भाग-17 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-17 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

भाग-17 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-17 - godan - munshi premchand

गोदान – भाग-17

गाँव में ख़बर फैल गयी कि राय साहब ने पंचों को बुलाकर खूब डाँटा और इन लोगों ने जितने रुपये वसूल किये थे, वह सब इनके पेट से निकाल लिये । वह तो इन लोगों को जेल भेजवा रहे थे, लेकिन इन लोगों ने हाथ-पाँव जोड़े थूककर चाटा तब जाके उन्होंने छोड़ा । धनिया का कलेजा शीतल हो गया, गाँव में घूम-घूमकर पंचों को लज्जित करती फिरती थी-आदमी न सुने गरीबों की पुकार, भगवान- तो सुनते हैं । लोगों ने सोचा था, इनसे डाँड़ लेकर मजे से फुलौडियाँ खायेंगे । भगवान- ने ऐसा तमाचा लगाया कि फुलौड़ियाँ पेट से निकल पड़ी । एक-एक के दो-दो भरने पड़े । अब चाटो मेरा मकान लेकर ।
मगर बैलों के बिना खेती कैसे हो? गाँवों में बोआई शुरू हो गयी । कार्तिक के महीने में किसान के बैल मर जायँ, तो उसके दोनों हाथ कट जाते हैं । होरी के दोनों हाथ कट गये थे और सब लोगों के खेतों में हल चल रहे थे । बीज डाले जा रहे थे । कहीं-कहीं गीत की तानें सुनायी देती थी । होरी के खेत किसी अनाथ अबला के घर की भाँति सूने पड़े थे । पुनिया के पास भी गोई थी, सोभा के पास भी गोई थी मगर उन्हें अपने खेतों की बुआई से कही फुरसत कि होरी की बुआई करें । होरी दिनभर इधर-उधर मारा-मारा फिरता था । कहीं इराके खेत में जा बैठता, कहीं उसकी बोआई करा देता । इस तरह कुछ अनाज मिल जाता । धनिया, रूपा, सोना सभी दूसरों की बोआई में लगी रहती थी । जब तक बुआई रही, पेट की रोटियाँ मिलती गयी, विशेष कष्ट न हुआ । मानसिक वेदना तो अवश्य होती थी पर खाने भर को मिल जाता था । रात को नित्य स्त्री-पुरुष में थोड़ी लड़ाई हो जाती थी ।
यहाँ तक कि कार्तिक का महीना बीत गया और गांव में मजदूरी मिलनी भी कठिन हो गयी । अब सारा दारोमदार ऊख पर था, जो खेतों में खड़ी थी ।
रात का समय था । सर्दी खूब पड़ रही थी । होरी के घर में आज कुछ खाने को न था । दिन को तो थोड़ा-सा भुना हुआ मटर मिल गया था, पर इस वक़्त चूल्हा जलाने का कोई डौल न था और रूपा भूख के मारे व्याकुल थी और द्वार पर कोंड़े के सामने बैठी रो रही थी । घर में जब अनाज का एक दाना भी नहीं है, तो क्या माँगे, क्या कहे!
जब भूख न सही गयी तो वह आग माँगने के बहाने पुनिया के घर गयी । पुनिया बाजरे की रोटियाँ और बथुए का साग पका रही थी । सुगन्ध से रूपा के मुँह में पानी भर आया ।
पुनिया ने पूछा-क्या अभी तेरे घर आग नहीं जली, क्या री?
रूपा ने दीनता से कहा-आज तो घर में कुछ था ही नहीं, आग कहाँ से जलती?
‘तो फिर आग काहे को माँगने आयी हे?’
‘दादा तमाखू पियेंगे ।’
पुनिया ने उपले की आग उसकी ओर फेंक दी; मगर रूपा ने आग उठायी नहीं और समीप जाकर बोली-तुम्हारी रोटियाँ महक रही हैं काकी! मुझे बाजरे की रोटियाँ बड़ी अच्छी लगती हैं ।
पुनिया ने मुस्कराकर पूछा-खायेगी?
