भाग-20 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-20 - godan - munshi premchand
गोदान – भाग-20
फागुन अपनी झोली में नवजीवन की विभूति लेकर आ पहुंचा था । आम के पेड़ दोनों हाथों से बौर के सुगन्ध बाँट रहे थे और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी ।
गांवों में ऊख की बोआई लग गयी थी । अभी धूप नहीं निकली, पर होरी खेत में पहुँच गया है । धनिया, सोना, रूपा तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गड़ते निकाल-निकालकर खेत में ला रही हैं, और होरी गँड़ासे से ऊख के टुकड़े कर रहा है । अब वह दातादीन की मजदूरी करने लगा है । किसान नहीं, मजूर है । दातादीन से अब उसका पुरोहित-जजमान का नाता नहीं, मालिक-मजदूर का नाता है ।
दातादीन ने आकर डाँटा-हाथ और फुरती से चलाओ होरी! इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे ।
होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा-चला ही तो रहा हूँ महराज, बैठा तो नहीं हूँ ।
दातादीन मजूरों से रगड़कर काम लेते थे, इसलिए उनके यहाँ कोई मजूर टिकता न था । होरी उसका स्वभाव जानता था, पर जाता कहीं!
पण्डित उसके सामने खड़े होकर बोले- चलाने-चलाने में भेद है । एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन-भर में भी एक बोझ ऊख न कटे ।
होरी ने विष का घूंट पीकर और जोर से हाथ चलाना शुरू किया, इधर महीनों से उसे भर-पेट भोजन न मिलता था । प्रायः एक जून तो चबैने पर ही कटता था, दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला, कभी कड़का हो गया, कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी उठे, मगर हाथ जवाब दे रहा था । उस पर दातादीन सिर पर सवार थे । क्षण-भर दम ले लेने पाता, तो ताजा हो जाता लेकिन दम कैसे ले?
घुड़कियां पड़ने का भय था ।
धनिया और तीनों लड़कियाँ ऊख के गट्ठे लिये गीली साड़ियों से लथपथ, कीचड़ में सनी हुई आयीं, और गट्ठे पटककर दम मारने लगी कि दातादीन ने डांट बताई- यही तमाशा क्या देखती है धनिया? जा अपना काम कर । पैसे सेंत में नहीं आते । पहर-भर में तू एक खेप लायी है । इस हिसाब से तो दिन भर में भी ऊख न सुल पायेगी ।
धनिया ने त्योरी बदलकर कहा-क्या ज़रा दम भी न लेने दोगे महाराज । हम भी तो आदमी हैं । तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये । ज़रा मूड पर एक गदला लादकर लाओ तो हाल मालूम हो ।
दातादीन बिगड़ उठे- पैसे देते हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं । दम मार लेना है, तो घर जाकर दम लो ।
धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई- तू जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?
धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा- जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को आँगी न देना चाहिए ।
दातादीन ने लाल आंखें निकाल ली- जान पड़ता है, अभी मिज़ाज ठण्डा नहीं हुआ । तभी दाने-दाने को मोहताज हो ।
धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी- तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाती ।
दातादीन ने पैने स्वर में कहा-अगर यही हाल है तो भीख भी माँगेगी ।
धनिया के पास जवाब तैयार था, पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी, नहीं बात बढ़ जाती, लेकिन आवाज की पहुँच के बाहर जाकर दिल की जलन निकाली-भीख माँगो तुम, जो भिखमंगे की जात हो । हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे, वहीं चार पैसे पायेंगे ।
सोना ने उसका तिरस्कार किया-अम्माँ, जाने भी दो । तुम तो समय नहीं देखती, बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो ।
होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गँड़ासा उठा-उठाकर ऊख के टुकड़ों के ढेर करता जाता था । उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी । उसमें अलौकिक शक्ति आ गयी थी । उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था, वह इस समय जैसे भाप बनकर उसे यन्त्र की सी अन्ध-शक्ति प्रदान कर रहा था । उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा । सिर में फिरकी-सी चल रही थी । फिर भी उसके हाथ यन्त्र की गति-से, बिना थके, बिना रुके, उठ रहे थे । उसकी देह से पसीने की धारा निकल रही थी, मुँह से फिचकुर छूट रहा था, सिर में धम-धम का शब्द हो रहा था, पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो ।
सहसा उसकी आँखों में निबिड़ अन्धकार छा गया । मालूम हुआ वह जमीन में धँसा जा रहा है । उसने संभलने की चेष्टा में शून्य में हाथ फैला दिये, और अचेत हो गया । गँडासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुँह जमीन पर पड़ गया ।
