भाग-21 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-21 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

भाग-21 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-21 - godan - munshi premchand

गोदान – भाग-21

देहातों में साल के छः महीने किसी-न-किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है । होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है; आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियाँ होती हैं । कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है । सेमरी भी अपवाद नहीं है । महाजन की धमकियाँ और कारिन्दे की बोलियाँ इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकती । घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं, गाँठ में पैसे नहीं हैं, कोई परवाह नहीं । जीवन की आनन्दवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकती, हँसे बिना तो जिया नहीं जा सकता! यों होली में गाने-बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी । वहीं भंग बनती थी, वहीं रग उड़ता था, वहीं नाच होता था । इस उत्सव में कारिन्दा साहब के दस-पाँच रुपये खर्च हो जाते थे । और किसमें यह सामर्थ्य थी कि अपने द्वार पर जलसा कराता? लेकिन अबकी गोबर ने गांव के सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल खाली पड़ी हुई है । गोबर के द्वार पर भंग घुट रही है पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फर्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है । भंग रखी हुई है, पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजूद है; पर गाये कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है । यहाँ भंग में गुलाब-जल और केसर और बादाम की बहार है । हाँ-हाँ सेर-भर बादाम गोबर खुद लाया । पीते ही चोला तर हो जाता है, आंखें खुल जाती हैं । खमीरा तमाखू लाया है, खास बिसवाँ की! रंग में भी केवड़ा छोड़ा है । रुपये कमाना भी जानता है, और खरच करना भी जानता है । गाड़कर रख लो तो कौन देखता है? धन की यही शोभा है । और केवल भंग ही नहीं है । जितने गाने वाले हैं सबका नेवता भी है । और गाँव में न नाचने वालों की कमी है; न गाने वालों की न अभिनय करने वालों की । शोभा ही लँगड़ों की ऐसी नकुल करता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नकुल करने में तो उसका सानी नहीं है । जिसकी बोली कहो उसकी बोले-आदमी की भी, जानवर की भी । गिरधर नकुल करने में बेजोड़ है । वकील की नक़ल वह करे, पटवारी की नकुल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की-सभी की नक़ल कर सकता है । हां, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है; मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मंगा दिया है, और उसकी नक़लें देखने जोग होंगी । यह चर्चा इतनी फैली कि साँझ से ही तमाशा देखने वाले जमा होने लगे । आस-पास के गाँवों से दर्शकों की टोलियाँ आने लगीं । दस बजते-बजते तीन-चार हजार आदमी जमा हो गये । और जब गिरधर झिगुरीसिंह का रूप धरे अपनी मण्डली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी । वही खल्वाट सिर, वही मूँछें, और वही तोंद! बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं । ठाकुर-ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देखकर कहते हैं-अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान भी देख ले, तो तड़प जाये । और ठकुराइन फूलकर कहती हैं, जभी तो नयी नवेली लाये । ‘उसे तो लाया हूँ तुम्हारी सेवा करने के लिए । वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगी?’ छोटी बीबी यह वाक्य सुन लेती है और मुँह फुलाकर चली जाती है । दूसरे दृश्य में ठाकुर खाट पर लेटे हैं और छोटी बहू मुँह फेरे हुए जमीन पर बैठी हैं । ठाकुर बार-बार उसका मुँह अपनी ओर फेरने की विफल चेष्टा करके कहते हैं-मुझसे क्यों रूठी हो मेरी लाड़ली? तुम्हारी लाड़ली जहाँ हो, वहाँ जाओ । मैं तो लौंडी हूँ, दूसरों की सेवा-टहल करने के लिए आयी हूँ । तुम मेरी रानी हो । तुम्हारी सेवा-टहल करने के लिए वह बुढ़िया है । पहली ठकुराइन सुन लेती हैं और झाड़ू लेकर घर में घुसती हैं और कई झाड़ू उन पर जमाती हैं । ठाकुर साहब जान बचाकर भागते हैं । फिर दूसरी नकल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपये का दस्तावेज लिखकर पाँच रूपये दिये, शेष नज़राने और तहरीर और दस्तुरी और ब्याज में काट लिये । किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है । बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपये देने पर राजी होते हैं । जब कागज लिख जाता है और असामी के हाथ पाँच रुपये रख दिये जाते हैं, तो वह चकराकर पूछता है यह तो पाँच ही हैं मालिक! पाँच नहीं, दस हैं । घर जाकर गिनना । नहीं सरकार, पाँच हैं! एक रुपया नज़राने का हुआ कि नहीं? हां, सरकार! एक तहरीर का? हां, सरकार! एक कागद का? हां, सरकार! एक दस्तुरी का? हां, सरकार! एक सूद का? हां, सरकार! पाँच नगद, दस हुए कि नहीं? हाँ, सरकार! अब यह पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजिए । कैसा पागल है? नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नज़राना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का । एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को । बाकी बचा एक, वह आपकी क्रिया-करम के लिए । इसी तरह नोखेराम और पटेश्वरी और दातादीन की बारी-बारी से सबकी ख़बर ली गयी और फ़ब्तियों में चाहे कोई नयापन न हो और नकलें पुरानी हों; लेकिन गिरधारी का ढंग ऐसा हास्यजनक था, दर्शक इतने सरल हृदय थे कि बेबात की बात में भी हँसते थे । रात-भर -खेती होती रही और सताये हुए दिल, कल्पना में प्रतिशोध पाकर प्रसन्न होते रहे । आखिरी नकल समाप्त हुई, तो कौवे बोल रहे थे । सबेरा होते ही जिसे देखो, उसी की जुबान पर वही रात के गाने, वही नकल, वही फिकरे । मुखिये तमाशा बन गये । जिधर निकलते हैं, उधर ही दो-चार लड़के पीछे लग जाते हैं और वही फिकरे कसते हैं । झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज आदमी थे, इसे दिल्लगी में लिया; मगर पटेश्वरी में चिढ़ने की बुरी आदत थी । और पंडित दातादीन तो इतने तुनुक-मिज़ाज थे कि लड़ने पर तैयार हो जाते थे । वह सबसे सम्मान पाने के आदी थे । कारिन्दा की तो बात ही क्या, राय साहब तक उन्हें देखते ही सिर झुका देते थे । उनकी ऐसी हँसी उड़ाई जाये और अपने ही गाँव में-यह उनके लिये असह्य था । अगर उनमें ब्रह्म तेज होता तो इन दुष्टों को भस्म कर देते । ऐसा शाप देते कि सब-के-सब भरम हो जाते; लेकिन इस कलियुग में शाप का असर ही जाता रहा । इसलिए उन्होंने कलियुगवाला हथियार निकाला । होरी के द्वार पर आये और आंखें निकालकर बोले-क्या आज भी तुम काम करने न चलोगे होरी? अब तो तुम अच्छे हो गये । मेरा कितना हरज हो गया, यह तुम नहीं सोचते । गोबर देर में सोया था और आँखें मलता हुआ बाहर आ रहा था कि दातादीन की आवाज कान में पड़ी । पालागन करना तो दूर रहा, उल्टे और हेकड़ी दिखाकर बोला-अब वह तुम्हारी मजूरी न करेंगे । हमें अपनी ऊख जो बोनी है । दातादीन ने सुरती फाँकते हुए कहा-काम कैसे नहीं करेंगे? साल के बीच में काम नहीं छोड़ सकते । जेठ में छोड़ना हो छोड़ दें, करना ही पड़ेगा । उसके पहले नहीं छोड़ सकते । गोबर ने जम्हाई लेकर कहा-उन्होंने तुम्हारी गुलामी नहीं लिखी है । जब तक इच्छा थी, काम किया । अब नहीं इच्छा है, नहीं करेंगे । इसमें कोई जबरदस्ती नहीं कर सकता । तो होरी काम नहीं करेंगे? ना! तो हमारे रुपये सूद समेत दे दो । तीन पराल का सूद होता है सौ रुपया । अराल मिलाकर दो सौ होते हैं । हमने समझा था, तीन रुपये महीने सूद में कटते जायँगे; लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत करो । मेरे रुपये दे दो । धन्ना सेठ बनते हो तो धन्ना सेठ का काम करो । होरी ने दातादीन से कहा-तुम्हारी चाकरी से मैं कब इनकार करता हूँ महाराज? लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है । गोबर ने बाप को डाँटा-कैसी चाकरी और किसकी चाकरी? यहाँ कोई किसी का चाकर नहीं । सभी बराबर हैं । अच्छी दिल्लगी है । किसी को सौ रुपये उधार दे दिये और उससे सूद में जिन्दगी भर काम लेते रहे । मूल ज्यों-का-त्यों! यह महाजनी नहीं है, खून चूसना है । तो रुपये दे दो भैया, लड़ाई काहे की । मैं आने रुपये ब्याज लेता हूँ । तुम्हें गाँव-घर का समझकर आध आने रुपये पर दिया था । हम तो एक रुपया सैकड़ा देंगे । एक कौड़ी बेसी नहीं । तुम्हें लेना हो तो लो, नहीं अदालत से लेना । एक रुपया सैकड़े ब्याज कम नहीं होता । मालूम होता है, रुपये की गर्मी हो गयी है । गर्मी उन्हें होती है, जो एक के दस लेते हैं । हम तो मजूर हैं । हमारी गमी पसीने के रास्ते बह जाती है । मुझे याद है, तुमने बैल के लिए तीस रुपये दिये थे । उसके सौ हुए । और अब सौ के दो सौ हो गये । इसी तरह लोगों ने किसानों को लूट-लूटकर मजूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे । तीस के दो सौ! कुछ हद है । कितने दिन हुए होंगे दादा । होरी ने कातर कंठ से कहा-यही आठ-नौ साल हुए होंगे । गोबर ने छाती पर हाथ रखकर कहा-नौ साल में तीस रुपये के दो सौ! एक रुपये के हिसाब से कितना होता है? उसने जमीन पर एक ठीकरे से हिसाब लगाकर कहा-दस साल में छतीस रुपये होते हैं । असल मिलाकर छाछठ । उसके सत्तर रुपये ले लो । इससे बेसी मैं एक कौड़ी न दूंगा । दातादीन ने होरी को बीच में डालकर कहा-सुनते हो होरी, गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपये ले लूँ, नहीं अदालत करूँ । इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन रहे हो; मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूँ, मेरे रुपये हजम करके तुम चैन न पाओगे । मैंने ये सत्तर रुपये भी छोड़े, अदालत भी न जाऊँगा, जाओ । अगर मैं ब्राह्मण हूँ, तो अपने पूरे दो सौ रुपये लेकर दिखा दूँगा! और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और हाथ बाँधकर दोगे । दातादीन झल्लाये हुए लौट पड़े । गोबर अपनी जगह बैठा रहा । मगर होरी के पेट में धर्म की क्रान्ति मची हुई थी । अगर ठाकुर या बनिये के रुपये होते, तो उसे ज्यादा चिन्ता न होती; लेकिन ब्राह्मण के रुपये! उसकी एक पाई भी दब गयी, तो हड्डी तोड़कर निकलेगी । भगवान न करें कि ब्राह्मण का कोप किसी पर गिरे । वंश में कोई चिन्न-भर पानी देने वाला, घर में दिया जलाने वाला भी नहीं रहता । उसका धर्मभीरु मन त्रस्त हो उठा! उसने दौड़कर पण्डितजी के चरण पकड़ लिये और आर्त स्वर में बोला-महाराज, जब तक मैं जीता हूँ, तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा । लड़कों की बातों पर मत जाओ । मामला तो हमारे तुम्हारे बीच में हुआ है । वह कौन होता है? दातादीन ज़रा नरम पड़े-ज़रा इसकी जबरदस्ती देखो, कहता है दो सौ रुपये के सत्तर लो या अदालत जाओ । अभी अदालत की हवा नहीं खायी है; जभी । एक बार किसी के पाले पड़ जायेंगे, तो फिर यह ताव न रहेगा । चार दिन सहर में क्या रहे, तानासाह हो गये । मैं तो कहता हूँ महाराज, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा । तो कल से हमारे यहाँ काम करने आना पड़ेगा । अपनी ऊख बोना है महाराज, नहीं तुम्हारा ही काम करता । दातादीन चले गये तो गोबर ने तिरस्कार की खो से देखकर कहा-गये थे देवता को मनाने! तुम्हीं लोगों ने तो इन सबों का मिज़ाज बिगाड़ दिया है । तीस रुपये दिये, अब दो सौ रुपये लेगा, और डाँट ऊपर से बतायेगा और तुमसे मजूरी करायेगा और काम कराते-कराते मार डालेगा! होरी ने अपने विचार में सत्य का पक्ष लेकर कहा-नीति हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटा, अपनी-अपनी करनी अपने साथ है । हमने जिस ब्याज पर रुपये लिए, वह तो देने ही पड़ेंगे । फिर ब्राह्मण ठहरे । इनका पैसा हमें पचेगा? ऐसा माल तो इन्हीं लोगों को पचता है । गोबर ने त्योरियाँ चढ़ाई-नीति छोड़ने को कौन कह रहा है । और कौन कह रहा कि ब्राह्मण का पैसा दबा लो? मैं तो यही कहता हूँ कि इतना सूद नहीं देंगे । बंकवाले बारह आने सूद लेते हैं । तुम एक रुपये ले लो । और क्या किसी को लूट लोगे? उनका रोयाँ जो दुःखी होगा? हुआ करे । उनके दुःखी होने के डर से हम बिल क्यों खोदें? बेटा, जब तक मैं जीता हूँ, मुझे अपने रास्ते चलने दो । जब मैं मर जाऊँ, तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह करना । तो फिर तुम्हीं देना । मैं तो अपने हाथों अपने पाँव में कुल्हाड़ी न मारूँगा । मेरा गधापन था कि तुम्हारे बीच में बोला-तुमने खाया है, तुम भरो, मैं क्यों अपनी जान दूँ । यह कहता हुआ गोबर भीतर चला गया । झुनिया ने पूछा-आज सबेरे-सबेरे दादा से क्यों उलझ पड़े? गोबर ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया और अन्त में बोला-इनके