‘अम्मा डांटेगी ।’
‘अम्मा से कौन कहने जायेगा ।’
रूपा ने पेट-भर रोटियाँ खायी और जूठे मुँह भागी हुई घर चली गयी ।
होरी मन-मारे बैठा था कि पण्डित दातादीन ने आकर पुकारा । होरी की छाती धड़कने लगी । क्या कोई नयी विपत्ति आने वाली है । आकर उनके चरण छुये और कौड़े के सामने उनके लिए माँची रख दी ।
दातादीन ने बैठते हुए अनुग्रह भाव से कहा-अबकी तो तुम्हारे खेत परती पड़ गये होरी! तुमने गाँव में किसी से कुछ कहा नहीं, नहीं भोला की मजाल थी कि तुम्हारे द्वार से बैल खोल ले जाता! यही लहास गिर जाती । मैं तुमसे जनेऊ हाथ में लेकर कहता हूँ होरी, मैंने तुम्हारे ऊपर डाँड न लगाया था । धनिया मुझे नाहक बदनाम करती फिरती है । यह लाला पटेश्वरी और झिंगुरीसिंह की कारस्तानी है । मैं तो लोगों के कहने से पंचायत में बैठ भर गया था । वह लोग तो और कड़ा दण्ड लगा रहे थे । मैंने कह-सुनके कम कराया; मगर अब सब जने सिर पर हाथ धरे रो रहे हैं । समझे थे, यहाँ उन्हीं का राज है । यह न जानते थे कि गांव का राजा कोई और है तो अब अपने खेतों की बोआई का क्या इन्तजाम कर रहे हो?
होरी ने करुण-कंठ से कहा-क्या बताऊँ महाराज, परती रहेंगे ।
‘परती रहेंगे? यह तो बड़ा अनर्थ होगा!’
‘भगवान की यही इच्छा है, तो अपना क्या बस ।’
‘मेरे देखते तुम्हारे खेत कैसे परती रहेंगे । कल मैं तुम्हारी बोआई करा दूँगा । अभी खेत में कुछ तरी है । उपज दस दिन पीछे होगी, इसके सिवा और कोई बात नहीं । हमारा तुम्हारा आधा साझा रहेगा । इसमें न तुम्हें कोई टोटा है, न मुझे । मैंने आज बैठे-बैठे सोचा, तो चित्त बड़ा दुःखी हुआ कि जुते-जुताये खेत परती रहे जाते है !’
होरी सोच में पड़ गया । चौमासे-भर इन खेतों में खाद डाली, जोता और आज केवल बोआई के लिए आधी फसल देनी पड़ रही है । उस पर एहसान कैसा जता रहे हैं : लेकिन इससे तो अच्छा यही है कि खेत परती पड़ जायँ । और कुछ न मिलेगा, लगान तो निकल ही आयेगा । नहीं, अबकी बेबाकी न हुई, तो बेदखली आयी धरी है ।
उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।
दातादीन प्रसन्न होकर बोले-तो चलो, मैं अभी बीज तौल दूँ, जिसमें सबेरे का झंझट न रहे । रोटी तो खा ली है न?
होरी ने लजाते हुए आज घर में चूल्हा न जलने की कथा कही ।
दातादीन ने मीठे उलाहने के भाव से कहा-अरे! तुम्हारे घर में चूल्हा नहीं जला और तुमने मुझसे कहा भी नहीं! हम तुम्हारे बैरी तो नहीं थे इसी बात पर तुझसे मेरा जी कुढ़ता है । अरे भले आदमी, इसमें लाज-सरग की कौन बात है । हम सब एक ही तो हैं । तुम सूद्र हुए तो क्या, हम बारन हुए तो क्या, हैं तो सब एक ही घर के । दिन सबके बराबर नहीं जाते । कौन जाने, कल मेरे ही ऊपर कोई संकट आ पड़े, तो मैं तुमसे अपना दुःख न कहूँगा तो किससे कहूँगा । अच्छा, जो हुआ, चलो बेग ही के साथ तुम्हें मन-दो मन अनाज खाने को भी तौल दूँगा ।
आध घण्टे में होरी मनभर जौ का टोकरा सिर पर रखे आया और घर की चक्की चलने लगी । धनिया रोती थी और साहस के साथ जौ पीसती थी । भगवान उसे किस कुकर्म का यह दण्ड दे रहे हैं!
दूसरे दिन से बोआई शुरू हुई । होरी का सारा परिवार इस तरह काम में जुटा हुआ था, मानों सब कुछ अपना ही है । कई दिन के बाद सिंचाई भी इसी तरह हुई । दातादीन को सेंत-मेत के मजूर मिल गये । अब कभी-कभी उनका लड़का मातादीन भी घर में आने लगा । जवान आदमी था, बड़ा रसिक और बातचीत का मीठा; दातादीन जो कुछ छीन-झपटकर लाते थे, वह उसे भीग-बूटी में उड़ाता था । एक चमारिन से उसकी आशनाई हो गयी थी, इसलिए अभी तक ब्याह न हुआ था । हमारा धर्म है, हमारा भोजन । भोजन पवित्र रहे फिर हमारे धर्म पर कोई आँच नहीं आ सकती । रोटियाँ ढाल बन कर अधर्म से हमारी रक्षा करती हैं ।
अब साझे की खेती होने से दातादीन को झुनिया से बातचीत करने का अवसर मिलने लगा । वह ऐसे दीव से आता, जब घर में झुनिया के सिवा और कोई न होता; कभी किसी बहाने से, कभी किसी बहाने से । झुनिया रूपवती न थी; लेकिन जवान थी और चमारिन प्रेमिका से अच्छी थी । कुछ दिन शहर में रह चुकी थी, पहनना-ओढ़ना, बोलना-चालना जानती थी और लज्जाशील भी थी, जो स्त्री का सबसे बड़ा आकर्षण है । मातादीन कभी-कभी उसके बच्चे को गोद में उठा लेता और प्यार करता । झुनिया निहाल हो जाती थी ।
एक दिन उसने झुनिया से कहा-तुम क्या देखकर गोबर के साथ आयी । झुना?