उसी वक़्त धनिया ऊख का गड़वा लिये आयी । देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं । एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था-मालिक तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए, जो आदमी को लग जाये । पानी मारते-ही-मारते तो मारेगा ।
धनिया ऊख का गददा पटककर पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गयी । और उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर विलाप करने लगी-तुम मुझे छोड़कर कहीं जाते हो । अरी सोना, दौडकर पानी ला और जाकर सोभा से कह दे, दादा बेहाल हैं । हाय भगवान्! अब मैं कही जाऊँ । अब किसकी होकर रहूँगी, कौन मुझे धनिया कहकर पुकारेगा ।…
लाला पटेश्वरी भागे हुए आये और स्नेह भरी कठोरता से बोले-क्या करती है धनिया, होश संभाल । होरी को कुछ नहीं हुआ । गर्मी से अचेत हो गये हैं । अभी होश आया जाता है । दिल इतना कच्चा कर लेगी, तो कैसे काम चलेगा?
धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिये और रोती हुई बोली-क्या करूँ लाला, जी नहीं मानता । भगवान ने सब कुछ हर लिया । मैं सबर कर गयी । अब सबर नहीं होता । हाय रे मेरा हीरा!
सोना पानी लायी । पटेश्वरी ने होरी के मुँह पर पानी के छींटे दिये । कई आदमी अपनी-अपनी अंगोछियों से हवा कर रहे थे । होरी की देह ठंडी पड़ गयी थी । पटेश्वरी को भी चिन्ता हुई; पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे ।
धनिया अधीर होकर बोली-ऐसा कभी नहीं हुआ था । लाला, कभी नहीं ।
पटेश्वरी ने पूछा-रात कुछ खाया था?
धनिया बोली-हाँ, रोटियाँ पकायी थी, लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपी है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई । कितना समझाती हूँ, जान रखकर काम करो; लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं ।
सहसा होरी ने आँखें खोल दी और उड़ती हुई नज़रों से इधर-उधर ताका । धनिया जैसे जी उठी । विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली-अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में रामा गये थे ।
होरी ने कातर स्वर में कहा-अच्छा हूँ । न जाने कैसा जी हो गया था ।
धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा-देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे!
पटेश्वरी ने हंसकर कहा-धनिया तो रो-पीट रही थी ।
होरी ने आतुरता से पूछा-सचमुच तू रोती थी धनिया?
धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेलकर कहा-इन्हें बकने दो तुम । पूछो, यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे?
पटेश्वरी ने चिढ़ाया-तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी । अब लाज के मारे मुकरती है । छाती पीट रही थी ।
होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा-पगली है और क्या । अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिये मुझे जिलाये रखना चाहती है ।
दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये और चारपाई पर लिटा दिया । दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था । दौड़कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाब जल भी लेता आया और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गयी ।
उसी वक़्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखायी दिया ।
गाँव के कुत्ते पहले तो भूँकते हुए उस की तरफ दौड़े फिर दुम हिलाने लगे । रूपा ने कहा-भैया आये, और तालियां बजाती हुई दौड़ी । सोना भी दो-तीन कदम आगे बड़ी; पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गयी । एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था । झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गयी । गोबर ने माँ-बाप के चरण छुए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार किया । धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गयी । उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था । आज तो वह रानी है! इस फटे हाल में भी रानी है । कोई उसकी आंखें देखे, उसका मुख देखे, उसका हृदय देखे, उसकी चाल देखे । रानी भी लजा जायेगी । गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़कर कैसा भलमानस लगता है । धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी । उसका मन कहता था, गोबर कुशल से है और प्रसन्न है । आज उसे आँखों देखकर मानो उसके जीवन के भूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है; मगर होरी ने मुँह फेर लिया था ।
गोबर ने पूछा-दादा को क्या हुआ है, अम्माँ?
