भाग-12 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-12 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

भाग-12 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-12 - godan - munshi premchand

गोदान – भाग-12

रात को गोबर झुनिया के साथ चला, तो ऐसा काँप रहा था, जैसे उसकी नाक कटी हुई हो । झुनिया को देखते ही सारे गाँव में कुहराम मच जायेगा, लोग चारों ओर से कैसी हाय-हाय मचायेंगे, धनिया कितनी गालियाँ देगी, यह सोच-सोचकर उसके पाँव पीछे रहे जाते थे । होरी का तो उसे भय न था । वह केवल एक बार धाड़ेंगे, फिर शान्त हो जायेंगे । डर था, धनिया ज़हर खाने लगेगी, घर में आग लगाने लगेगी । नहीं, इस वक़्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता । लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाडू लेकर मारने दौड़ी, तो वह बेचारी कहाँ जायेगी । अपने घर तो लौट ही नहीं सकती । कहीं कुएँ में कूद पड़े या गले में फाँसी लगा ले, तो क्या हो! उसने लम्बी साँस ली । किस की शरण ले ।मगर अम्माँ इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़े । क्रोध में दो-चार गालियाँ देगी। लेकिन जब झुनिया उसके पाँव पड़कर रोने लगेगी, तो उन्हें जरूर दया आ जायेगी । तब तक वह खुद कहीं छिपा रहेगा । जब उपद्रव शान्त हो जायेगा, तब वह एक दिन धीरे से आयेगा और अम्मा को मना लेगा, अगर इस बीच में उसे कहीं मजूरी मिल जाये और दो-चार रुपये लेकर घर लौटे, तो फिर धनिया का मुँह बन्द हो जायेगा । झुनिया बोली-मेरी छाती धक-धक कर रही है । मैं क्या जानती थी, तुम मेरे गले यह रोग मढ़ दोगे । न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा । न तुम गाय लेने आते, न यह सब कुछ होता । तुम आगे-आगे जाकर जो कहना-सुनना हो, कह-सुन लेना । मैं पीछे से आ जाऊँगी ।गोबर ने कहा-नहीं-नहीं, पहले तुम आना और कहना, मैं बाजार से सौदा बेचकर घर जा रही थी । रात हो गयी है, अब कैसे जाऊं । तब तक मैं आ जाऊँगा । झुनिया ने चिन्तित मन से कहा-तुम्हारी अम्माँ बड़ी गुस्सैल हैं । मेरा तो जी काँपता है । कही मुझे मारने लगें तो क्या करूंगी । गोबर ने धीरज दिलाया-अम्माँ की आदत ऐसी नहीं । हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहीं, तुम्हें क्या मारेंगी । उनको जो कुछ कहना होगा मुझे कहेंगी, तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं । गाँव समीप आ गया । गोबर ने ठिठककर कहा-अब तुम जाओ ।झुनिया ने अनुरोध किया-तुम भी देर न करना । नहीं-नहीं, छन भर में आता हूँ, तू चल तो । मेरा जी न जाने कैसा हो रहा है । तुम्हारे ऊपर क्रोध आता है । तुम इतना डरती क्यों हो? मैं तो आ ही रहा हूँ । इससे तो कहीं अच्छा था कि किसी दूसरी जगह भाग चलते । जब अपना घर है, तो क्यों कहीं भागें? तुम नाहक डर रही हो । जल्दी आ आओगे न? हाँ-हाँ, अभी आता हूँ । मुझसे दग़ा तो नहीं कर रहे हो? मुझे घर भेजकर आप कहीं चलते बनो । इतना नीच नहीं हूँ सुना! जब तेरी बाँह पकड़ी है, तो मरते दम तक निभाऊंगा । झुनिया घर की ओर चली । गोबर एक क्षण दुविधा में पड़ा खड़ा रहा । फिर एकाएक सिर पर मँडराने वाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गयी । कहीं सचमुच अम्माँ मारने दौड़े, तो क्या हो? उसके पाँव जैसे धरती से चिपट गये । उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा-सा बाग था । झुनिया की काली परछाई धीरे-धीरे जाती हुई दीख रही थी । उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ बहुत तेज़ हो गयी थी । उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे अम्माँ झुनिया को गाली दे रही हैं । उसके मन की कुछ ऐसी दशा हो रही थी, मानो सिर पर गड़ासे का हाथ पड़ने वाला हो । देह का सारा रक्त जैसे सुख गया हो । एक क्षण के बाद