झुनिया ने लजाते हुए कहा-भाग खींच लाया महाराज, और क्या कहूँ ।
मातादीन दुःखी मन से बोला-बड़ा बेवफा आदमी है । तुम जैसी लच्छमी को छोड़कर न जाने कही मारा-मारा फिर रहा है । चंचल सुभाव का आदमी है, इसी से मुझे शंका होती है कि कहीं और न फँस गया हो । ऐसे आदमियों को तो गोली मार देनी चाहिए । आदमी का धरम है, जिसकी बाँह पकड़े, उसे निभाये । यह क्या कि एक आदमी की। जिन्दगी खराब कर दी और आप दूसरा घर ताकने लगे ।
युवती रोने लगी । मातादीन ने इधर-उधर ताककर उसका हाथ पकड़ लिया और समझाने लगा-तुम उसकी क्यों परवा करती हो झुना, चला गया, चला जाने दो । तुम्हारे लिए किस बात की कमी है । रुपये-पैसे, गहना-कपड़ा, जो चाहो मुझसे लो ।
झुनिया ने धीरे से हाथ छुड़ा लिया और पीछे हटकर बोली-सब तुम्हारी दया है महाराज! मैं तो कहीं की न रही । घर से भी गयी, यहाँ से भी गयी । न माया मिली, न राम ही हाथ आये । दुनिया का रंग-ढंग न जानती थी । इसकी मीठी-मीठी बातें सुनकर जाल में फँस गई ।
मातादीन ने गोबर की बुराई करनी शुरू की-वह तो निरा लफंगा है, घर का न घाट का! जब देखो, माँ-बाप से लड़ाई । कहीं पैसा पा जाय, चट जुआ खेल डालेगा, चरस और गाँजे में उसकी जान बसती थी, सोहदों के साथ, घूमना । बहू-बेटियों को छेड़ना, यही उसका काम था । थानेदार साहब बदमाशी में उसका चालान करने वाले थे, हम लोगों ने बहुत खुशामद की, तब जा कर छोड़ा । दूसरों के खेत-खलिहान से अनाज उड़ा लिया करता था । कई बार तो खुद उसी ने पकड़ा था; पर गाँव -घर का समझकर छोड़ दिया ।
सोना ने बाहर आ कर कहा- भाभी, अम्माँ ने कहा है, अनाज निकालकर धूप में डाल दो, नहीं तो चोकर बहुत निकलेगा । पण्डित ने जैसे बखार में पानी डाल दिया हो ।
मातादीन ने अपनी सफाई दी-मालूम होता है, तेरे घर बरसात नहीं हुई । चौमासे में लकड़ी तक गीली हो जाती है, अनाज तो अनाज ही है ।
यह कहता हुआ वह बाहर चला गया । सोना ने आकर उसका खेल बिगाड़ दिया ।
सोना ने झुनिया से पूछा-मातादीन क्या करने आये थे?
झुनिया ने माथा सिकोड़ कर कहा-पगहिया माँग रहे थे । मैंने कह दिया यहाँ पगहिया नहीं है ।
‘यह सब बहाना है । बड़ा खराब आदमी है ।’
‘मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है । क्या खराबी है उसमें?’
‘तुम नहीं जानती! सिलिया चमारिन को रखे हुए है ।’
‘तो इसी से खराब आदमी हो गया?’
‘ और काहे से आदमी खराब कहा जाता है?’
‘तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाये हैं । वह भी खराब आदमी हैं?’
सोना ने इसका जवाब न देकर कहा-मेरे घर में फिर आयेगा, तो दुत्कार दूँगी ।
‘और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जाये?’
सोना लजा गयी-तुम तो भाभी, गाली देती हो ।
‘क्यों, इसमें गाली की क्या बात है?’
‘मुझसे बोले, तो मुँह झुलस दूँ ।’
‘तो क्या तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा । गांव में ऐसा सुन्दर, सजीला जवान दूसरा कौन है?.
