भाग-5 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-5 - godan - munshi premchand
गोदान – भाग-5
उधर गोबर खाना खाकर अहिराने में पहुँचा । आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थी । जब वह गाय लेकर चला था, तो झुनिया आधे रास्ते तक उसके साथ आयी थी । गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता । अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था । कुछ दूर चलने के बाद झुनिया ने गोबर को मर्म भरी आँखों से देखकर कहा-अब तुम काहे को यहाँ कभी आओगे!
एक दिन पहले तक गोबर कुमार था । गांव में जितनी युवितयाँ थीं, वह या तो उसकी बहनें थीं या भाभियाँ । बहनों से तो कोई छेड़छाड़ हो ही क्या सकती थी, भाभियाँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठिठोली किया करती थी, लेकिन वह केवल सरल विनोद होता था । उनकी दृष्टि में अभी उसके यौवन में केवल फूल लगे थे । जब तक फल न लग जायें, उस पर ढेले फेंकना व्यर्थ की बात थी । और किसी ओर से प्रोत्साहन न पाकर उसका कौमार्य उसके गले से चिपका हुआ था । झुनिया का वंचित मन, जिसे भाभियों के व्यंग्य और हार-विलास ने और भी लोलुप बना दिया था, उसके कौमार्य ही पर ललचा उठा । और उस कुमार में भी पत्ता खड़कते ही किसी सोये हुए शिकारी जानवर की तरह यौवन जाग उठा ।
गोबर ने आवरण-हीन रसिकता के साथ कहा- अगर भिक्षुक को भीख मिलने की आशा हो, तो वह दिन-भर और रात-भर दाता के द्वार पर खड़ा रहे ।
झुनिया ने कटाक्ष करके कहा-तो यह कहो, तुम भी मतलब के यार हो ।
गोबर की धमनियों का रक्त प्रबल हो उठा । बोला-भूखा आदमी अगर हाथ फैलाये तो उसे क्षमा कर देना चाहिए ।
झुनिया और गहरे पानी में उतरी-भिक्षुक जब तक दस द्वारे न जाये, उसका पेट कैसे भरेगा । मैं ऐसे भिक्षुकों को मुँह नहीं लगाती । ऐसे तो गली-गली मिलते हैं । फिर भिक्षुक देता क्या है, असीस! असीसों से तो किसी का पेट नहीं भरता ।
मन्द बुद्धि गोबर झुनिया का आशय न समझ सका । झुनिया छोटी-सी थी तभी से ग्राहकों के घर दूध लेकर जाया करती थी । सुसराल में उसे ग्राहकों के घर दूध पहुँचाना पड़ता था । आजकल भी दही बेचने का भार उसी पर था । उसे तरह-तरह के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था । दो-चार रुपये उसके हाथ लग जाते थे घड़ी-भर के लिए मनोरंजन भी हो जाता था; मगर यह आनन्द जैसे मंगनी की चीज हो । उसमें टिकाव न था, समर्पण न था, अधिकार न था । वह ऐसा प्रेम चाहती थीं जिसके लिए वह जिये और मरे, जिस पर वह अपने को समर्पित कर दे। वह केवल जुगनू की चमक नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी । वह एक गृहस्थ की बालिका थी, जिसके गृहिणीत्व को रसिकों की लगावटबाजियों ने कुचल नहीं पाया था ।
गोबर ने कामना से उद्दीप्त मुख से कहा-भिक्षुक को एक ही द्वार पर भरपेट मिल जाये, तो क्यों द्वार-द्वार घूमे?
झुनिया ने सदय भाव से उसकी ओर ताका । कितना भोला है; कुछ समझता ही नहीं ।
‘भिक्षुक को एक द्वार पर भरपेट कहाँ मिलता है। उसे तो चुटकी ही मिलेगी । सर्वस तो तभी पाओगे, जब अपना सर्वस दोगे ।’
‘मेरे पास क्या है झुनिया?’
