भाग-3 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-3 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

गोदान – भाग-3

होरी अपने गाँव के समीप पहुंचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लडकियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं । लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था । जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो । यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं ? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए है? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला-आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गयी, कुछ सूझता है कि नहीं?
उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा ली और उसके साथ हो लिये । गोबर साँवला, लम्बा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम में रूचि न मालूम होती थी । प्रसन्नता की जगह मुख पर असंतोष और विद्रोह था । वह इसलिए काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने पीने की कोई फिक्र नहीं है । बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थी, साँवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल । गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़कर कमरे में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी । छोटी रूपा पाँच-छः साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लँगोटी कमर में बाँधे, बहुत ही ढीठ और रोनी ।
रूपा ने होरी की टाँगों में लिपटकर कहा- काका । देखो, मैंने एक ढेला भी नहीं छोड़ा । बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ । ढेले न तोड़े जायँगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी?
होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा- तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल, घर चलें । कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रहने के बाद गोबर बोला- यह तुम रोज-रोज मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो? बाकी न चुके तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नजर-नजराना सब तो हमसे भराया जाता है । फिर किसी की क्यों सलामी करो।
इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे; लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना जरूरी था । बोला-सलामी करने न जाये, तो रहें कहाँ? भगवान ने जब गुलाम बना दिया है, तो अपना क्या बस है? यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर मड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा । घूरे ने द्वार पर खूँटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपया डाँड़ ले लिये थे । तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा । दूसरा खोदे तो नजर देनी पड़े । अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है । घण्टों खड़े रहो, तब जाके मालिक को ख़बर होती है । कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फुरसत नहीं है । गोबर ने कटाक्ष किया-बड़े आदमियों की हाँ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनन्द तो मिलता ही है, नहीं लोग मेम्बरी के लिए क्यों खड़े हों?
‘जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहो कह लो । पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गर्दन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है, अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता ।’
पिता पर अपना क्रोध उतारकर गोबर कुछ शान्त हो गया और चुपचाप चलने लगा । सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई । उसे डाँटकर बोली-अब गोद से उतरकर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गये हैं?
रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा-न उतरेंगे, जाओ । काका, बहन हमको रोज चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ । मेरा नाम कुछ और रख दो ।
होरी ने सोना को बनावटी रोष से देखकर कहा- तू इसे क्यों चिढ़ाती है । सोनिया? सोना तो देखने को है । निबाह तो रूपा से होता है । रूपा न हो, तो रुपये कहाँ से बनें, बता?
सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया- सोना न हो तो मोहर कैसे बने, नथुनियाँ कहीं से आएं, कण्ठा कैसे बने?
गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया । रूपा से बोला- तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता है, रूपा तो उजला होता है जैसे सूरज ।
सोना बोली- शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता ।
रूपा इस दलील से परास्त हो गयी । गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी । उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा ।
होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी । बोला- सोना बड़े आदमियों के लिए है । हम गरीबों के लिए तो रूपा ही है । जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं ।
सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था । परास्त होकर बोली- तुम सब जने एक ओर हो गये, नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती ।
रूपा ने उंगली मटकाकर कहा- ए राम, सोना चमार, ए राम, सोना चमार ।
इस विजय का उसे इतना आनन्द हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी । जमीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी- रूपा राजा, सोना चमार- रूपा राजा, सोना चमार!
ये लोग घर पहुंचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी । रुष्ट होकर बोली- आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है ।
फिर पति से गर्म होकर कहा- तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गये । खेत कहीं भागा जाता था ।
द्वार पर कुआँ था । होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उंडेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने लगे । जौ की रोटियाँ थी; पर गेहूँ- जैसी सुफेद और चिकनी । अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे । रूपा बाप की थाली में खाने बैठी । सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आँखों से देखा । मानो कह रही थी वाह रे दुलार!
धनिया ने पूछा- मालिक से क्या बातचीत हुई?
होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा- यही तहसील-वसूल की बात की थी और क्या । हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो, तो वह हमसे भी ज्यादा दुःखी हैं । हमें अपने पेट ही की चिन्ता है, उन्हें हजारों चिन्ताएं घेरे रहती हैं ।
राय साहब ने और क्या-क्या कहा था- वह कुछ होरी को याद न था । उस सारे कथन का खुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था ।
गोबर ने व्यंग्य किया- तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, बैल, हल-कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं । करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी । जिसे दुःख होता है, वह दर्जनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है । मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुःखी हैं ।
होरी ने झुँझलाकर कहा- अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे । हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती । जो दस रुपये महीने का नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता । खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है । खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है । इसी तरह जमीदारों का हाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं । हाकिमों को रसद पहुंचा, उनकी सलामी करो, अमलों को खुश करो । तारीख पर मालगुजारी न चुका दें, तो हवालात हो जाये, कुड़की आ जाये । हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता । दो-चार गालियाँ-घुड़कियां ही तो मिलकर रह जाती हैं ।
गोबर ने प्रतिवाद किया- ‘यह सब कहने की बातें हैं । हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुजर नहीं होता । उन्हें क्या, मजे से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हजारों आदमियों पर हुकूमत है । रुपये न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन लेकर आदमी और क्या करता है?
‘तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?’
‘भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है ।’
‘यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं । सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है । उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं, उसका आनन्द भोग रहे हैं । हमने कुछ नहीं संचा, सो भोगें क्या?
‘यह सब मन को समझाने की बातें हैं । भगवान सबको बराबर बनाते हैं । यही जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है ।
‘यह तुम्हारा भरम है । मालिक आज भी चार घण्टे रोज भगवान का भजन करते हैं।
किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धर्म होता है?’
‘अपने बल पर ।’
‘नहीं, किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर । यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धर्म करना पड़ता है। भगवान का भजन भी इसीलिए होता है, भूखे-नंगे रहकर भगवान का भजन करें, तो हम भी देखें । हमें कोई दोनों जून खाने को दे, तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें । एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाये ।’
होरी ने हार कर कहा- अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान की लीला में भी टाँग अड़ाते हो ।
तीसरे पहर गोबर कुदाल लेकर चला, तो होरी ने कहा- जरा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं । तब तक थोड़ा-सा भूसा निकालकर रख दो । मैंने भोला को देने को कहा है । बेचारा आजकल बहुत तंग है ।
गोबर ने अवज्ञा-भरी आंखों से देखकर कहा- हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है । ‘बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ । वह सकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी ।’
‘हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी ।’
‘दे तो रहा था; पर हमने ली ही नहीं ।’
धनिया मटककर बोली- गाय नहीं वह दे रहा था । इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय देगा!
होरी ने कसम खायी- नहीं, जवानी कसम, अपनी पछाईं गाय दे रहे थे । हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके । अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चाहते हैं । मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूंगा! थोड़ा-सा भूसा दिये देता हूँ, कुछ रुपये हाथ आ जायँगे तो गाय ले लूँगा । थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूंगा । अस्सी रुपये की है; मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे ।
गोबर ने आड़े हाथों लिया- तुम्हारा यही धर्मात्मापन तो तुम्हारी दुर्गत कर रहा है । साफ-साफ तो बात है- अस्सी रुपये की गाय है, हमसे बीस रुपये का भूसा ले लें और गाय हमें दे दें । साठ रुपये रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे ।
होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया- मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंतमेंत में हाथ आ जाय । कही भोला की सगाई ठीक करनी है, बस! दो-चार मन भूसा तो खाली अपना रंग जमाने को देता हूँ ।
गोबर ने तिरस्कार किया तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते फिरोगे? धनिया ने तीखी आंखों से देखा- अब यही एक उद्यम तो रह गया है । नहीं देना है हमें भूसा किसी को । यहाँ भोला-भोली किसी का करज नहीं खाया है ।
होरी ने अपनी सफाई दी- अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय, तो इसमें कौन-सी बुराई है?
गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया । उसे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता था ।
धनिया ने सिर हिला कर कहा- जो उनका घर बसायेगा, वह अस्सी रुपये की गाय लेकर चुप न होगा । एक थैली गिनवायेगा ।
होरी ने पुचारा दिया- यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो । मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता हैं-ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीकेदार है… ।
धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी । मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव से बोली- मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें ।
होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा- मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है; लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहीं, लक्ष्मी है । बात यह है कि उसकी घरवाली जुबान की बड़ी तेज थी । बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था । कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ जरूर हाथ लगता है। मैंने कहा- तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती ।
‘तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूँ ।’
‘लगा अपनी घरवाली की बुराई करने-भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाडू लेकर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरी के घर से माँग लाती थी!’