‘तो तुम चली जाओ उसके साथ, सिलिया से लाख दर्जे अच्छी होके ।’
‘मैं क्यों चली जाऊँ? मैं तो एक के साथ चली आयी । अच्छा है या बुरा ।’
‘तो मैं भी जिसके साथ ब्याह होगा, उसके साथ चली जाऊँगी, अच्छा हो या बुरा ।’
‘और जो किसी बूढ़े के साथ ब्याह हो गया?’
सोना हंसी-मैं उसके लिए नरम-नरम रोटियाँ पकाऊँगी, उसकी दवाइयाँ कूटू-छानूँगी, उसे हाथ पकड़कर उठाऊंगी, जब मर जायेगा, तो मुँह ढांपकर रोऊँगी ।
‘और जो किसी जवान के साथ हुआ!’
‘तब तुम्हारा सिर, ही नहीं हो!’
‘ अच्छा बताओ, तुम्हें बूढ़ा अच्छा लगता है, कि जवान?’
‘जो अपने को चाहे वही जवान है, न चाहे वही बूढ़ा है ।’
‘दैव करे, तुम्हारा ब्याह किसी बूढ़े से हो जाय, तो देखूँ, तुम उसे कैसे चाहती हो । तब मनाओगी, किसी तरह यह निगोड़ा मर जाये, तो किसी जवान को लेकर बैठ जाऊँ ।’
‘मुझे तो उस बूढ़े पर दया आये ।’
इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था । उसके कारिन्दे और दलाल गाँव-गाँव घूमकर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले जाते थे । वही मिल थी, जो मिस्टर खन्ना ने खोली था । एक दिन उसका कारिन्दा इस गांव में भी आया । किसानों ने उससे भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड बनाने में कोई बचत नहीं है; जब घर में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है, तो पेरने की मेहनत क्यों उठायी जाये? सारा गांव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया; अगर कुछ कम भी मिले, तो परवाह नहीं । तत्काल तो मिलेगा! किसी को बैल लेना था, किसी को बाकी चुकाना था, कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था । होरी को बैलों की गोई लेनी थी । अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी, इसलिए यह डर भी था कि माल न पड़ेगा । और जब गुड के भाव मिल की चीनी मिलेगी, तो गुड लेगा ही कौन? सभी ने बयाने ले लिए । होरी को कम-से-कम परी रुपये की आशा थी । इसमें एक मामूली गोई आ जायेगी, लेकिन महाजनों को क्या करें! दातादीन, मंगरू, दुलारी, झिंगुरीसिंह सभी तो प्राण खा रहे थे । अगर महाजनों को देने लगेगा, तो सौ रुपये सूद-भर को भी न होंगे! कोई ऐसी जुगुत न सूझती कि ऊख के रुपये हाथ आ जायें और किसी को ख़बर न हो । जब बैल घर आ जायेंगे, तो कोई क्या कर लेगा? गाडी लदेगी, तो सारा गाँव देखेगा ही, तौल पर जो रुपये मिलेंगे, वह सबको मालूम हो जायेंगे । सम्भव है मंगरू और दातादीन हमारे साथ-साथ रहें । इधर रुपये मिले, उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी ।
शाम को गिरधर ने पूछा-तुम्हारी ऊख कब तक जायेगी होरी काका?
होरी ने झांसा दिया-अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाई, तुम कब तक ले जाओगे! गिरधर ने भी झाँसा दिया-अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका!
और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ बताते थे, किसी को किसी पर विश्वास न था । झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ थे, और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपये न पड़ने पायें, नहीं वह सबका सब हजम कर जायेगा । और जब दूसरे दिन असामी फिर रुपये माँगने जायेगा, तो नया कागज, नया नज़राना, नई तहरीर । दूसरे दिन सोभा आकर बोला-दादा कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरी को हैजा हो जाये । ऐसा गिरे कि फिर न उठे ।
होरी ने मुस्कुराकर कहा-क्यों, उसके बाल-बच्चे नहीं हैं?