‘तुम्हारे पास कुछ नहीं है? मैं तो समझती हूँ, मेरे लिए तुम्हारे पास जो कुछ है, बड़े-बड़े लखपतियों के पास नहीं है । तुम मुझसे भीख न माँगकर मुझे मोल ले सकते हो ।’
गोबर उसे चकित नेत्रों से देखने लगा ।
झुनिया ने फिर कहा और जानते हो, दाम क्या देना होगा? मेरा होकर रहना पड़ेगा । फिर किसी के सामने हाथ फैलाये देखूँगी, तो घर से निकाल दूंगी ।
गोबर को जैसे अँधेरे में टटोलते हुए इच्छित वस्तु मिल गयी । एक विचित्र भय मिश्रित आनन्द से उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा । लेकिन यह कैसे होगा? झुनिया को रख ले, तो रखेली को लेकर घर में रहेगा कैसे। बिरादरी की झंझट जो है । सारा गांव काँव-काँव करने लगेगा । सभी दुश्मन हो जायँगे । अम्मा तो इसे घर में घुसने भी न देगी लेकिन जब स्त्री होकर यह नहीं डरती, तो पुरुष होकर वह क्यों डरे । बहुत होगा, लोग उसे अलग कर देंगे । वह अलग ही रहेगा । झुनिया जैसी औरत गाँव में दूसरी कौन है? कितनी समझदारी की बातें करती है । क्या जानती नहीं कि मैं उसके जोग नहीं हूँ । फिर भी मुझसे प्रेम करती है । मेरी होने को राजी है । गांव वाले निकाल देंगे, तो क्या संसार में दूसरा गांव ही नहीं है? और गाँव क्यों छोड़े? मातादीन ने चमारिन बैठा ली, तो किसी ने क्या कर लिया । दातादीन दाँत कटकटाकर रह गया । मातादीन ने इतना जरूर किया कि अपना धरम बचा लिया । अभी भी बिना असनान-पूजा किये मुँह में पानी नहीं डालते । दोनों जून अपना भोजन आप पकाते हैं और अब तो अलग भोजन नहीं पकाते । दातादीन और वह साथ बैठकर खाते हैं । झिंगुरीसिंह ने बाम्हनी रख ली, उनका किसी ने क्या कर लिया? उनका जितना आदर-मान तब था, उतना ही आज भी है; बल्कि और बढ़ गया । पहले नौकरी खोजते फिरते थे । अब उसके रुपये से महाजन बन बैठे । ठकुराई का रोब तो था ही, महाजनी का रोब भी जम गया । मगर फिर ख्याल आया-कहीं झुनिया दिल्लगी न कर रही हो । पहले इसकी ओर से निश्चित हो जाना आवश्यक था ।
उसने पूछा-मन से कहती हो सूना कि खाली लालच दे रही हो? मैं तो तुम्हारा हो चुका; लेकिन तुम भी हो जाओगी?
‘तुम मेरे हो चुके, कैसे जानूँ?’
‘तुम जान भी चाहो, तो दे दूँ ।’
‘जान देने का अरथ भी समझते हो ।
‘तुम समझा दो न ।’
‘जान देने का अरथ है, साथ रहकर निबाह करना । एक बार हाथ पकड़कर उमिर भर निबाह करते रहना, चाहे दुनिया कुछ कहे, चाहे माँ-बाप, भाई-बन्द, घर-द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े । मुँह से जान देने वाले बहुतों को देख चुकी । भौंरों की भाँति फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं । तुम भी वैसे ही न उड़ जाओगे?’
गोबर के एक हाथ में गाय की पगहिया थी । दूसरे हाथ से उसने झुनिया का हाथ पकड़ लिया, जैसे बिजली के तार पर हाथ गया हो । सारी देह यौवन के पहले स्पर्श से काँप उठी । कितनी मुलायम, गुदगुदी, कोमल कलाई!