‘मरने पर किसी की क्या बुराई करूँ । मुझे देखकर जल उठती थी ।
‘भोला बड़ा गमखोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया । दूसरा होता तो जहर खाके मर जाता । मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला; पर राम-राम पहले ही करते हैं ।’
‘तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ, तो क्या होता है?’
‘उस दिन भगवान कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं ।’
‘बहुएं भी तो वैसी ही चटोरिन आयी हैं । अबकी सबों ने दो रुपये के खरबूजे उधार खा डाले । उधार मिल जाय, फिर उन्हें चिन्ता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।’
‘अरे भोला रोते काहे को हैं?’
गोबर आकर बोला- भोला दादा आ पहुँचे । मन-दो मन भूसा है, वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूँढने निकलो ।
धनिया ने समझाया- आदमी द्वार पर बैठा है, उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने । कुछ तो भलमनसी सीखो । कलसा ले जाओ, पानी भरकर रख दो, हाथ-मुँह धोयें, कुछ रसपानी पिला दो । मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है ।
होरी बोला- रस-वस का काम नहीं है, कौन कोई पाहुने हैं।
धनिया बिगड़ी- पाहुने और कैसे होते हैं! रोज-रोज तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते? इतनी दूर से धूप-घाम में आये हैं, प्यास लगी ही होगी । रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी । दौड़कर एक पैसे का तमाखू सहुआइन की दूकान से ले ले ।
भोला की आज जितनी खातिर हुई और कभी न हुई होगी । गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लायी । रूपा तमाखू भर लायी । धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी ।
भोला ने चिलम हाथ में लेकर कहा- अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ लो लक्ष्मी आ गयी । वह जानती है- छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए ।
धनिया के हृदय में उल्लास का कम्पन हो रहा था । चिन्ता, निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल, शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी । होरी जब भोला का खाँचा उठाकर भूसा लाने अन्दर चला, तो धनिया भी पीछे-पीछे चली । होरी ने कहा- जाने कही से इतना बड़ा खाँचा मिल गया । किसी भड़भूँजे से माँग लिया होगा । मन-भर से कम में न भरेगा । दो खाँचे भी दिये, तो दो मन निकल जायेंगे ।
धनिया फूली हुई थी । मलामत की आँखों से देखती हुई बोली- या तो किसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट खिलाओ । तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आये हैं कि चँगेरी लेकर चलते । देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो । भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाया । अकेले कहाँ तक ढोयेगा । जान निकल जायेगी ।
‘तीन खाँचे तो मेरे दिये न दिये जायँगे?’
‘तब क्या एक खाँचा देकर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खाँचा भरकर उनके साथ चला जाय ।’
‘गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है ।’
‘एक दिन न गोड़ने से ऊख न सूख जायेगी ।’
‘यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते । भगवान के दिये दो-दो बेटे हैं ।
‘न होंगे घर पर । दूध लेकर बाजार गये होंगे ।’
‘यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो । लाद दे, लदा दे, लादने वाला साथ कर दे ।’
‘अच्छा भाई, कोई मत जाय । मैं पहुँचा दूँगी । बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं
‘और तीन खाँचे उन्हें दे दूँ, तो अपने बैल क्या खायेंगे?’
‘यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था । न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ ।’
‘मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठाकर नहीं दे दिया जाता!’
‘अभी जमींदार का प्यादा आ जाये, तो अपने सिर पर भूसा लादकर पहुँचाओगे तुम, तुम्हारा लड़का, लड़की सब । और वहाँ साइत मन-दो मन लकड़ी भी फाड़नी पड़े ।
‘जमींदार की बात और है’ ।
‘हाँ, वह डंडे के जोर से काम लेता है न ।’
‘उसके खेत नहीं जोतते?’
‘खेत जोतते हैं, तो लगान नहीं देते?’
‘अच्छा भाई, जान न खा, हम दोनों चले जायँगे । कहाँ-से मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया । या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी ।’
तीनों खाँचे भूसे से भर दिये गये । गोबर कुढ़ रहा था । उसे अपने बाप के व्यवहारों में जरा भी विश्वास न था । वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते हैं । धनिया प्रसन्न थी । रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था ।
होरी और गोबर मिलकर एक खाँचा बाहर लाये । भोला ने तुरन्त अपने अंगोछे का बीड़ा बनाकर सिर पर रखते हुए कहा- मैं इसे रखकर -अभी भागा आता हूँ । एक खाँचा और लूंगा ।
होरी बोला- एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं । और तुम्हें न आना पड़ेगा, मैं और गोबर एक-एक खाँचा लेकर तुम्हारे साथ ही चलते हैं ।
भोला स्तम्भित हो गया । होरी उसे अपना भाई बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा । उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानो उसके सम्पूर्ण जीवन को हरा कर दिया ।
तीनों भूसा लेकर चले, तो राह में बातें होने लगी ।
भोला ने पूछा- दशहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?