धनिया घर का हाल कहकर उसे दुखी न करना चाहती थी । बोली-कुछ नहीं है बेटा, ज़रा सिर में दर्द है । चलो, कपड़े उतारो, हाथ-मुंह धोओ? कहाँ थे तुम इतने दिन? भला इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी । आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है । तुम्हारी राह देखते आँखें फूट गयी । यही आपना बँधी रहती थी कि कब वह दिन आयेगा और कब तुम्हें देखूँगी । कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था । सुन-सुनकर जान सूखी जाती थी । कहाँ रहे इतने दिन?
गोबर ने शर्माते हुए कहा-कहीं दूर नहीं गया था अम्माँ, यही लखनऊ में तो था ।
‘और इतने नियरे रहकर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी ।’
उधर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोलकर चीज़ का बाँट-बखरा करने में लगी हुई थीं; लेकिन झुनिया दूर खड़ी थी, उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा है । गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार किया है, आज वह उसका बदला लेगी । असामी को देखकर महाजन उससे वह रुपये वसूल करने को भी व्याकुल हो रहा है, जो उसने बट्टे खाते में डाल दिये थे । बच्चा उन चीज़ों की ओर लपक रहा था और चाहता था, सब-का-सब एक साथ मुँह में डाल ले, पर झुनिया उसे गोद से उतरने न देती थी ।
सोना बोली-भैया तुम्हारे लिए आईना-कंधा लाये हैं भाभी!
झुनिया ने उपेक्षा भाव से कहा-मुझे आइना-कंघी न चाहिए । अपने पास रखे रहें । रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली-ओ हो! यह तो चुन्नू की टोपी है । और उसे बच्चे के सिर पर रख दिया ।
झुनिया ने टोपी उतारकर फेंक दी । और सहसा गोबर को अन्दर आते देखकर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में चली गयी । गोबर ने देखा, सारा सामान खुला पड़ा है । उसका जी तो चाहता है, पहले झुनिया से मिलकर अपना अपराध क्षमा कराये लेकिन अन्दर जाने का साहस नहीं होता । वहीं बैठ गया और चीज़ें निकाल-निकाल कर हर एक को देने लगा मगर रूपा इसलिए फूल गयी कि उसके लिए चप्पल क्यों नहीं आयी, और सोना उसे चिढ़ाने लगी, तू क्या करेगी चप्पल लेकर, अपनी गुड़िया से खेल । हम तो तेरी गुड़िया देखकर नहीं रोते, तू मेरा चप्पल देखकर क्यों रोती है? मिठाई बाँटने की जिम्मेदारी धनिया ने अपने ऊपर ली । इतने दिनों के बाद लड़का कुशल से घर आया है । वह गाँव भर में बैना बैटवायेगी । एक गुलाब-जामुन रूपा के लिए ऊँट के मुँह में जीरे के समान था । वह चाहती थी, हाँडी उसके सामने रख दी जाये, वह कूद-कूद कर खाये ।
अब सन्दूक खुला और उसमें से साड़ियाँ निकलने लगीं । सभी किनारीदार थी; जैसी पटेश्वरी लाला के घर में पहनी जाती हैं, मगर हैं बड़ी हलकी । ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन चलेंगी! बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे पहनें । उनकी मेहरियों को बैठने और सोने के सिवा और कौन काम है । यहां तो खेत-खलिहान सभी कुछ है । अच्छा! होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक दुपट्टा भी है ।
धनिया प्रसन्न होकर बोली-यह तुमने बड़ा अच्छा किया बेटा! इनका दुपट्टा बिल्कुल तार-तार हो गया था ।
गोबर को उतनी देर में घर की परिस्थिति का अन्दाज हो गया था। धनिया की साड़ी में कई पैबन्द लगे हुए थे । सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उसमें से उसके बाल दिखाई दे रहे थे । रूपा की धोती में चारों तरफ झालरें-सी लटक रही थी । सभी के चेहरे रूखे, किसी की देह पर चिकनाहट नहीं । जिधर देखो, विपन्नता का साम्राज्य था ।
लड़कियाँ तो साड़ियों में मग्न थी । धनिया को लड़के के लिए भोजन की चिन्ता हुई । घर में थोड़ा-सा जौ का आटा सांझ के लिए संचकर रखा हुआ था । इस वक़्त तो चबैने पर कटती थी, मगर गोबर अब वह गोबर थोड़े ही है । उसको जी का आटा खाया भी जायेगा । परदेश में न जाने क्या-क्या खाता-पीता रहा होगा । जाकर दुलारी की दुकान से गेहूँ का आटा, चावल, घी उधार लायी । इधर महीने से सहुआइन एक पैसे की चीज़ भी उधार न देती थी, पर आज उसने एक बार भी न पूछा, पैसे कब दोगी ।
उसने पूछा-गोबर तो खूब कमा के आया है न?