झुनिया ने उसका हाथ हटाया नहीं, मानो इस स्पर्श का उसके लिए कोई महत्त्व ही न हो । फिर एक क्षण के बाद गम्भीर भाव से बोली-आज तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, याद रखना ।
‘खूब याद रखूँगा सूना और मरते दम तक निबाहूँगा ।’
झुनिया अविश्वास-भरी मुस्कान से बोली-इसी तरह तो सब कहते हैं गोबर! बल्कि इससे भी मीठे, चिकने शब्दों में । अगर मन में कपट हो. मुझे बता दो सचेत हो जाऊं । ऐसों को मन नहीं देती । उनसे तो खाली हंस-बोल लेने का नाता रखती हूँ । बरसों से दूध लेकर बाजार जाती हूँ । एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफसर अपना रसियापन दिखाकर मुझे फंसा लेना चाहते हैं । कोई अमले, अफसर अपना रसियापन दिखाकर मुझे रसीली, नसीली चितवन से घूरता है, मानो मारे प्रेम के बेहोश हो गया है, कोई रुपये दिखाता है, कोई गहने । सब मेरी गुलामी करने को तैयार रहते हैं, उमिर भर, बल्कि उस जनम में भी, लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती हूँ। सब-के-सब भौंरे हैं रस लेकर उड़ जाने वाले । मैं भी उन्हें ललचाती हूँ, तिरछी नजरों से देखती हूँ । वह मुझे गधी बनाते हैं, मैं उन्हें उल्लू बनाती हूँ । मैं मर जाऊँ, तो उनकी आँखों में आँसू न आयेगा । वह मर जायँ, तो मैं कहूँगी- अच्छा हुआ, निगोड़ा मर गया । मैं तो जिसकी हो जाऊँगी, उसकी जनम-भर के लिए हो जाऊँगी-सुख में, दुःख में, सम्पत में, बिपत में, उसके साथ रहूँगी । हरजाई नहीं हूँ कि सबसे हंसती-बोलती फिरूँ। न रुपये की भूखी हूँ, न गहने-कपड़े की । बस भले आदमी का संग चाहती हूँ, जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूँ । एक पण्डित जी बहुत तिलक मुद्रा लगाते हैं । आध सेर दूध लेते हैं । एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गयी थी । मुझे क्या मालूम । और दिनों की तरह दूध लिये भीतर चली गयी । वहाँ पुकारती हूँ, बहूजी, बहूजी! कोई बोलता ही नहीं । इतने में देखती हूँ तो पण्डितजी बाहर के किवाड़ बन्द किये चले आ रहे हैं । मैं समझ गयी, इसकी नीयत खराब है । मैंने डाँटकर पूछा-तुमने किवाड क्यों बन्द कर लिये? क्या बहूजी कहीं गयी हैं? घर में सन्नाटा क्यों है? उसने कहा-वह एक नेवते में गयी हैं; और मेरी ओर दो पग और बढ़ आया । मैंने कहा तुम्हें दूध लेना हो तो लो, नहीं मैं जाती हूँ । बोला-आज तो तुम यहाँ से न जाने पाओगी सूना रानी, रोज-रोज कलेजे पर छुरी चलाकर भाग जाती हो, आज मेरे हाथ से न बचोगी । तुमसे सच कहती हूँ गोबर, मेरे रोएँ खड़े हो गये । गोबर आवेश में बोला-मैं बच्चा को देख पाऊँ, तो खोदकर जमीन में गाड़ दूँ । खून चूस लूँ । तुम मुझे दिखा तो देना ।
‘सुनो तो, ऐसों का मुँह तोड़ने के लिए मैं ही काफी हूँ । मेरी छाती धक-धक करने लगी । यह कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूँगी । कोई चिल्लाना भी तो न सुनेगा; लेकिन मन में यह निश्चय कर लिया था कि मेरी देह छुई, तो दूध की भरी हाड़ी उसके मुँह पर पटक दूँगी । बला से चार-पाँच सेर दूध जायेगा, बचा को याद तो हो जायगी । कलेजा मजबूत करके बोली-दुख फेर में न रहना पण्डित जी! मैं अहीर की लड़की हूँ । मूँछ का एक-एक बाल चुनवा लूंगी । यही लिखा है तुम्हारे पोथी-पत्रा में कि दूसरों की बहू-बेटी को अपने घर में बन्द करके बेइज्जत करो । इसीलिए तिलक-मुद्रा का जाल बिछाये बैठे हो? लगा हाथ जोड़ने, पैरों पड़ने-एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायगा, सूना रानी! कभी-कभी गरीबों पर दया किया करो, नहीं भगवान् पूछेंगे, मैंने तुम्हें इतना रूपधन दिया था, तुमने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया, तो क्या जवाब दोगी? बोले, मैं विप्र हूँ’ रुपये-पैसे का दान तो रोज ही पाता हूँ, आज रूप का दान दे दो ।
‘मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दिया, मैं पचास रुपये लूंगी । सच कहती हूँ गोबर, तुरन्त कोठरी में गया और दस-दस के पाँच नोट निकालकर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट जमीन पर गिरा दिये और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया । मैं तो पहले ही से तैयार थी । हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी । सिर से पाँव तक सराबोर हो गया । चोट भी खूब लगी। सिर पकड़कर बैठ गया और लगा हाय-हाय करने । मैंने देखा, अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दी और किवाड़ खोलकर भागी ।’
गोबर लड़ता मारकर बोला-बहुत अच्छा किया तुमने । दूध से नहा गया होगा । तिलक-मुद्रा भी धुल गयी होगी । मूँछें भी क्यों न उखाड़ लीं?