‘हाँ, तम्बू सामियाना गड़ गया है । अब की लीला में मैं भी काम करूँगा । राय साहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा ।’
‘मालिक तुमसे बहुत खुश हैं ।’
‘उनकी दया है ।’
एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा- सगुन करने के लिए रुपये का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा ।
होरी ने मुँह का पसीना पोंछकर कहा- उसी की चिन्ता तो मारे डालती है दादा! अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया । जमींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया’ । मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा । यह भूसा तो मैंने रातों-रात ढोकर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता । जमींदार तो एक ही है! मगर महाजन तीन-तीन हैं, सहुआइन अलग, मंगरू अलग और दातादीन पण्डित अलग । किसी का ब्याज भी पूरा न चुका । जमींदार के भी आधे रुपये बाकी पड़ गये । सहुआइन से फिर रुपये उधार लिये तो काम चला । सब तरह किफायत कर के देख लिया भैया, कुछ नहीं होता । हमारा जन्म इसीलिए हुआ है कि अपना रक्त बहायें और बड़ों का घर भरें । मूल का दुगना सूद भर चुका; पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सदी-गर्मी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँधकर खरच करो । मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता । राय साहब ने बेटे के ब्याह में बीस हजार लुटा दिये । उनसे कोई कुछ नहीं कहता । मँगरू ने अपने बाप के क्रिया-करम में पाँच हजार लगाये । उनसे कोई कुछ नहीं पूछता । वैसी ही मरजाद तो सबकी है ।
भोला ने करुण भाव से कहा- बड़े आदमियों की बराबरी दम कैसे कर सकते हो भाई?
‘आदमी तो हम भी हैं ।’
‘कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं । हममें आदमियत कहीं? आदमी वह है, जिसके पास धन है, अख्तियार है, इलम है, हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं । उस पर एक-दूसरे को देख नहीं सकता । एक का नाम नहीं । एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई इजाफा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया ।’
बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता । दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे । भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये । गोबर ने बनिये से लोटा माँगा और पानी खींचने लगा ।
भोला ने सहृदयता से पूछा- अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा । भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था ।
होरी आर्द्र कण्ठ से बोला- कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जा के डूब मरूँ । मेरे जीते-जी सब कुछ हो गया । जिनके पीछे अपनी जवानी धूल में मिला दी वही मेरे मुद्दई हो गये और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हाट में काम करने क्यों नहीं जाती । पूछो, घर देखने वाला भी कोई चाहिए कि नहीं । लेना-देना, धरना-उठाना, संभालना-सहेजना, यह कौन करे । फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाडू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल- यह कोई थोड़ा काम है । सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है । नहीं, सबको दिन में चार बार भूख लगती थी । अब खायें चार दफे, तो देखूँ । इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गति हुई है, वह मैं ही जानता हूँ । बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी, खुद भूखी सो रही होगी लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी । अपनी देह पर गहने के नाम पर कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो, चार-चार गहने बनवा दिये । सोने के न, चाँदी के तो हैं । जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है । बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये । मेरे सिर से बला टली ।
भोला ने एक लोटा पानी चढ़ाकर कहा- यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसीलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देखकर मुँह नहीं बन्द कर सकता । तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आये किसके घर से? खरचा करना चाहते हो तो कमाओ, मगर कमाई तो किसी से न होगी । खरच दिल खोलकर करेंगे । जेठा कामता सौदा लेकर बाजार जायेगा, तो आधे पैसे गायब । पूछो तो कोई जवाब नहीं । छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता है । साँझ हुई और ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये । संगत को मैं बुरा नहीं कहता । गाना-बजाना ऐब नहीं, लेकिन यह सब काम फुरसत के हैं । यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो, आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो । जाती है मेरे सिर, सानी-पानी मैं करूँ, गाय-भैंस मैं दुहूँ, दूध लेकर बाजार मैं जाऊँ । यह गृहस्थी जी का जंजाल है, सोने की हँसिया, जिसे न उगलते बनता है, न निगलते । लड़की है, झुनिया, वह भी नसीब की खोटी । तुम तो उसकी सगाई में आये थे । कितना अच्छा घरबार था । उसका आदमी बम्बई में दूध की दुकान करता था । उन दिनों वहाँ हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छुरा भोंक दिया । घर ही चौपट हो गया । वहाँ अब उसका निबाह नहीं, जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूंगा, मगर वह राजी ही नहीं होती । और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती हैं । घर में महाभारत मचा रहता है । विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं ।