‘उसके बाल-बच्चों को देखें कि अपने बाल-बच्चों को देखें? वह दो-दो मेहरियों को आराम से रखता है, यही तो एक को रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं, सारी जमा ले लेगा । एक पैसा भी घर न जाने देगा ।’
‘मेरी तो हालत और भी खराब है भाई, अगर रुपये हाथ से निकल गये तो तबाह हो जाऊँगा । गोई के बिना तो काम न चलेगा ।’
‘अभी तो दो-तीन दिन ऊख ढोते लगेंगे । ज्यों ही सारी ऊख पहुँच जाये, जमादार से कहें कि भैया कुछ ले ले, मगर ऊख चटपट तौल दे, दाम पीछे देना । इधर झिंगुरी से कह देंगे, अभी रुपये नहीं मिले ।’
होरी ने विचार करके कहा-झिंगुरीसिंह इसमें तुमसे कई गुना चतुर है सोभा! जाकर मुनीम से मिलेगा और उसी से रुपये ले लेगा । हम-तुम ताकते रह जायेंगे । जिस खन्ना बाबू की मिल है, उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है । दोनों एक हैं ।
सोभा निराश होकर बोला-न जाने इन महाजनों से भी कभी गला छूटेगा कि नहीं ।
होरी बोला-इस जनम में तो कोई आशा नहीं है भाई! हम राज नहीं चाहते, भोग-विलास नहीं चाहते, खाली मोटा-झोटा पहनना, और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं । वह भी नहीं सधता ।
सोभा ने धूर्तता के साथ कहा-मैं तो दादा, इन सबों को अबकी चकमा दूँगा । जमादार को कुछ दे-दिलाकर इस बात पर राजी कर लूँगा कि रुपये के लिए हमें खूब दौड़ाये । झिंगुरी कहीं तक दौड़ेंगे ।
होरी ने हंसकर कहा-यह सब कुछ न होगा भैया! कुशल इसी में है कि झिंगुरी के हाथ-पाँव जोड़ो । हम जाल में फँसे हुए हैं । जितना ही फड़फड़ाओगे, उतना ही और जकड़ते जाओगे ।
‘तुम तो दादा, बूढ़ों की-सी बातें कर रहे हो । कटघरे में फँसे बैठे रहना तो कायरता है । फन्दा और जकड़ जाये बला से; पर गला छुड़ाने के लिए जोर लगाना ही पड़ेगा । यही तो होगा, झिंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लेंगे; करा लें नीलाम! मैं तो चाहता हूँ कि हमें कोई रुपये न दे, हमें भूखों मरने दे, लात खाने दे, एक पैसा भी उधार न दे; लेकिन पैसा वाले उधार न दें तो सूद कहीं से पायें । एक हमारे ऊपर दावा करता है, तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपये उधार देकर अपने जाल में फँसा लेता है । मैं तो उसी दिन रुपये लेने जाऊँगा, जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा ।
होरी का मन भी विचलित हुआ-हाँ यह ठीक है ।
‘ऊख तुलवा देंगे । रुपये दाँव-घात देखकर ले आयेंगे ।’
‘बस बस, यही चाल चलो ।’
दूसरे दिन प्रात: काल गाँव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की । होरी भी अपने खेत में गंडासा लेकर पहुँचा । उधर से शोभा भी उसकी मदद को आ गया । पुनिया, झुनिया, धनिया, सोना सभी खेत में जा पहुँची । कोई ऊख काटता था, कोई छोलता था, कोई पूले बाँधता था । महाजनों ने जो ऊख कटते देखी, तो पेट में चूहे दौड़े । एक तरफ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ से मंगरू पगह, तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के पियादे । दुलारी हाथ-पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े पहने, कानों में सोने का झूमक, आँखों में काजल लगाये, बूढ़े यौवन को रंग-गाये आकर बोली-पहले मेरे रुपये दे दो तब ऊख काटने दूँगी । मैं जितना ही गम खाती हूँ, उतने ही तुम शेर होते हो । दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया, पचास रुपये तो मेरे सूद के होते हैं ।
होरी ने घिघियाकर कहा-भाभी, ऊख काट लेने दो, इनके रुपये मिलते हैं, तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूँगा । न गाँव छोड़कर भागा जाता हूँ, न इतनी जल्द मौत ही आयी जाती है । खेत में खड़ी ऊख तो रुपये न देगी?
दुलारी ने उसके हाथ से गँड़ासा छीनकर कहा-नीयत इतनी खराब हो गयी है तुम लोगों की, तभी तो बरक्कत नहीं होती ।
आज पाँच साल हुए, होरी ने दुलारी से तीस रुपये लिये थे, तीन साल में उसके सौ रुपये हो गये, तब स्टाम्प लिखा गया । दो साल में उस पर पचास रुपया सूद चढ़ गया था ।
होरी बोला-सहुआइन, नीयत तो कभी खराब नहीं की, और भगवान चाहेंगे, तो पाई-पाई चुका दूँगा । हाँ, आजकल तंग हो गया हूँ, जो चाहे कह लो ।
सहुआइन को जाते देर नहीं हुई कि मंगरू साह पहुँचे । काला रंग, तोंद कमर के नीचे लटकती हुई. दो-दो बड़े-बड़े दाँत सामने जैसे काट खाने को निकले हुए, सिर पर टोपी, गले में चादर, उम्र अभी पचास से ज्यादा नहीं; पर लाठी के सहारे चलते थे । गठिया का मरज हो गया था । खाँसी भी आती थी । लाठी टेककर खड़े हो गये और होरी को डांट बतायी-पहले हमारे रुपये दे दो होरी, तब ऊख काटो । हमने रुइपये उधार दिये थे, खैरात नहीं थे । तीन-तीन साल हो गये, न सूद न ब्याज; मगर यह न समझना कि तुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे । मैं तुम्हारे मुर्दे से भी वसूल कर लूँगा ।
सोभा मसखरा था । बोला-तब काहे को घबड़ाते हो साहजी, इनके मुर्दे ही से वसूल कर लेना । नहीं, एक-दो साल के आगे पीछे दोनों ही सरग में पहुंचोगे । वहीं भगवान के सामने अपना हिसाब चुका लेना ।
मंगरू ने सोभा को बहुत बुरा-भला कहा-जमादार, बेईमान इत्यादि । लेने की बेर तो दुम हिलाते हो, जब देने की बारी आती है, तो गुर्राते हो । घर बिकवा लूँगा; बैल-बधिये नीलाम करा लूँगा ।
सोभा ने फिर छेड़ा-अच्छा ईमान से बताओ साह, कितने रुपये दिये थे, जिसके अब तीन सौ रुपये हो गये हैं?