ऊपर रिन का बोझ इसी तरह बढ़ता जायेगा । मैं कही तक भरूंगा? उन्होंने कमा-कमाकर दूसरों का घर भरा है । मैं क्यों उनकी खोदी हुई खंदक में गिरूँ? इन्होंने मुझसे पूछकर करज नहीं लिया । न मेरे लिए लिया । मैं उसका देनदार नहीं हूँ । उधर मुखियों में गोबर को नीचा दिखाने के लिए षड्यन्त्र रचा जा रहा था । यह लौंडा शिकंजे में न कसा गया, तो गांव में ऊधम मचा देगा । प्यादे से फर्जी हो गया है न, टेढ़े तो चलेगा ही । जाने कहां से इतना कानून सीख आया है? कहता है रुपये सैकड़े रख से बेसी न दूँगा । लेना हो तो लो, नहीं अदालत जाओ । रात इसने सारे गाँव के लौंडों को बटोरकर कितना अनर्थ किया । लेकिन मुखियों में भी ईर्ष्या की कमी न थी । सभी अपने बराबर वालों के परिहास पर प्रसन्न थे । पटेश्वरी और नोखेराम में बातें हो रही थी । पटेश्वरी ने कहा-मगर सबों को घर-घर की रत्ती-रत्ती का हाल मालूम है । झिंगुरीसिंह को तो सबों ने ऐसा रगेदा कि कुछ न पूछो । दोनों ठकुराइनों की बातें सुन-सुनकर लोग हँसी के मारे लोट गये । नोखेराम ने ठट्ठा मारकर कहा-मगर नकुल सच्ची थी । मैंने कई बार उनकी छोटी बेगम को द्वार पर खड़े लौंडों से हंसी करते देखा । और बड़ी रानी काजल और सेंदुर और महावर लगाकर जवान बनी रहती हैं । दोनों में रात-दिन छिड़ी रहती है । झिंगुरी पक्का बेहया है । कोई दूसरा होता तो पागल हो जाता । सुना, तुम्हारी बड़ी भद्दी नकुल की । चमरिया के घर में बन्द कराके पिटवाया । मैं तो बचा पर बकाया लगान का दावा करके ठीक कर दूँगा । वह भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था । लगान तो उसने चुका दिया है न? लेकिन रसीद तो मैंने नहीं दी । सबूत क्या है कि लगान चुका दिया? और यही कौन हिसाब-किताब देखता है? आज ही प्यादा भेजकर बुलाता हूँ । होरी और गोबर दोनों ऊख बोने के लिए खेत सींच रहे थे । अबकी ऊख की खेती होने की आशा तो थी नहीं, इसलिए खेत परती पड़ा हुआ था । अब बैल आ गये हैं, तो ऊख क्यों न बोई जाय! मगर दोनों जैसे छत्तीस बने हुए थे । न बोलते थे, न ताकते थे । होरी बैलों को हक रहा था और गोबर मोट ले जा रहा था । सोना और रूपा दोनों खेत में पानी दौड़ा रही थी कि उनमें झगड़ा हो गया । विवाद का विषय यह था कि झिंगुरीसिंह की छोटी ठकुराइन पहले खुद खाकर पति को खिलाती हैं या पति को खिलाकर तब खुद खाती हैं । सोना कहती थी, पहले वह खुद खाती हैं । रूपा का मत इसके प्रतिकूल था । रूपा ने जिरह कीं-अगर वह पहले खाती है, क्यों मोटी नहीं है? ठाकुर क्यों मोटे हैं? अगर ठाकुर उन पर गिर पड़े, तो ठकुराइन पिस जायँ । सोना ने प्रतिवाद किया-तू समझती है, अच्छा खाने से लोग मोटे हो जाते हैं । अच्छा खाने से लोग बलवान् होते हैं, मोटे नहीं होते । मोटे होते हैं घास-पात खाने से। तो ठकुराइन ठाकुर से बलवान हैं? और क्या । अभी उस दिन दोनों में लड़ाई हुई, तो ठकुराइन ने ठाकुर को ऐसा ढकेला कि उनके घुटने फूट गये ।
‘तो तू भी पहले आप खाकर तब जीजा को खिलायेगी? और क्या । अम्मा तो पहले दादा को खिलाती हैं । तभी तो जब देखो तब दादा डाँट देते हैं । मैं बलवान होकर अपने मरद को काबू में रखूँगी । तेरा मरद तुझे पीटेगा, तेरी हड्डी तोड़कर रख देगा । रूपा रुआँसी होकर बोली-क्यों पीटेगा, मैं मार खाने का काम ही न करूँगी । वह कुछ न सुनेगा । तूने ज़रा भी कुछ कहा और वह मार चलेगा । मारते-मारते तेरी खाल उधेड़ लेगा । रूपा ने बिगड़कर सोना की साड़ी दांतों से फाड़ने की चेष्टा की और असफल होने पर चुटकियाँ काटने लगी । सोना ने और चिढ़ाया-वह तेरी नाक भी काट लेगा ।
इस पर रूपा ने बहन को दांत से काट खाया । सोना की बाँह नहुआ गयी । उसने रूपा को जोर से ढकेल दिया । वह गिर पड़ी और उठकर रोने लगी । सोना भी दाँतों के निशान देखकर रो पड़ी । उन दोनों का चिल्लाना सुनकर गोबर गुस्से में भरा हुआ आया और दोनों को दो-दो घूँसे जड़ दिये । दोनों रोती हुई खेत से निकलकर घर चल दी । सिंचाई का काम रुक गया । इस पर पिता-पुत्र में एक झड़प हो गयी । होरी ने पूछा-पानी कौन चलाएगा? दौड़े-दौड़े गये, दोनों को भगा आये । अब जाकर मना क्यों नहीं लाते? तुम्हीं ने इन सबों को बिगाड़ रखा है । इस तरह मारने से और भी निर्लज्ज हो जायेंगी । दो जून खाना बन्द कर दो, आप ठीक हो जाये । मैं उनका बाप हूँ, कसाई नहीं हूँ । पाँच में एक बार ठोकर लग जाने के बाद किसी कारण से बार-बार ठोकर लगती है और कभी-कभी अँगूठा पक जाता है और महीनों कष्ट देता है । पिता और पुत्र के सद्भाव को आज उसी तरह की चोट लग गयी थी और उस पर यह तीसरी चोट पड़ी । गोबर ने घर आकर झुनिया को खेत में पानी देने के लिए साथ लिया । झुनिया बच्चे को लेकर खेत में गयी । धनिया और उसकी दोनों बेटियाँ ताकती रही । माँ को भी गोबर की यह उद्दण्डता बुरी लगती थी । रूपा को मारता तो वह बुरा न मानती, मगर जवान लड़की को मारना यह उसके लिए असल था । आज ही रात को गोबर ने लखनऊ लौट जाने का निश्चय कर लिया । यहाँ अब वह नहीं रह सकता । जब घर में उसकी कोई पूछ नहीं है, तो वह क्यों रहे । वह लेन-देन के मामले में बोल नहीं सकता । लड़कियों को ज़रा मार दिया तो लोग ऐसे जामे के बाहर हो गये, मानो वह बाहर का आदमी है । तो इस सराय में वह न रहेगा । दोनों भोजन करके बाहर आये थे कि नोखेराम के प्यादे ने आकर कहा-चलो कारिन्दा साहब ने बुलाया है । होरी ने गर्व से कहा-रात को क्यों बुलाते हैं; मैं तो बाकी दे चुका हूँ ।
प्यादा बोला-मुझे तो तुम्हें बुलाने का हुक्म मिला है । जो कुछ अरज करना हो वहीं चलकर करना ।
होरी की इच्छा न थी, मगर जाना पड़ा; गोबर विरक्त-सा बैठा रहा । आध घण्टे में होरी लौटा और चिलम भर कर पीने लगा । अब गोबर से न रहा गया । पूछा-किस मतलब से बुलाया था? होरी ने भर्राई हुई आवाज में कहा-मैंने पाई-पाई लगान चुका दिया । वह कहते हैं, तुम्हारे ऊपर दो साल की बाकी है । अभी उस दिन मैंने ऊख बेची, पचीस रुपए यहाँ उनको दे दिये और आज वह दो साल का बाकी निकालते हैं । मैंने कह दिया, मैं एक धेला न दूंगा । गोबर ने पूछा-तुम्हारे पास रसीद तो होगी? रसीद कहाँ देते हैं? तो तुम बिना रसीद लिए रुपये देते ही क्यों हो? मैं क्या जानता था, वह लोग बेईमानी करेंगे । वह सब तुम्हारी करनी का फल है । तुमने रात को उनकी हंसी उड़ाई, यह उसी का दण्ड है । पानी में रह कर मगर से बैर नहीं किया जाता । सूद लगाकर सत्तर रुपये बाकी निकाल दिये । ये किसके घर से आयेंगे? गोबर ने अपनी सफाई देते हुए कहा-तुमने रसीद ले ली होती तो मैं लाख उनकी हँसी उड़ाता, तुम्हारा बाल भी बाँका न कर सकते । मेरी समझ में नहीं आता कि लेन-देन में तुम सावधानी से क्यों काम नहीं लेते । यों रसीद नहीं देते, तो डाक से रुपया भेजो । यही तो होगा, एकाध रुपया महसूल पड़ जायगा । इस तरह की धाँधली तो न होगी ।
‘तुमने यह आग न लगाई होती, तो कुछ न होता । अब तो सभी मुखिया बिगड़े हुए हैं । बेदखली की धमकी दे रहे हैं, दैव जाने कैसे बेड़ा पार लगेगा! मैं जाकर उनसे पूछता हूँ । तुम जाकर और आग लगा दोगे । अगर आग लगानी पड़ेगी, तो आग भी लगा दूँगा । वह बेदखली करते हैं, करें । मैं उनके हाथ में गंगाजली रखकर अदालत में कसम खिलाऊँगा । तुम दुम दबाकर बैठे रहो । मैं इसके पीछे जान लड़ा दूँगा । मैं किसी का एक पैसा दबाना नहीं चाहता, न अपना एक पैसा खोना चाहता हूँ । वह उसी वक़्त उठा और नोखेराम की चौपाल में जा पहुंचा । देखा तो सभी मुखिया लोगों की कैबिनेट बैठी हुई है । गोबर को देखकर सब-के-सब सतर्क हो गये । वातावरण में षड्यन्त्र की-सी कुण्ठा भरी हुई थी । गोबर ने उत्तेजित कण्ठ से पूछा-यह क्या बात है कारिन्दा साहब, कि आपको दादा ने हाल तक का लगान चुकता कर दिया और आप अभी दो साल की बाकी निकाल रहे हैं । यह कैसा गोलमाल है? नोखेराम ने मसनद पर लेटकर रोब दिखाते हुए कहा-जब तक होरी है, मैं तुमसे लेन-देन की कोई बातचीत नहीं करना चाहता । गोबर ने आहत स्वर में कहा-तो मैं घर में कुछ नहीं हूँ? तुम अपने घर में सब कुछ होगे । यहीं तुम कुछ नहीं हो । अच्छी बात है, आप बेदखली दायर कीजिए । मैं अदालत में तुमसे गंगाजली उठाकर रुपये दूंगा? इसी गाँव से एक सौ सहादतें दिलाकर साबित कर दूँगा कि तुम रसीद नहीं देते । सीधे-सीधे किसान हैं, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने समझ लिया कि सब काठ के उल्लू हैं । राय साहब वहीं रहते हैं, जहाँ मैं रहता हूँ । गाँव के सब लोग उन्हें हौवा समझते होंगे, मैं नहीं समझता । रत्ती-रत्ती हाल कहूँगा और देखूँगा तुम कैसे मुझ से दोबारा रुपये वसूल कर लेते हो । उसकी वाणी में सत्य का बल था । डरपोक प्राणियों में सत्य भी दूंगा हो जाता है । वही सीमेंट जो ईंट पर चढ़कर पत्थर हो जाता है, मिट्टी पर चढ़ा दिया जाये, तो मिट्टी हो जायगा । गोबर की निर्भीक स्पष्टवादिता ने उस अनीति के बख्तर को बेध डाला जिससे सज्जित होकर नोखेराम की दुर्बल आत्मा अपने को शक्तिमान समझ रही थी ।