इन्हीं दुःखड़ों में रास्ता कट गया । भोला का पुरवा था तो छोटा, मगर बहुत गुलजार । अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी । भोला गांव का मुखिया था । द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी जिस पर दस-बारह गाय-भैंसें खड़ी सानी खा रही थी । ओसारे में एक बड़ा-सा तख्त पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता । किसी खूंटी पर ढोलक लटक रही थी, किसी पर मंजीरा । एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो । दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी । उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुर्खी थी । मालूम होता था, अभी सोकर उठी है । उसके मांसल स्वास्थ्य, सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था । मुँह बड़ा और गोल था, कपोल फूले हुए, आंखें छोटी और भीतर धँसी हुई, माथ पतला; पर वक्ष का उभार और गाल का वही गुदगुदापन आंखों को खींचता था । उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी । भोला को देखते ही उसने लपककर उनके सिर से खाँचा उतरवाया ।
भोला ने गोबर और होरी के खाँचे उतरवाये और झुनिया से बोले- पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले । पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ । होरी महतो को पहचानती है न?
फिर होरी से बोला- घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया । पुरानी कहावत है- ‘नाटन खेती बहुरियन घर’ । नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर संभालेंगी । जब से इसकी माँ मरी है, जैसे घर की बरकत ही उठ गयी । बहुएं आटा पाथ लेती हैं । पर गृहस्थी चलाना क्या जानें । हाँ, मुँह चलाना खूब जानती हैं । लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे । सब-के-सब आलसी हैं, कामचोर । जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ । मर जाऊँगा, तो आप सिर पर हाथ धरकर रायेंगे । लड़की भी वैसी ही है । छोटा-सा अलीना भी करेगी, तो भुनभुनाकर । मैं तो सह लेता हूँ, खसम थोड़े ही सहेगा ।
झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में लोटे का रस लिये बड़ी फुर्ती से आ पहुँची । फिर रस्सी और कलसा लेकर पानी भरने चली । गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ाकर झेंपते हुए कहा- तुम रहने दो, मैं भरे लाता हूं।
झुनिया ने कलसा न दिया । कुएँ से जगत पर जाकर मुस्कुराती हुई बोली- तुम हमारे मेहमान हो, कहोगे एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया ।
‘मेहमान काहे से हो गया । तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ ।’
‘पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाये, तो मेहमान ही है ।’
‘रोज-रोज आने से मरजाद भी तो नहीं रहती ।’
झुनिया हँसकर तिरछी नजरों से देखती हुई बोली- वही मरजाद तो दे रही हूँ! महीने में एक बार आओगे, ठण्डा पानी दूँगी । पन्द्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे । सातवें दिन आओगे, खाली बैठने को माची दूँगी । रोज-रोज आओगे, कुछ न पाओगे ।
‘दरसन तो दोगी?’
‘दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी ।’
यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी । उसका मुँह उदास हो गया । वह विधवा है । उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था । वह निश्चिंत थी । अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बन्द रखती है । कभी-कभी घर के सूनेपन से उकता कर वह द्वार खोलती है, पर किसी को आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट भेड़ लेती है । गोबर ने कलसा भरकर निकाला । सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पीकर लौटे । भोला ने कहा- कल तुम आकर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा रही है ।
गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थीं और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था । गाय इतनी सुन्दर और सुडौल है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी । होरी ने लोभ को रोककर कहा- मँगवा लूँगा, जल्दी क्या है?
‘तुम्हें जल्दी न हो, हमें तो जल्दी है । उसे द्वार पर देखकर तुम्हें वह बात याद रहेगी ।’
‘उसकी मुझे बड़ी फिकर है दादा!’
‘तो कल गोबर को भेज देना ।’
दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बड़े । दोनों इतने प्रसन्न थे मानो ब्याह करके लौटे हों । होरी को तो अपनी चिर संचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष था और बिना पैसे के । गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गयी थी । उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी ।
अवसर पाकर उसने पीछे की तरफ देखा । झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मत्त आशा की भाँति अधीर चंचल ।

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