धनिया बोली-अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी! अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न समझा । हाँ, सबके लिए किनारदार साड़ियों लाया है । तुम्हारे आसिरबाद से कुशल से लौट आया, मेरे लिए तो यही बहुत है ।
दुलारी ने असीस दिया-भगवान करे, जहाँ रहे कुशल से रहे । माँ-बाप को और क्या चाहिए! लड़का समझदार है । और छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है । हमारे रुपये अभी न मिलें, तो ब्याज तो दे दो । दिन-दिन बोझ बढ़ ही तो रहा है ।
इधर सोना चुन्नू को उसका फ्राक और टोप और जूता पहनाकर राजा बना रही थी, बालक इन चीज़ों को पहनने से ज्यादा हाथ में लेकर खेलना पसन्द करता था । अन्दर गोबर और झुनिया में मान-मनौवल का अभिनय हो रहा था ।
झुनिया ने तिरस्कार भरी आंखों से देखकर कहा-मुझे लाकर यही बैठा दिया । आप परदेश की राह ली । फिर न खोज, न ख़बर कि मरती है या जीती है । साल-भर के बाद अब जाकर तुम्हारी नींद टूटी है । कितने बड़े कपटी हो तुम । मैं तो सोचती हूँ कि तुम मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो और आप उड़े, तो साल-भर के बाद लौटे । मर्दों का विश्वास ही क्या, कहीं कोई और ताक ली होगी । सोचा होगा, एक घर के लिए है ही एक बाहर के लिए भी हो जाये ।
गोबर ने सफाई दी-झुनिया, मैं भगवान को साक्षी देकर कहता हूँ जो मैंने कभी किसी की ओर ताका भी हो । लाज और डर के मारे घर से भागा जरूर, मगर तेरी याद एक छन के लिए भी मन से न उतरती थी । अब तो मैंने तय कर लिया है कि तुझे भी लेता जाऊंगा, इसलिए आया हूँ । तेरे घर वाले तो बहुत बिगड़े होंगे?
‘दादा तो मेरी जान लेने ही पर उतारू थे ।’
‘सच!’
‘तीनों जने यहाँ चढ़ आये थे । अम्माँ ने ऐसा डांटा कि मुँह लेकर रह गये ।
हाँ, हमारे दोनों बैल खोल ले गये ।’
‘इतनी बड़ी जबरदस्ती! और दादा कुछ बोले नहीं?’
‘दादा अकेले किस-किस से लड़ते । गाँव वाले तो नहीं ले जाने देते थे, लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गये, तो और लोग क्या करते?’
‘तो आजकल खेती-बारी कैसे हो रही है?’