नोखेराम ने जैसे कुछ याद करने का प्रयास करके कहा-तुम इतना गर्म क्यों हो रहे हो, इसमें गर्म होने की कौन बात है? अगर होरी ने रुपये दिए हैं, तो कहीं-न-कहीं तो टीके गये होंगे । मैं कल कागज निकालकर देखूँगा । अब मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है कि शायद होरी ने रुपये दिये थे । तुम निसाखातिर रहो; अगर रुपये यहाँ आ गये हैं, तो कहीं जा नहीं सकते । तुम थोड़े-से रुपये के लिए झूठ थोड़े ही बोलोगे और न मैं ही इन रुपयों से धनी हो जाऊँगा ।
गोबर ने चौपाल से आकर होरी को ऐसा लताड़ा कि बेचारा स्वार्थ भीरु बूढ़ा रुआँसा हो गया-तुम बच्चों से भी गये-बीते हो जो बिल्ली की म्याऊँ सुनकर चिल्ला उठते हैं । कहाँ-कही तुम्हारी रक्षा करता फिरूँगा । मैं तुम्हें सत्तर रूपये दिये जाता हूँ । दातादीन ले तो देकर भरपाई लिखा दो । इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी दिया तो फिर मुझसे एक पैसा न पाओगे । मैं परदेश में इसलिए नहीं पड़ा हूँ कि तुम अपने को लुटवाते रहो और मैं कमाकर भरता रहूँ, मैं कल चला जाऊँगा, लेकिन इतना कहे देता हूँ, किसी से एक पैसा उधार मत लेना और किसी को कुछ मत देना । मंगरू, दुलारी, दातादीन-सभी से एक रुपया सैकड़े सूद कराना होगा । धनिया भी खाना खाकर बाहर निकल आयी । बोली-अभी क्यों जाते हो बेटा, दो-चार दिन और रहकर ऊख की बोनी करा लो और कुछ लेन-देन का हिसाब भी ठीक कर लो, तो जाना । गोबर ने शान जमाते हुए कहा-मेरा दो-तीन रुपये रोज का घाटा हो रहा है, यह भी समझती हो! यहाँ मैं बहुत-बहुत् तो चार आने की मजूरी ही तो करता हूँ और अबकी मैं झुनिया को भी लेता जाऊँगा । वहाँ मुझे खाने-पीने की बड़ी तकलीफ होती ।
धनिया ने डरते-डरते कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा; लेकिन वहाँ कैसे अकेले घर सँभालेगी, कैसे बच्चे की देख-भाल करेगी? अब बच्चे को देखूँ कि अपना सुभीता देखूँ, मुझसे चूल्हा नहीं फूँका जाता । ले जाने को मैं नहीं रोकती, लेकिन परदेश में बाल-बच्चों के साथ रहना, न कोई आगे, न पीछे; सोचो कितना झंझट है ।’
‘परदेश में भी संगी-साथी निकल ही आते हैं अम्माँ, और यह तो स्वारथ का संसार है । जिसके साथ चार पैसे गम खाओ वही अपना । खाली हाथ तो माँ-बाप भी नहीं पूछते । धनिया कटाक्ष समझ गयी । उसके सिर से पाँव तक आग लग गयी । बोली-माँ-बाप को भी तुमने उन्हीं पैसे के यारों में समझ लिया? आंखो देख रहा हूँ । नहीं देख रहे हो; माँ-बाप का मन इतना निठुर नहीं होता । हाँ, लड़के अलबत्ता जहाँ चार पैसा कमाने लगे कि मां-बाप से आँखें फेर ली । इसी गाँव में एक-दो नहीं, दस-बीस परतोख दे दूँ । माँ-बाप करज-कवाम लेते हैं, किसके लिए? लड़के-लड़कियों ही के लिए कि अपने भोग-विलास के लिए । क्या जाने तुमने किसके लिए करज लिया? मैंने तो एक पैसा भी नहीं जाना । बिना पाले ही इतने बड़े हो गये? पालने में तुम्हारा लगा क्या? जब तक बच्चा था, दूध पिला दिया । फिर लावारिस की तरह छोड़ दिया । जो सबने खाया, वही मैंने खाया । मेरे लिए दूध नहीं आता था, मक्खन नहीं बँधा था । और तुम भी चाहती हो, और दादा भी चाहते हैं कि मैं सारा करजा चुकाऊँ, लगान दूँ, लड़कियों का ब्याह करूँ । जैसे मेरी जिन्दगी तुम्हारा देना भरने ही के लिए है । मेरे भी तो बाल-बच्चे हैं? धनिया सन्नाटे में आ गयी । एक ही क्षण में उसके जीवन का मृदु स्वप्न जैसे टूट गया । अब तक वह मन में प्रसन्न थी कि अब उसका दुःख-दरिद्र सब दूर हो गया । जब से गोबर घर आया उसके मुख पर हार की एक छटा खिली रहती थी । उसकी वाणी में मृदुता और व्यवहारों में उदारता आ गयी । भगवान ने उस पर दया की है, तो उसे सिर झुकाकर चलना चाहिए । भीतर की शान्ति बाहर सौजन्य बन गयी थी । ये शब्द तपते हुए बालू की तरह हृदय पर पड़े और चने की भाँति सारे अरमान झुलस गये । उनका सारा घमण्ड चूर-चूर हो गया । इतना सुन लेने के बाद अब जीवन में क्या रस रह गया । जिस नौका पर बैठकर इस जीवन-सागर को पार करना चाहती थी, वही टूट गयी, तो किस सुख के लिए जिये!