‘जब तुम साल-के-साल सूद न दोगे, तो आप ही बढ़ेंगे ।’
‘पहले-पहल कितने रुपये दिये थे तुमने? पचास ही तो ।’
‘कितने दिन हुए होंगे?’
पाँच छः साल हुए होंगे?’
‘दस साल हो गये पूरे, ग्यारहवां जा रहा है ।’
‘पचास रुपये के तीन सौ रुपये लेते तुम्हें ज़रा भी सरम नहीं आती ।’
‘सरम कैसी, रुपये दिये हैं कि खैरात माँगते हैं ।’
होरी ने इन्हें भी चिरौरी-बिनती करके बिदा किया । दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी । बीज देकर आधी फसल ने लेंगे । इस वक़्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीति विरुद्ध था । झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कुरु-सुन रखा था । उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवाकर नाव पर पहुँचा रहे थे । नदी गांव से आध मील पर थी । एक गाड़ी दिन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी । इस तरह बहुत किफायत पड़ती थी । इस सुविधा का इन्तजाम करके झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया । हर एक की ऊख तौलाते थे, दाम का पुरजा लेते थे, खजांची से रुपये वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को दे देते थे । असामी कितना ही रोये, चीखे, किसी की न सुनते थे । मालिक का यही हुक्म था । उनका क्या बस ।
होरी को एक सौ बीस रुपये मिले । उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये होरी के हवाले किये ।
होरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव से देखकर कहा-यह लेकर मैं क्या करूँगा ठाकुर, यह भी तुम्हीं ले लो । मेरे लिए मजूरी बहुत मिलेगी ।
झिंगुरी ने पचीसों रुपये जमीन पर फेंककर कहा-लो या फेंक दो, तुम्हारी खुशी । तुम्हारे कारण मालिक की घुड़कियां खायी और अभी राय साहब सिर पर सवार हैं कि डांड के रुपये अदा करो । तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने दिये देता हूँ, नहीं एक -खेला भी न देता । अगर राय साहब ने सख्ती की तो उलटे और घर से देने पड़ेंगे ।
होरी ने धीरे से रुपये उठा लिये और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा । होरी ने जाकर पचीसों रुपये उनके हाथ पर रख दिये, और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया । उसका सिर चक्कर खा रहा था । सोभा को इतने ही रुपये मिले । वह बाहर निकला, तो पटेश्वरी न घेरा ।
सोभा उबल पड़ा । बोला-मेरे पास रुपये नहीं हैं; तुम्हें जो कुछ करना हो, कर लो ।
पटेश्वरी ने गर्म होकर कहा-ऊख बेची है कि नहीं?
‘हाँ, बेची है ।’
‘तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेचकर रुपया दूँगा?’
‘हाँ, था तो ।’
‘फिर क्यों नहीं देते । और सब लोगों को दिये हैं कि नहीं?’
‘हाँ, दिये हैं ।
‘तो मुझे क्यों नहीं देते?’
‘मेरे पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है ।’
पटेश्वरी ने बिगड़कर कहा-तुम रुपये दोगे सोभा, और हाथ जोड़कर और आज ही । हाँ, अभी जितना चाहो, बहक लो । एक रपट में जाओगे छः महीने को, पूरे छः महीने को, न एक दिन बेस न एक दिन कम । यह जो नित्य जुआ खेलते हो, वह एक रपट में निकल जायेगा । मैं ज़मींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और ज़मींदार दोनों का मालिक है ।
पटेश्वरी लाला आगे बढ़ गये । सोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले । मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो । तब होरी ने कहा-सोभा, इसके रुपये दे दो । समझ लो, ऊख में आग लग गयी थी । मैंने भी यही सोचकर, मन को समझाया है ।
सोभा ने आहत कंठ से कहा-हाँ, दे दूँगा । न दूँगा तो जाऊंगा कही?