‘खेती-बारी सब टूट गयी । थोड़ी-सी पंडित महाराज के साये में है । ऊख बोई ही नहीं गई ।’
गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपये थे । उसकी गर्मी यों भी कम न थी । यह हाल सुनकर तो उसके बदन में आग ही लग गयी ।
बोला-तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर समझता हूँ । उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायँ! यह डाका है, खुला हुआ डाका । तीन-तीन साल को चले जायँगे तीनों । यों न देंगे, तो अदालत से लूँगा । सारा घमंड तोड़ दूँगा । वह उसी आवेश में चला था कि झुनिया ने पकड़ लिया और बोली-तो चले जाना, अभी ऐसी क्या जल्दी है? कुछ आराम कर लो, कुछ खा-पी लो । सारा दिन तो पड़ा है । यही बड़ी-बड़ी पंचायत हुई । पंचायत ने अरसी रुपये डाँड़ लगाये । तीन मन अनाज ऊपर । उसी में तो और तबाही आ गयी ।
सोना बालक को कपड़े-जूते पहनाकर लायी । कपड़े पहनकर वह जैसे सचमुच राजा हो गया था । गोबर ने उसे गोद में ले लिया; पर इस समय बालक के प्यार में उसे आनन्द न आया । उसका रक्त खौल रहा था और कमर के रुपए आँच और तेज़ कर रहे थे । वह एक-एक से समझेगा । पंचों को उस पर डाँड़ लगाने का अधिकार क्या है? कौन होता है कोई उसके बीच में बोलने वाला? उसने एक औरत रख ली, तो पंचों के बाप का क्या बिगड़ा? अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर दे, तो लोगों के हाथों में हथकडियाँ पड़ जायँ । सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गयी । क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने!
बच्चा उसकी गोद में ज़रा-सा मुस्कुराया, फिर जोर से चीख उठा जैसे कोई डरावनी चीज़ देख ली हो ।
झुनिया ने बच्चे को उसकी गोद से लिया और बोली-अब जाकर नहा-धो लो । किस सोच में पड़ गये । यहाँ सबसे लड़ने लगो, तो एक दिन निबाह न हो । जिसके पास पैसे हैं वही बड़ा आदमी है, वही भला आदमी है । पैसे न हों तो उस पर सभी रोब जमाते हैं । ‘मेरा गधापन था कि घर से भागा । नहीं देखता, कैसे कोई एक -खेला डाँड़ लेता।’
‘सहर की हवा खा आये तो तभी ये बातें सूझने लगी हैं । नहीं, घर से भागते क्यों ।’
‘यही जी चाहता है कि लाठी उठाऊं और पटेश्वरी, दातादीन, झिंगुरी-सब सालों को पीटकर गिरा दूँ, और उनके पेट से रुपये निकाल लूँ ।’
‘रुपये की बहुत गर्मी चढ़ी है साइत । लाओ निकालो, देखूँ इतने दिन में क्या कमा लाये हो?’
उसने गोबर की कमर में हाथ लगाया । गोबर खड़ा होकर बोला-अभी क्या कमाया; हाँ, अब तुम चलोगी, तो कमाऊँगा । साल भर तो सहर का रंग-ढंग पहचानने ही में लग गया ।
‘हाँ, अभी तो रहूँगा कुछ दिन । उन पंचों पर दावा करना है, जिन्होंने डाँड़ के बहाने मेरे डेढ़ सौ रुपये हजम किये हैं । देखूँ, कौन मेरा हुक्का-पानी बन्द करता है । और कैसे बिरादरी मुझे जात बाहर करती है ।’
यह धमकी देकर वह आगे बढ़ा! उसकी हेकड़ी ने उसके युवक भक्तों को रोब में डाल दिया था ।