लेकिन नहीं! उसका गोबर इतना स्वार्थी नहीं है । उसने कभी माँ की बात का जवाब नहीं दिया, कभी किसी बात के लिए जिद नहीं की । जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया, वही खा लेता था । वही भोला-भाला, शील-स्नेह का पुतला आज क्यों ऐसी दिल तोड़ने वाली बातें कर रहा है? उसकी इच्छा के विरुद्ध तो किसी ने कुछ नहीं कहा । माँ-बाप दोनों ही उसका मुँह जोहते रहते हैं । उसने खुद ही लेन-देन की बात चलायी; नहीं उससे कौन कहता है कि तू माँ-बाप का देना चुका । माँ-बाप के लिए यही क्या कम सुख है कि वह इज्जत-आबरू के साथ भलेमानसों की तरह कमाता-खाता है । उससे कुछ हो सके, तो माँ-बाप की मदद कर दे । नहीं हो सकता तो माँ-बाप उसका गला न दबायेंगे । झुनिया को ले जाना चाहता है, खुशी से ले जाये । धनिया ने तो केवल उसकी भलाई के ख्याल से कहा था कि झुनिया को वहाँ ले जाने से जितना आराम मिलेगा उससे कहीं ज्यादा झंझट बढ़ जायेगी । उसमें ऐसी कौन-सी लगने वाली बात थी कि वह इतना बिगड़ उठा । हो, न हो, यह आग झुनिया ने लगाई है । वही बैठे-बैठे उसे मन्तर पढ़ा रही है । यहाँ सौक सिंगार करने को नहीं मिलता; घर का कुछ-न-कुछ काम भी करना ही पड़ता है । वहाँ रुपये-पैसे हाथ में आयेंगे, मजे से चिकना खायेगी, चिकना पहनेगी और टाँग फैलाकर सोयेगी । दो आदमियों की रोटी पकाने में क्या लगता है, वहाँ तो पैसा चाहिए । सुना, बाजार में पकी-पकाई रोटियां मिल जाती हैं । यह सारा उपद्रव उसी ने खड़ा किया है, सहर में कुछ दिन रह भी चुकी है । वहाँ का दाना-पानी मुँह लगा हुआ है । यही कोई पूछता न था । यह भोंदू मिल गया । इसे फीस लिया । जब यहाँ पाँच महीने का पेट लेकर आयी थी, तब कैसी म्याँव-म्याँव करती थी । तब यहाँ सरन न मिली होती, तो आज कहीं भीख माँगती होती । यह उसी नेकी का बदला है! इसी चुड़ैल के पीछे डाँड़ देना पड़ा, बिरादरी में बदनामी हुई, खेती टूट गयी, सारी दुर्गत हो गयी । आज यह चुड़ैल जिस पत्तल में खाती है, उसी में छेद कर रही है । पैसे देखे, तो आँख हो गयी । तभी ऐंठी-ऐंठी फिरती है, मिज़ाज नहीं मिलता । आज लड़का चार पैसे कमाने लगा है न । इतने दिनों बात नहीं पूछी, तो सास का पाँव दबाने के लिए तेल लिए दौड़ती थी । डाइन, उसके जीवन की निधि को उसके हाथ में छीन लेना चाहती है । दुखित स्वर में बोली-यह मन्तर तुम्हें कौन दे रहा है बेटा, तुम तो ऐसे न थे । माँ-बाप तुम्हारे ही हैं, बहनें तुम्हारी ही हैं, घर तुम्हारा ही है । यहाँ बाहर का कौन है । और हम क्या बहुत दिन बैठे रहेंगे?? घर की मरजाद बनाये रहोगे, तो तुम्हीं को सुख होगा । आदमी घर वालों ही के लिए धन कमाता है कि और किसी के लिए? अपना पेट तो सुअर भी पाल लेता है । मैं न जानती थी, झुनिया नागिन बनकर हमी को डसोगी ।
गोबर ने तिनककर कहा-अम्माँ, नादान नहीं हूँ कि झुनिया मुझे मन्तर पढ़ायेगी । तुम उसे नाहक कोस रही हो । तुम्हारी गिरस्ती का सारा बोझ मैं नहीं उठा सकता । मुझ से जो कुछ हो सकेगा, तुम्हारी मदद कर दूंगा, लेकिन अपने पाँवों में बेड़ियाँ नहीं डाल सकता । झुनिया भी कोठरी से निकलकर बोली-अम्मां, जुलाहे का गुस्सा दाढ़ी पर न उतारो । कोई बच्चा नहीं हैं कि उन्हें फोड़ लूंगी । अपना-अपना भला-बुरा सब समझते हैं । आदमी इसीलिए नहीं जन्म लेता कि सारी उम्र तपस्या करता रहे, और एक दिन खाली हाथ मर जाये । सब जिंदगी का कुछ सुख चाहते हैं, सब की लालसा होती है कि हाथ में चार पैसे हों । धनिया ने दाँत पीसकर कहा-अच्छा झुनिया, बहुत ज्ञान न बघार । अब तू भी अपना भला-बुरा सोचने योग्य