‘दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गयी । उसकी घरवाली आ गयी थी। वह अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था । मैंने कहा-कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूँ पण्डित! लगा हाथ जोड़ने । मैंने कहा-अच्छा झुककर चाटो, तो छोड़ दूँ । सिर जमीन पर रगड़कर कहने लगा-अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है सूना, यही समझ लो कि पण्डिताइन मुझे जीता न छोड़ेगी । मुझे भी उस पर दया आ गयी ।’
गोबर को उसकी दया बुरी लगी-यह तुमने क्या किया? उसकी औरत से जाकर कह क्यों नहीं दिया? जूतों से पीटती । ऐसे पाखंडियों पर दया न करनी चाहिए । तुम मुझे कल उनकी सूरत दिखा दो, फिर देखना, कैसी मरम्मत करता हूँ । झुनिया ने उसके अर्क-विकसित यौवन को देखकर कहा-तुम उसे न पाओगे । खासा देव है । मुफ्त का माल उड़ाता है कि नहीं ।
गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहता । डींग मारकर बोला-मोटे होने से क्या होता है । यही फौलाद की हड्डियाँ हैं । तीन सौ डण्ड रोज मारता हूँ । दूध-घी नहीं मिलता, नहीं, अब तक सीना यों निकल आया होता ।
यह कहकर उसने छाती फैला कर दिखायी ।
झुनिया ने आश्वस्त आंखों से देखा-अच्छा, कभी दिखा दूँगी । लेकिन यही भी तो सभी एक-से हैं, तुम किस-किस की मरम्मत करोगे । न जाने मरदों की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवान, सुन्दर औरत देखी और बस लगे घूरने, छाती पीटने । और वह जो बड़े आदमी कहलाते हैं, ये तो निरे लम्पट होते हैं । फिर मैं तो कोई सुन्दरी नहीं हूँ…
गोबर ने आपत्ति की-तुम! तुम्हें देखकर तो यही जी चाहता है कि कलेजे में बिठा लें ।
झुनिया ने उसकी पीठ में हलका-सा घूँसा जमाया-लगे औरों की तरह तुम भी चापलूसी करने । मैं जैसी कुछ हूँ, वह मैं जानती हूँ । मगर इन लोगों को तो जवान मिल जाये । घड़ी-भर मन बहलाने को और क्या चाहिए । गुन तो आदमी उसमें देखता है, जिसके साथ जनम-भर निबाह करना हो । सुनती भी हूँ और देखती भी हूँ, आजकल बड़े घरों की विचित्र लीला है । जिस मुहल्ले में मेरी ससुराल है, उसी में गपड़ू नाम के कासमीरी रहते थे । बड़े भारी आदमी थे । उनके यही पाँच सेर दूध लगता था । उनकी तीन लड़कियाँ थी । कोई बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस की होंगी । एक-से-एक सुन्दर । तीनों बड़े कॉलिज में पढ़ने जाती थी । एक साइत, कॉलिज में पढ़ाती भी थी । तीन सौ का महीना पाती थी । सितार वह सब बजावें, हरमुनियाँ वह सब बजावें, नाचें वह, गावें वह; लेकिन ब्याह कोई न करती थी । राम जाने, वह किसी मरद को पसन्द नहीं करती थीं कि मरद उन्हीं को पसन्द नहीं करता था । एक बार मैंने बड़ी बीबी से पूछा, तो हंसकर बोलीं-हम लोग यह रोग नहीं पालते; मगर भीतर-ही-भीतर खूब गुलछर्रे उड़ाती थी । जब देखूँ, दो-चार लौंडे उनको घेरे हुए हैं । जो सबसे बड़ी थी, वह तो कोट-पतलून पहनकर घोड़े पर सवार होकर मर्दों के साथ सैर करने जाती थी । सारे सहर में उनकी लीला मशहूर थी । गपड़ू बाबू सिर नीचा किये, जैसे मुँह में कालिख-सी लगाये रहते थे । लड़कियों को डाँटते थे, समझाते थे; पर सबकी-सब खुल्लमखुल्ला कहती थीं- तुमको हमारे बीच में बोलने का कुछ मजाल नहीं है । हम अपने मन की रानी हैं, जो हमारी इच्छा होगी; वह हम करेंगी । बेचारा बाप जवान-जवान लड़कियों से क्या बोले । मारने-बाँधने से रहा, डांटने-डपटने से रहा; लेकिन भाई बड़े आदमियों की बातें कौन चलाये वह जो कुछ करें, सब ठीक है । उन्हें तो बिरादरी और पंचायत का भी डर नहीं । मेरी समझ में तो यही नहीं आता कि किसी का रोज-रोज कैसे मन बदल जाता है । क्या आदमी गाय-बकरी से भी गया बीता हो गया? लेकिन किसी को बुरा नहीं कहती! भाई मन को जैसा बनाओ, वैसा बनता है । ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें रोज-रोज की दाल रोटी के बाद कभी-कभी मुँह का संवाद बदलने के लिए हलवा-पूरी भी चाहिए । और ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें घर की रोटी-दाल देखकर ज्वर आता है । कुछ बेचारियाँ ऐसी भी हैं, जो अपनी रोटी-दाल में ही मगन रहती हैं । हलवा-पूरी से उन्हें कोई मतलब नहीं । मेरी दोनों भावजों को ही देखो । हमारे भाई काले-कुबड़े नहीं हैं । दस जवानों में एक जवान हैं; लेकिन भावजों को नहीं भाते । उन्हें तो वह चाहिए जो सोने की बालियाँ बनवाये, महीन साड़ियाँ लाये, रोज चाट खिलाये । बालियाँ और मिठाइयाँ मुझे भी कम अच्छी नहीं लगती; लेकिन जो कहो कि इसके लिए अपनी लाज बेचती फिरूँ तो भगवान इससे बचायें । एक के साथ मोटा झोटा खा-पहनकर उमिर काट देना, बस अपना तो यही रोग है । बहुत करके तो मर्द ही औरतों को बिगाड़ते हैं । जब मर्द इधर-उधर ताकझाँक करेगा तो औरत भी आंख लड़ायेगी । मर्द दूसरी औरतों के पीछे दौड़ेगा, तो औरत भी जरूर मर्दों के पीछे दौड़ेगी । मर्द का हरजाईपन औरत को भी उतना ही बुरा लगता है, जितना औरत का मर्द को । यही समझ लो, मैंने तो अपने आदमी को साफ-साफ कह दिया था, अगर तुम इधर-उधर लपके, तो मेरी जो इच्छा होगी वह करूँगी । यह चाहो कि तुम तो अपने मन की करो और औरत को मार के डर से अपने काबू में रखो, तो यह न होगा । तुम खुले-खजाने करते हो, वह छिपकर करेगी । तुम उसे जलाकर सुखी नहीं रह सकते ।
गोबर के लिए यह एक नयी दुनिया की बातें थी । तन्मय होकर सुन रहा था । कभी-कभी तो आप-ही-आप उसके पाँव रुक जाते, फिर सचेत होकर चलने लगता । झुनिया ने पहले अपने रूप से मोहित किया था । आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातों और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ध कर लिया । ऐसी रूप, गुण, ज्ञान की आगरी उसे मिल जाये. तो धन्य भाग । फिर वह क्यों पंयाचत और बिरादरी से डरे?
झुनिया ने जब देख लिया कि उसका गहरा रंग जम गया, तो छाती पर हाथ रख-रखकर जीभ दाँत से काटती हुई बोली-अरे, यह तो तुम्हारा गाँव आ गया! तुम भी बड़े मुरहे हो, मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ ।
यह कहकर वह लौट पड़ी ।
गोबर ने आग्रह करके कहा-एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलती? अम्माँ भी तो देख लें ।
झुनिया ने लज्जा से आँखें चुराकर कहा-तुम्हारे घर यों न जाऊंगी । मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गयी । अच्छा, बताओ अब कब आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी । चले आना, मैं अपने पिछवाडे मिलूंगी ।
‘और जो न मिली?’
‘तो लौट जाना ।’
‘तो फिर मैं न आऊँगा ।’
‘आना पड़ेगा, नहीं, कहे देती हूँ ।’
‘तुम भी बचन दो मिलोगी?’
‘मैं बचन नहीं देती ।.
‘तो मैं भी नहीं आता ।’
‘मेरी बला से!’
झुनिया अँगूठा दिखाकर चल दी । प्रथम-मिलन में ही दोनों एक दूसरे पर अपना-अपना अधिकार जमा चुके थे । झुनिया जानती थी, वह आयेगा, कैसे न आयेगा? गोबर जानता था. वह मिलेगी, कैसे न मिलेगी?
जब वह अकेला गाय को हाँकता हुआ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है ।