एक ने कहा-कर दो नालिश गोबर भैया! बुड्ढा काला सौंप है-जिसके काटे का मन्तर नहीं । तुमने अच्छी डांट बताई । पटवारी के कान भी ज़रा गरमा दो । बड़ा मुतफन्नी है दादा! बाप-बेटे में आग लगा दे, भाई-भाई में आग लगा दे । कारिन्दे से मिलकर असामियों का गला काटता है । अपने खेत पीछे जोतो, पहले उसके खेत जोत दो । अपनी सिंचाई पीछे करो, पहले उसकी सिंचाई कर दो ।
गोबर ने मूछों पर ताव देकर कहा-मुझसे क्या कहते हो भाई, साल भर में भूल थोड़े ही गया । यही मुझे रहना ही नहीं है, नहीं एक-एक को नचाकर छोड़ता । अबकी होली धूम-धाम से मनाओ और होली का स्वांग इन सबों को खूब भिगो-भिगोकर लगाओ ।
होली का प्रोग्राम बनने लगा । खूब भंग घुटे, दूधिया भी, नमकीन भी, और रंगों के साथ कालिख भी बने और मुखियों के मुँह पर कालिख ही पोती जाये । होली में कोई बोल ही क्या सकता है! फिर स्वाँग निकले और पंचों की भद्द उड़ाई जाये । रुपये-पैसे की कोई चिंता नहीं । गोबर भाई कमाकर आये हैं ।
भोजन करके गोबर भोला से मिलने चला । जब तक अपनी जोड़ी लाकर अपने द्वार पर बाँध न दे, उसे चैन नहीं । वह लड़ने-मरने को तैयार था ।
होरी ने कातर स्वर में कहा-राड़ मत बढ़ाओ बेटा, भोला गोई ले गये, भगवान उनका भला करे, लेकिन उनके रुपये तो आते ही थे ।
गोबर ने उत्तेजित होकर कहा-दादा, तुम बीच में न बोलो । उनकी गाय पचास की थी । हमारी गोई डेढ़ सौ में आयी थी । तीन साल हमने जोती । फिर भी सौ की थी ही । वह अपने रुपये के लिए दावा करते, डिग्री कराते, या जो चाहते करते, हमारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गये? और तुम्हें क्या कहूँ । इधर गोई खो बैठे, उधर डेढ़ सौ रुपये डाँड़ के भरें । यह है गऊ होने का फल । मेरे सामने जोड़ी खोल ले जाते, तो देखता । तीनों को यहाँ जमीन पर सुला देता । और पंचों से तो बात तक न करता । देखता, कौन मुझे बिरादरी से अलग करता, लेकिन तुम बैठे ताकते रहे ।
होरी ने अपराधी की भाँति सिर झुका लिया, लेकिन धनिया यह अनीत कैसे देख सकती थी? बोली-बेटा, तुम भी अन्धेर करते हो । हुक्का-पानी बन्द हो जाता, तो गाँव में निर्वाह होता! जवान लड़की बैठी है, उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है कि नहीं? मरने-जीने में आदमी बिरादरी…
गोबर ने बात काटी-हुक्का-पानी सब तो था, बिरादरी में आदर भी था, फिर मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ? बोलो । इसलिए कि घर में रोटी न थी । रुपये हों तो न हुक्का-पानी का काम है, न जात-बिरादरी का । दुनिया पैसे की है, हुक्का-पानी कोई नहीं पूछता ।
धनिया तो बच्चे का रोना सुनकर भीतर चली गयी और गोबर भी घर से निकला । होरी बैठा सोच रहा था, लड़के की अकल जैसे खुल गयी है । कैसी बेलाग बात कहता है । उसकी वक्र बुद्धि ने होरी के धर्म और नीति को परास्त कर दिया था ।
सहसा होरी ने पूछा-मैं भी चला चलुँ?
‘मैं लड़ाई करने नहीं जा रहा हूँ दादा, डरो मत । मेरी ओर तो कानून है, मैं क्यों लड़ाई करने लगा?’
‘मैं भी चलूँ तो कोई हरज है?’