सामने से गिरधर ताड़ी पिये झूमता चला आ रहा था । दोनों को देखकर बोला झिंगुरिया ने सारे-का-सारा ले लिया होरी काका! चबैना को भी एक पैसा न छोड़ा । हत्यारा कहीं का । रोया गिड़गिड़ाया; पर उस पापी को दया न आयी ।
सोभा ने कहा-ताड़ी तो पिये हुए हो, उस पर कहते हो, एक पैसा भी न छोड़ा ।
गिरधर ने पेट दिखाकर कहा-साँझ हो गयी, जो पानी की बूँद भी कंठ तले गयी हो, तो गोमांस बराबर । एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी । उसकी ताड़ी पी ली । सोचा, साल-भर पसीना गारा है, तो एक दिन ताड़ी तो पी लूँ; मगर सच कहता हूँ नशा नहीं है । एक आने में क्या नशा होगा । हाँ, झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझे खूब पिये हुए है । बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाकी हो गयी । बीस लिये, उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है ।
होरी घर पहुँचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना चिलम भर लायी, धनिया ने चबेना और नमक लाकर रख दिया और सभी भरी आँखों से उसी ओर ताकने लगी । झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी । होरी उदास बैठा था । कैसे मुंह-हाथ धोये, कैसे चबेना खाये । ऐसा लज्जित और ग्लानित था, मानो हत्या करके आया हो । धनिया ने पूछा-कितने की तौल हुई?
‘एक सौ बीस मिले; पर सब वहीं लुट गये; खेला भी न बचा ।’
धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी । मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुँह नोच ले । बोली-तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान् ने क्यों रखा, कहीं मिलते तो उनसे पूछती । तुम्हारे साथ सारी जिन्दगी तलख हो गयी, भगवान मौत भी नहीं दे देते कि जंजाल से जान छूटे । उठाकर सारे रुपये बहनोइयों को दे दिये । अब और कौन आमदनी है, जिससे गोई आयेगी । हल में क्या मुझे जोतोगे या आप जुतोगे? मैं कहती हूँ, तुम बूढ़े हुए, तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोई-भर के रुपये तो निकाल लेते! कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता । पूरन की यह ठंड और किसी की देह पर लत्ता नहीं । ले जाओ सबको नदी में डुबा दो । सिसक-सिसक कर मरने से तो एक दिन मर जाना फिर भी अच्छा है । कब तक पुआल में घुसकर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें, तो पुआल खाकर रहा तो न जायेगा! तुम्हारी इच्छा हो घास ही खाओ, हमसे तो घास न खायी जायेगी ।
यह कहते-कहते वह मुस्करा पड़ी । इतनी देर में उसकी समझ में यह बात आने लगी थी कि महाजन जब सिर पर सवार हो जाये, और अपने हाथ में रुपये हों और महाजन जानता हो कि इसके पास रुपये हैं, तो असामी कैसे अपनी जान बचा सकता है!
होरी सिर नीचा किये अपने भाग्य को रो रहा था । धनिया का मुस्कराना उसे न दिखायी दिया । बोला-मजूरी तो मिलेगी! मजूरी करके खायेंगे ।
धनिया ने पूछा-कहाँ है इस गाँव में मजूरी? और कौन मुँह लेकर मजूरी करोगे? महतो नहीं कहलाते!
होरी ने चिलम के कई कश लगाकर कहा-मजूरी करना कोई पाप नहीं है । मजूर बन जाये तो किसान हो जाता है । किसान बिगड़ जाये तो मजूर हो जाता है । मजूरी करना भाग्य में न होता तो यह सब बिपत क्यों आती? क्यों गाय मरती? क्यों लड़का नालायक निकल जाता?
धनिया ने बहू और बेटियों की ओर देखकर कहा-तुम सब-की-सब क्यों घेरे खड़ी हो, जाकर अपना-अपना काम देखो । वह और हैं जो हाट-बाजार से आते हैं, तो बाल-बच्चों के लिए दो-चार पैसे की कोई चीज़ लिये जाते हैं । यही तो यह लोभ लग रहा होगा कि रुपये तुडायें कैसे? एक कम न हो जायेगा; इसी से इनकी कमाई में बरक्कत नहीं होती । जो खरच करते हैं, उन्हें मिलता है । जो न खा सकें, न पहन सकें, उन्हें रूपये मिलें ही क्यों? जमीन में गाड़ने के लिये?
होरी ने खिलखिलाकर पूछा-कही है वह गड़ी हुई थाती?