हो गयी है । जब यहाँ आकर मेरे पैरों पर सिर रक्खे रो रही थी, तब अपना भला-बुरा नहीं सूझा था? उस घड़ी हम भी अपना भला-बुरा सोचने लगते, तो कहीं पता न होता । इसके बाद संग्राम छिड़ गया । ताने-मेहने, गाली-गलौज, थुक्का-फजीहत, कोई बात न बची । गोबर भी बीच-बीच में डंक मार जाता था । होरी बरौठे में बैठा सब कुछ सुन रहा था । सोना और रूपा आँगन में सिर झुकाये खड़ी थीं, दुलारी, पुनिया और कई स्त्रियां बीच-बचाव करने आ पहुंची थी । गरजन के बीच में कभी-कभी बूंदें भी गिर जाती थी । दोनों ही अपनी-अपनी निर्दोषिता सिद्ध कर रही थी । झुनिया गड़े मुर्दे उखाड़ रही थी । आज उसे हीरा और सोभा से विशेष सहानुभूति हो गयी थी, जिन्हें धनिया ने कहीं का न रखा था । धनिया की आज तक किसी से न पटी, तो झुनिया से कैसे पट सकती है । धनिया अपनी सफाई देने की चेष्टा कर रही थी; लेकिन न जाने क्या बात थी कि जनमत झुनिया की ओर था । शायद इसलिए कि झुनिया संयम हाथ से न जाने देती थी और धनिया आपे से बाहर थी । शायद इसलिए की झुनिया जब कमाऊ पुरुष की स्त्री थी उसे प्रसन्न रखने में ज्यादा मसलहत थी । तब होरी ने आँगन में आकर कहा-मैं तेरे पैरों पड़ता हूँ धनिया, चुप रह । मेरे मुँह में कालिख मत लगा । हाँ, अभी मन न भरा हो तो और सुन । धनिया फुंकार मारकर उधर दौड़ी-तुम भी मोटी डाल पकड़ने चले । मैं ही दोषी हूँ । वह तो मेरे ऊपर फूल बरसा रही है? संग्राम का क्षेत्र बदल गया । जो छोटों के मुँह लगे, वह छोटा । धनिया किस तर्क से झुनिया को छोटा मान ले? होरी ने व्यथित कंठ से कहा-अच्छा वह छोटी नहीं, बड़ी सही । जो आदमी नहीं रहना चाहता, क्या उसे बाँधकर रखेगी? माँ-बाप का धरम है, लड़के को पाल-पोसकर बड़ा कर देना । वह हम कर चुके । उनके हाथ-पाँव हो गये । अब तू क्या चाहती है, वे दाना-चारा लाकर खिलायें । माँ-बाप का धरम सोलहों आना लड़कों के साथ है । लड़कों का माँ-बाप के साथ एक आना भी धरम नहीं है । जो जाता है, उसे असीस देकर विदा कर दे । हमारा भगवान मालिक है । जो कुछ भोगना बदा है, भीगेंगे । चालीस-पैतालीस साल इसी तरह रोते-धोते कट गये । दस-पाँच साल हैं, वह भी यों ही कट जायेंगे । उधर गोबर जाने की तैयारी कर रहा था । इस घर का पानी भी उसके लिए हराम है । माता होकर जब उसे ऐसी-ऐसी बातें कहे, तो अब वह उसका मुँह भी न देखेगा । देखते-ही-देखते उसका बिस्तर बँध गया । झुनिया ने भी मुंदरी पहन ली । मुन्नू भी टोप और फ्राक पहनकर राजा बन गया । होरी ने आर्द्र कंठ से कहा-बेटा, तुमसे कुछ कहने का मुँह तो नहीं है; लेकिन कलेजा नहीं मानता । क्या ज़रा जाकर अपनी अभागिनी माता के पाँव छू लोगे, तो कुछ बुरा होगा? जिस माता की कोख से जनम लिया और जिसका रक्त पीकर पले हो, उसके साथ इतना भी नहीं कर सकते? गोबर ने मुँह फेरकर कहा-मैं उसे अपनी माता नहीं समझता । होरी ने आँखों में आंसू लाकर कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा । जहाँ रहो, सुखी रहो । झुनिया ने सास के पास जाकर उसके चरणों को अंचल से छुआ । धनिया के मुँह से असीस का एक शब्द भी न निकला । उसने आँख उठाकर देखा भी नहीं । गोबर बालक को गोद में लिए आगे-आगे था । झुनिया बिस्तर बगल में दबाये पीछे । एक चमार का लड़का सन्दूक लिये था । गाँव के कई स्त्री-पुरुष गोबर को पहुंचाने गांव के बाहर तक आये । और धनिया बैठी रो रही थी । जैसे कोई उसके हृदय को आरे से चीर रहा हो । उसका मातृत्व उस घर के समान हो रहा था, जिसमें आग लग गयी हो और सब कुछ भस्म हो गया हो । बैठकर रोने के लिए भी स्थान न बचा हो ।