‘हाँ, बड़ा हरज है । तुम बनी बात बिगाड़ दोगे ।’
होरी चुप हो गया और गोबर चल दिया ।
पाँच मिनट भी न हुए होंगे कि धनिया बच्चे को लिए बाहर निकली और बोली-क्या गोबर चला गया, अकेले? मैं कहती हूँ, तुम्हें भगवान कभी बुद्धि देंगे या नहीं । भोला क्या सहज में गोई देगा? तीनों उस पर टूट पड़ेंगे, बाजू की तरह । भगवान ही कुशल करें । अब किससे कहूँ, दौड़कर गोबर को पकड़ लो । तुमसे तो मैं हार गयी ।
होरी ने कोने से डुण्डा उठाया, और गोबर के पीछे दौड़ा । गांव के बाहर आकर उसने निगाह दौड़ाई । एक क्षीण-सी रेखा क्षितिज से मिली हुई दिखाई दी । इतनी ही देर में गोबर इतनी दूर कैसे निकल गया! होरी की आत्मा उसे धिक्कारने लगी । उसने क्यों गोबर को रोका नहीं । अगर वह डाँटकर कह देता, भोला के घर मत जाओ तो गोबर कभी न जाता । और अब उससे दौड़ा भी तो नहीं जाता । वह हारकर वहीं बैठ गया और बोला-उसकी रच्छा करो महावीर स्वामी!
गोबर उस गांव में पहुँचा, तो देखा कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे जुआ खेल रहे हैं । उसे देखकर लोगों ने समझा, पुलिस का सिपाही है । कौडियाँ समेटकर भागे कि सहसा जंगी ने उसे पहचानकर कहा-अरे, यह तो गोबरधन है ।
गोबर ने देखा, जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाँक रहा है । बोला-डरो मत जंगी भैया, मैं हूँ । राम-राम! आज ही आया हूँ । सोचा, चलूँ सबसे मिलता आऊँ, फिर न जाने कब आना हो! मैं तो भैया, तुम्हारे आसिरबाद से बड़े मजे में निकल गया । जिस राजा की नौकरी में हूँ, उन्होंने मुझसे कहा है कि एक-दो आदमी मिल जायँ तो लेते आना । चौकीदारी के लिए चाहिए । मैंने कहा, सरकार ऐसे आदमी दूँगा कि चाहे जान चली जाये, मैदान से हटने वाले नहीं, इच्छा हो तो मेरे साथ चलो । अच्छी जगह है ।
जंगी उसका ठाट-बाट देखकर रोब में आ गया । उसे कभी चमरौधे जूते भी मयरनार न हुए थे । और गोबर चमाचम बूट पहने हुए था । साफ-सुथरी, धारीदार कमीज, सँवारे हुए बाल, पूरा बाबू साहब बना हुआ । फटेहाल गोबर और इस परिष्कृत गोबर में बड़ा अन्तर था । हिंसा-भाव कुछ तो यों ही समय के प्रभाव से शान्त हो गया था और बचा-खुचा अब शान्त हो गया । जुआड़ी था ही, उस पर गाँजे की लत । और घर में बड़ी मुश्किल से पैसे मिलते थे । मुँह में पानी भर आया । बोला-चलूँगा क्यों नहीं, यहाँ पड़ा-पड़ा मक्खी ही तो मार रहा हूँ । कै रुपये मिलेंगे?
गोबर ने बड़े आत्मविश्वास से कहा-इसकी कुछ चिन्ता न करो । सब कुछ अपने ही हाथ में है । जो चाहोगे, वह हो जायगा । हमने सोचा, जब घर में ही आदमी है, तो बाहर क्यों जायें ।
जंगी ने उत्सुकता से पूछा-काम क्या करना पड़ेगा?
‘काम चाहे चौकीदारी करो, चाहे तगादे पर जाओ । तगादे का काम सबसे अच्छा । असामी से गठ गये । आकर मालिक से कह दिया, घर पर है नहीं, चाहो तो रुपये-आठ आने रोज बना सकते हो ।’
‘रहने की जगह भी मिलती है?.
‘जगह की कौन कमी । पूरा महल पड़ा है । पानी का नल, बिजली । किसी बात की कमी नहीं है! कामता हैं कि कहीं गये हैं?’
‘दूध लेकर गये हैं । मुझे कोई बाजार नहीं जाने देता । कहते हैं, तुम तो गांजा पी जाते हो । मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैया, लेकिन दो पैसे रोज तो चाहिए ही । तुम कामता से कुछ न कहना । मैं तुम्हारे साथ चलूँगा ।’
‘हाँ-हाँ, बेखटके चलो । होली के बाद ।’
‘तो पक्की रही ।’
दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे । भोला बैठे सुतली कात रहे थे । गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक़्त उसका गला सचमुच भर आया । बोला-काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे क्षमा करो ।
भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया और पथरीले स्वर में बोला-काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर, कि तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न लगे; लेकिन अपने द्वार पर आये हो, अब क्या कहूँ! जाओ, जैसा मेरे साथ किया उसकी सजा भगवान देंगे । कब आये?