‘जहाँ रखी है, वहीं होगी । रोना तो यही है कि यह जानते हुए भी पैसों के लिए मरते हो! चार पैसे की कोई चीज़ लाकर बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी में न पड़ जाते, झिंगुरी से तुम कह देते कि एक रुपया मुझे दे दो, नहीं मैं तुम्हें एक पैसा न दूँगा, जाकर अदालत में लेना, तो वह जरूर दे देता ।’
होरी लज्जित हो गया । अगर वह झल्लाकर पच्चीसों रुपये नोखेराम को न दे देता, तो नोखे क्या कर लेते? बहुत होता, बकाया पर दो-चार आना सूद ले लेता; मगर अब तो चूक हो गयी!
झुनिया ने भीतर जाकर सोना से कहा-मुझे तो दादा पर बड़ी दया आती है । बेचारे दिन-भर के थके-मांदे घर आये, तो अम्मा कोसने लगी । महाजन गला दबाये था, तो क्या करते बेचारे!
‘तो बैल कही से आयेंगे ।’
‘महाजन अपने रुपये चाहता है । उसे तुम्हारे घर के दुखड़ो से क्या मतलब?’
‘ अम्मा वहाँ होती, तो महाजन को मजा चखा देती । अभागा रोकर रह जाता ।’
झुनिया ने दिल्लगी की-तो यही रुपये की कौन कमी है । तुम महाजन से ज़रा हंसकर बोल दो, देखो सारे रुपये छोड़ देता है कि नहीं । सच कहती हूँ, दादा का सारा दुख-दलिद्दर दूर हो जाये ।
सोना ने दोनों हाथों से उसका मुँह दबाकर कहा-बस, चुप ही रहना, नहीं कहे देती हूँ । अभी जाकर अम्मा से मातादीन की सारी कलई खोल दूँ तो रोने लगो । झुनिया ने पूछा-क्या कह दोगी अम्माँ से? कहने को कोई बात भी हो । जब वह किसी बहाने से घर में आ जाते हैं, तो क्या कह दूँ कि निकल जाओ, फिर मुझसे कुछ ले तो नहीं जाते । कुछ अपना ही दे जाते हैं । सिवाय मीठी-मीठी बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं पा सकते! और अपनी मीठी बातों को महँगे दामों बेचना भी मुझे आता है । मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ कि किसी के झाँसे में आ जाऊँ । हाँ, जब जान जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वही किसी को रख लिया है, तब की नहीं चलाती । तब मेरे ऊपर किसी का कोई बन्धन न रहेगा । अभी तो मुझे विश्वास है कि वह मेरे हैं और मेरे ही कारण उन्हें गली-गली ठोकर खानी पड़ रही है । हँसने-बोलने की बात न्यारी है, पर मैं उनसे विश्वासघात न करूँगी? जो एक से दो का हुआ, वह किसी का नहीं रहता ।
सोभा ने आकर होरी को पुकारा और पटेश्वरी के रुपये उसके हाथ में रखकर बोला-भैया, तुम जाकर ये रुपये लाला को दे दो । मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था ।
होरी रुपये लेकर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आयी । गाँव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे । पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुए, दस साल के बाद रज लेकर आये थे । बगदाद, अदन, सिंगापुर बर्मा-चारों तरफ घूम चुके थे । अब ब्याह करने की धुन में थे । इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे ।
होरी ने कहा-जान पड़ता है, सातों अध्याय पूरे हो गये । आरती हो रही है । सोभा बोला-हाँ, जान तो पड़ता है, चलो आरती ले लो ।
होरी ने चिन्तित भाव से कहा-तुम जाओ, मैं थोड़ी देर में आता हूँ ।
ध्यानसिंह जिस दिन आये थे, सब के घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी । होरी से जब कभी रास्ते में मिल जाते, कुशल पूछते । उनकी कथा में जाकर आरती में कुछ न देना अपमान की बात थी ।
आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा । उनके सामने होरी कैसे खाली हाथ आरती ले लेगा! इससे तो कहीं अच्छा है कि वह कथा में जाये ही नहीं । इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आयेगी कि होरी नहीं आया । कोई रजिस्टर लिये तो बैठा नहीं है कि कौन आया, कौन नहीं आया । वह जाकर खाट पर लेट रहा । मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर रह जाता था । उसके पास एक पैसा भी नहीं है! ताँबे का एक पैसा! आरती के पुण्य और माहात्मय का उसे बिल्कुल ध्यान न था’ । बात थी केवल व्यवहार की । ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट देकर ने सकता था; लेकिन मर्यादा कैसे तोड़े, सबकी आंखों में हेठा कैसे बने! सहसा वह उठ बैठा! क्यों मर्यादा की गुलामी करे । मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़े । लोग हँसेंगे, हँस लें । उसे परवा नहीं है । भगवान् उसे कुकर्म से बचाये रखें, और वह कुछ नहीं चाहता ।
वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा ।