संज्ञ खड़ा रहा, फिर बड़ी तेजी से अपनी झोपड़ी की ओर चला। बालकवृन्द भी उसके पीछे दौड़े मगर उनकी शरारत और चंचलता भागचली थी। झोपड़ी खुली पड़ी थी बुढ़िया की चारपाई जहां की तहां थी। उसकी चिलम और नारियल ज्यो के ज्यो धरे हुए थे। एक कोने में दो चार मिट्टी और पीतल के बरतन पड़े हुए थे लड़ेक बाहर ही खड़े रह गए झोपड़ी के अन्दर कैसे जाएं वहां बुढ़िया बैठी है।
गांव मे भगदड़ मच गई। नेउर दादा आ गए। झोपड़ी के द्वार पर भीड़ लग गई प्रश्नों का तांता बध गया। तुम इतने दिनों कहां थे दादा? तुम्हारे जाने के बाद तीसरे ही दिन काकी चल बसीं रात-दिन तुम्हें गालियां देती थी। मरते-मरते तुम्हें गरियाती ही रही। तीसरे दिन आए तो मरी पड़ी थी। तुम इतने दिन कहां रहे?
नेउर ने कोई जवाब न दिया। केवल शुन्य निराश करुण आहत नेत्रों से लोगो की ओर देखता रहा मानो उसकी वाणी हर ली गई है। उस दिन से किसी ने उसे बोलते या रोते-हंसते नहीं देखा।
गांव से आध मील पर पक्की सड़क है। अच्छी आमदरफत है। नेउर बेड सबेरे जाकर सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ जाता है। किसी से कुछ मांगता नहीं पर राहगीर कुछ न कुछ दे ही देते हैं। चेबना, अनाज, पैसे। संध्या सयम वह अपनी झोपड़ी में आ जाता है, चिराग जलाता है भोजन बनाता है, खाना है और उसी खाट पर पड़ा रहता है। उसके जीवन में जो एक संचालक शक्ति थी,वह लुप्त हो गई है वह अब केवल जीवधारी है। कितनी गहरी मनोव्यधा है। गांव में प्लेग आया। लोग घर छोड़-छोड़कर भागने लगे नेउर को अब किसी की परवाह न थी। न किसी को उससे भय था न प्रेम। सारा गांव भाग गया। नेउर अपनी झोपड़ी से न निकला और आज भी वह उसी पेड़ के नीचे सड़क के किनारे उसी तरह मौन बैठा हुआ नजर आता है- निश्चेष्ट, निर्जीव।