गोबर ने खूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का वृत्तान्त कहा, और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी । भोला को जैसे बेमाँगे वरदान मिल गया । जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था । बाहर चला जायेगा, तो चार पैसे पैदा तो करेगा । न किसी को कुछ दे, अपना बोझ तो उठा लेगा ।
गोबर ने कहा-नहीं काका, भगवान ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल-दो साल में आदमी, हो जायँगे ।
‘हाँ, जब इनसे रहते बने ।’
‘सिर पर आ पड़ती है, तो आदमी आप सँभल जाता है ।’
‘तो कब तक जाने का विचार है?’
‘होली करके चला जाऊँगा । यही खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूँ, तो निश्चिन्त हो जाऊं ।’
‘होरी से कहो, अब बैठ के राम-राम करें ।’
‘कहता तो हूँ, लेकिन जब उनसे बैठा जाये ।’
‘वहाँ किसी बैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी । खाँसी बहुत दिक कर रही है । हो सके तो कोई दवाई भेज देना!’
‘एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं । उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूँगा । खाँसी रात को जोर करती है कि दिन को?’
‘नहीं बेटा, रात को । आँख नहीं लगती । नहीं वही कोई डौल हो तो मैं भी वहीं चलकर रहूँ । यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता ।’
‘रोजगार का जो मजा वहीं है काका, यहाँ क्या होगा? यही रुपये का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता । हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है । वहाँ पाँच-छः सेर के भाव से चाहो तो एक घड़ी में मनों दूध बेच लो ।’
जंगी गोबर के लिए दूधिया शर्बत बनाने चला गया था । भोला ने एकान्त देखकर कहा-और भैया! अब इस जंजाल से जी ऊब गया है । जंगी का हाल देखते ही हो । कामता दूध लेकर जाता है । सानी-पानी, खोलना-बाँधना, सब मुझे करना पड़ता है । अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ । कहाँ तक हाय-हाय करूँ । रोज लड़ाई-झगड़ा । किस-किस के पाँव सहलाऊँ । खांसी आती है, रात को उठा नहीं जाता; पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता । पगहिया टूट गयी है, मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है । जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी ।
गोबर ने आत्मीयता के साथ कहा-तुम चलो लखनऊ काका । पाँच सेर का दूध बेचो, नगद । कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-पहचान है । मन-भर दूध की निकासी का जिम्मा तो मैं लेता हूँ । मेरी चाय की दूकान भी है । दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ । तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा ।
जंगी दूधिया शर्बत ले आया । गोबर ने एक गिलास शर्बत पीकर कहा-तुम तो खाली साँझ सबेरे चाय की दुकान पर बैठ जाओ काका, तो एक रुपया कहीं नहीं गया है ।
भोला ने एक मिनट के बाद संकोच-भरे भाव से कहा-क्रोध में बेटा, आदमी अन्धा हो जाता है । मैं तुम्हारी गोई खोल लाया था । उसे लेते जाना । यहीं कौन खेती-बारी होती है ।
‘मैंने तो एक नयी गोई ठीक कर ली है काका!’
‘नहीं-नहीं, नयी गोई लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ ।’
‘तो मैं तुम्हारे रुपये भिजवा दूँगा ।’
‘रुपये कहीं बाहर थोड़े ही हैं बेटा, घर में ही तो हैं । बिरादरी का ढकोसला है, नहीं तुममें और हममें कौन भेद है? सच पूछो तो मुझे खुश होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में है, आराम से है । और मैं उसके खून का प्यासा बन गया था ।’
संध्या समय गोबर यहाँ से चला, तो गोई उसके साथ थी और दही की दो हाँडियाँ लिये जंगी पीछे-पीछे आ रहा था ।