उसने देखा, जैसे धनिया घर से निकलकर कहीं जा रही हो । दादा के पास जाती होगी! साइत दादा खा-पीकर मटर अगोरने चले गये हैं । वह मटर के खेत की ओर चला । जो गेहूँ के खेतों को रौंदता हुआ वह इस तरह भागा जा रहा था, मानों पीछे दौड़ आ रही है । वह है दादा की मड़ैया । वह रुक गया और दबे पाँव जाकर मड़ैया के पीछे बैठ गया । उसका अनुमान ठीक निकला । वह पहुंचा ही था कि धनिया की बोली सुनायी दी । ओह! गजब हो गया । अम्माँ इतनी कठोर हैं । एक अनाथ लड़की पर इन्हें तनिक भी दया नहीं आती । और जो मैं भी सामने जाकर फटकार दूँ कि तुमकी झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं है, तो सारी सेखी निकल जाये । अच्छा! दादा भी बिगड़ रहे हैं । केले के लिए आज ठीकरा भी तेज़ हो गया । मैं ज़रा अदब करता हूँ, उसी का फल है । यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं । अगर झुनिया को इन्होंने मारा-पीटा तो मुझसे न सहा जायेगा । भगवान! अब तुम्हारा ही भरोसा है । मैं न जानता था इस विपत में जान फँसेगी । झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्त, कायर और नीच समझ रही होगी; मगर उसे मार कैसे सकते हैं? क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं । अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठाया तो आज महाभारत हो जायेगा । माँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें, तब तक माँ-बाप हैं । जब उनमें ममता ही नहीं है, तो कैसे माँ-बाप! होरी ज्यों ही मँड़ैया से निकला, गोबर भी दबे पाँच धीरे-धीरे पीछे-पीछे चला; लेकिन द्वार पर प्रकाश देखकर उसके पाँव बँध गये । उस प्रकाश रेखा के अन्दर वह पाँव नहीं रख सकता । वह अँधेरे में ही दीवार से चिपट कर खड़ा हो गया । उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया । हाय! बेचारी झुनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे हैं, और वह कुछ नहीं कर सकता । उसने खेल-खेल में जो एक चिनगारी फेंक दी थी, वह सारे खलिहान को भस्म कर देगी, यह उसने न समझा था । और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आकर कहे-हाँ, मैंने चिनगारी फेंकी थी । जिन टिकौनों से उसने मन को सँभाला था, वे सब इस भूकम्प में नीचे आ रहे और वह झोपड़ा नीचे गिर पड़ा । वह पीछे लौटा । अब वह झुनिया को क्या मुँह दिखाये । वह सौ कदम चला; पर इस तरह. जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे । उसने झुनिया से प्रीति और निबाह की जो बातें की थी, वह सब याद आने लगी । वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आयी, जब वह अपने उन्मत्त साँसों में, अपनी नशीली चितवनों में मानों अपने प्राण निकालकर उसके चरणों पर रख देता था । झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे-से घोंसले में एकान्त-जीवन काट रही थी । वही नर का मत्त आग्रह न था; न वह उद्दीप्त उल्लास, न शावकों की मीठी आवाजें; मगर बहेलिये का जाल और छल भी तो वहाँ न था । गोबर ने उसके एकान्त घोसले में जाकर उसे कुछ आनन्द पहुँचाया या नहीं, कौन जाने; पर उसे विपत्ति में तो डाल ही दिया । वह सँभल गया । भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुनकर पीछे लौट पड़ा । उसने द्वार पर आकर देखा, तो किवाड़ बन्द हो गये थे । किवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रेखाएँ बाहर निकल रही थी । उसने एक दराज से अन्दर झींका धनिया और झुनिया बैठी हुई थी । होरी खड़ा था । झुनिया की सिसकियाँ सुनायी दे रही थी और धनिया उसे समझा रही थी-बेटी, तू चलकर घर में बैठ । मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूंगी । जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिन्ता नहीं है । हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आंखों देख भी न सकेगा । गोबर गद्गद हो गया । आज वह किसी लायक होता तो दादा और अम्माँ को सोने से मढ़ देता और कहता-अब तुम कुछ काम न करो, आराम से बैठे खाओ और जितना दान-पुन चाहो, करो । झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका नहीं है । वह उसे जो आश्रय देना चाहता था वह मिल गया । झुनिया उसे दगाबाज समझती है, तो समझे । वह तो अब तभी घर जायेगा, जब वह पैसे के बल से सारे गाँव का मुँह बन्द कर सके और दादा और अम्मा उसे कुल का कलंक न समझकर कुल का तिलक समझे । मन पर जितना ही गहरा आघात होता है, उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है । इस अपकीर्ति और कलंक ने गोबर के अन्तस्तल को मथकर वह रत्न निकाल लिया, जो अभी तक छिपा पड़ा था । आज पहली बार उसे अपने दायित्व का ज्ञान हुआ और उसके साथ ही संकल्प भी । अब तक वह कम-से-कम काम करता और ज्यादा-से-ज्यादा खाना अपना हक समझता था । उसके मन में कभी यह विचार ही नहीं उठा था कि घर वालों के साथ उसका भी कुछ कर्तव्य है । आज माता-पिता की उदात्त क्षमा ने जैसे उसके हृदय में प्रकाश डाल दिया । जब धनिया और झुनिया भीतर चली गयी, तो वह होरी की उसी मँडैया में जा बैठा और भविष्य के मंसूबे बाँधने लगा । शहर में बेलदारों को पाँच-छः आने रोज मिलते हैं, यह उसने सुन रखा था । अगर छः आने रोज मिलें और वह एक आने में गुजर कर ले, तो पाँच आने रोज बच जायँ । महीने में दस रुपये होते हैं, और साल-भर में सवा सौ । वह सवा सौ की थैली लेकर घर आये, तो किसकी मजाल है, जो उसके सामने मुँह खोल सके । यही दातादीन और यही पटेसुरी आकर उसकी हाँ-में-हाँ मिलायेंगे । और झुनिया तो मारे गर्व के फूल जाय । दो चार साल वह इसी तरह कमाता रहे, तो घर का सारा दलिद्दर मिट जाये । अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ नहीं होती । अब वह अकेला सवा सौ कमायेगा । यही तो लोग कहेंगे कि मजूरी करता है । कहने दो । मजूरी करना कोई पाप तो नहीं है और सदा छः आने ही थोड़े मिलेंगे । जैसे-जैसे वह काम में होशियार होगा, मजूरी भी तो बढ़ेगी । तब वह दादा से कहेगा, अब तुम घर बैठकर भगवान् का भजन करो । इस खेती में जान खपाने के सिवा और क्या रखा है । सबसे पहले वह एक पछायीं गाय लायेगा, जो चार-पाँच सेर दूध देगी और दादा से कहेगा, तुम गऊ माता की सेवा करो । इससे तुम्हारा लोक भी बनेगा, परलोक भी ।
और क्या, एक आने में उसका गुजर आराम से होगा? घर-द्वार लेकर क्या करना है । किसी के ओसारे में पड़ा रहेगा! सैकड़ों मन्दिर हैं, धरमसाले हैं और फिर जिसकी वह मजूरी करेगा, क्या वह उसे रहने के लिए जगह न देगा? आटा रुपये का दस सेर आता है । एक आने में ढाई पाव हुआ । एक आने का तो वह आटा ही खा जायेगा । लकड़ी, दाल, नमक, साग यह सब कही से आयेगा? दोनों जून के लिए सेर भर तो आटा ही चाहिये । ओह! खाने की तो कुछ न पूछो । मुट्ठी भर चने में भी काम चल सकता है । हलुआ और पूरी खाकर भी काम चल सकता है । जैसी समाई हो । वह आध सेर आटा खाकर दिन भर मजे से काम कर सकता है । इधर-उधर से उपले चुन लिये, लकड़ी का काम चल गया । कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू । आलू भूनकर मुरता बनाया और मजे से खाकर सो रहे । घर ही पर कौन दोनों जून रोटी मिलती है, एक जून चबेना ही मिलता है । वहाँ भी एक जून चबेने पर काटेंगे ।
उसे शंका हुई; अगर कभी मजूरी न मिली, तो वह क्या करेगा? मगर मजूरी क्यों न मिलेगी? जब वह जी तोड़कर काम करेगा, तो सौ आदमी उसे बुलायेंगे । काम सबको प्यारा होता है, चाम नहीं प्यारा होता है । यही भी तो सूखा पड़ता है, पाला गिरता है, ऊख में दीमक लगते हैं, जौ में गेरुई लगती है, सरसों में लाही लग जाती हैं । उसे रात को कोई काम मिल जायेगा, तो उसे भी न छोड़ेगा । दिन-भर मजूरी की; रात कहीं चौकीदारी कर लेगा । दो आने भी रात के काम में मिल जायँ, तो चाँदी है । जब वह लौटेगा, तो सबके लिये साड़ियाँ लायेगा । झुनिया के लिए हाथ का कंगन जरूर बनवायेगा और दादा के लिए एक डाला लायेगा । इन्हीं मनमोदकों का स्वाद लेता हुआ वह सो गया, लेकिन ठंड में नींद कही! किसी तरह रात काटी और तड़के उठकर लखनऊ की सड़क ली । बीस कोस ही तो है । साँझ तक पहुँच जायगा । गाँव का कौन आदमी वहाँ आता-जाता है और वह अपना ठिकाना नहीं लिखेगा, नहीं दादा दूसरे ही दिन सिर पर सवार हो जायँगे । उसे कुछ पछतावा था, तो यही कि झुनिया से क्यों न साफ-साफ कह दिया-अभी तू घर जा, मैं थोड़े दिनों में कुछ कमा कर लौटूँगा; लेकिन तब वह घर जाती ही क्यों । कहती-मैं भी तुम्हारे साथ लौटूँगी । उसे वह कहाँ-कहाँ बाँधे फिरता ।
दिन चढ़ने लगा । रात को कुछ न खाया था । भूख मालूम होने लगी । पाँव लड़खड़ाने लगे । कही बैठकर दम लेने की इच्छा होती थी । बिना कुछ पेट में डाले वह अब नहीं चल सकता; लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है । सड़क के किनारे झड़बेरियों के झाडू थे । उसने थोड़े से बेर तोड़ लिये और उदर को सहलाता हुआ चला । एक गाँव में गुड पकने की सुगन्ध आयी । अब मन न माना । कोल्हाड़ में जाकर लोटा-डोर माँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा-अरे भाई, क्या निरला ही पानी पियोगे? थोड़ा-सा मीठा खा लो । अबकी और चला लें कोख और बना लें खाँड । अगले साल तक मिल तैयार हो जायेगी । सारी ऊख खड़ी बिक जायेगी । गुड़ और खाँड के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिड़िया लाकर दी । गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया । तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया । अभी चिलम नहीं पीता । बुड्ढ़े ने प्रसन्न होकर कहा-बड़ा अच्छा करते हो भैया! बुरा रोग है । एक बेर पकड़ ले तो जिन्दगी भर नहीं छोड़ता ।
इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया, चाल तेज़ हुई । जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया । एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किये बैठी थी । पति सामने खड़ा उसे मना रहा था । दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गये थे, गोबर भी खड़ा हो गया । मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा? युवती ने पति की ओर घूरकर कहा-मैं न जाऊँगी, न जाऊँगी, न जाऊँगी । पुरुष ने जैसे अल्टिमेटम दिया-न जाएगी? न जाऊँगी । न जाएगी? न जाऊँगी । पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू किया । युवती भूमि पर लोट गयी । पुरुष ने हारकर कहा-मैं फिर कहता हूँ, उठकर चल । स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा-मैं तेरे घर सात जन्म न जाऊँगी, बोटी-बोटी काट डाल । मैं तेरा गला काट लूँगा । तो फाँसी पाओगे । पुरुष ने उसके केश छोड़ दिये और सिर पर हाथ रखकर बैठ गया । पुरुषत्व अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया । इसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है ।
एक क्षण में वह फिर खड़ा और परास्त स्वर में बोला-आखिर तू क्या चाहती हैं? युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली-मैं यही चाहती हूँ, तू मुझे छोड़ दे ।
‘कुछ मुँह से कहेगी, क्या बात हुई? मेरे भाई-बाप को कोई क्यों गाली दे? किसने गाली दी, तेरे भाई-बाप को? जाकर अपने घर में पूछ! चलेगी तभी तो पूछँगा? तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है । जाकर अम्मा के आंचल में मुँह ढाँककर सो । वह तेरी माँ होगी । मेरी कोई नहीं है । तू उसकी गालियाँ सुन । मैं क्यों सुनूं एक रोटी खाती हूँ, तो चार रोटी का काम करती हूँ । क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी नहीं जानती!
राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनंद आ रहा था; मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी । मंजिल खोटी होती थी । एक-एक करके लोग खिसकने लगे । गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी । भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था । मैदान खाली हुआ, तो बोला-भाई, मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती । पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकालकर पूछा-तुम कौन हो?
गोबर ने निःशंक भाव से कहा- मैं कोई हूं लेकिन अनुचित बात देखकर सभी को बुरा लगता है । पुरुष ने सिर हिलाकर कहा-मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आयी, तभी इतना दर्द है । मेहरिया आयेगी, तो भी उसके झोंटे पकड़कर न खीचूँगा । अच्छा, तो अपनी राह लो । मेरी औरत है, मैं उसे मारूँगा, काटूंगा । तुम कौन होते हो बोलने वाले । चले जाओ सीधे से, यही मत खड़े हो । गोबर का गर्म खून और गर्म हो गया । वह क्यों चला जाये । सड़क सरकार की है । किसी के बाप की नहीं है । वह जब तक चाहे, वही खड़ा रह सकता है । वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है । पुरुष ने ओठ चबाकर कहा-तो तुम न जाओगे? आऊँ? गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार होकर बोला-तुम आओ या न आओ । मैं तो तभी जाऊँगा, जब मेरी इच्छा होगी । तो मालूम होता है, हाथ पैर तुड़वाकर जाओगे । यह कौन जानता है, किसके हाथ-पाँव टूटेंगे । तो तुम न जाओगे? ‘ना । पुरुष मुट्ठी बांधकर गोबर की ओर झपटा । उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली-तुम क्यों लड़ाई करने में उतारू हो रहे हो जी, अपनी राह क्यों नहीं जाते । यहाँ कोई तमाशा है? हमारा आपस का झगड़ा है । कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डांटती हूँ । तुमसे मतलब! गोबर यह धिक्कार पाकर चलता बना । दिल में कहा-यह औरत मार खाने ही लायक है । गोबर आगे निकल गया, तो युवती ने पति को डाँटा-तुम सबसे लड़ने क्यों लगते हो । उसने कौन-सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लग गयी । बुरा काम करोगे, तो दुनिया बुरा कहेगी ही, मगर है किसी भले घर का और अपनी बिरादरी का ही जान पड़ता है । क्यों उसे अपनी बहन के लिए नहीं ठीक कर लेते? पति ने सन्देह के स्वर में कहा-क्या अब तक कुँवारा बैठा होगा? तो पूछ ही क्यों न लो? पुरुष ने दस कदम दौड़कर गोबर को आवाज दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया । गोबर ने समझा, शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआ, तभी ललकार रहा है । मार खाये बिना न मानेगा । अपने गांव में कुत्ता भी शेर हो जाता है । लेकिन आने दो । लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थी । मैत्री का निमन्त्रण था । उसने गांव और नाम और जाति पूछी । गोबर ने ठीक-ठीक बता दिया । उस पुरुष का नाम कोदई था । गोबर ने बताया, उसके मौरूसी पाँच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती मैंने तुम्हें जो भला-बुरा कहा, उसकी माफी दे दो भाई! क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है । औरत गुन-सहूर में लच्छिमी है, मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार हो जाता है । अब तुम्हीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस है? जन्म तो उन्होंने दिया है, पाला-पोसा तो उन्होंने है । जब कोई बात होगी, तो मैं जो कुछ कहूंगा, लुगाई ही से कहूँगा । उस पर अपना बस है । तुम्हीं सोचो, मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँ । हाँ, मुझे उसका बाल पकड़कर घसीटना न था, लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिये काबू में भी तो नहीं रहती । चाहती है, माँ से अलग हो जाऊँ । तुम्हीं सोचो कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ । अपनी माँ से? जिसने जन्म दिया? यह मुझसे न होगा । औरत रहे या जाये ।
गोबर को भी अपनी राय बदलनी पड़ी । बोला-माता का आदर करना तो सबका धर्म ही है भाई । माता से कौन उरिन हो सकता है? कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया । आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता । कोस-दो-कोस जाते-जाते साँझ हो जायेगी । रात को कहीं-न-कहीं टिकना ही पड़ेगा । गोबर ने विनोद किया- लुगाई मान गई? न मानेगी तो क्या करेगी । मुझे तो उसने ऐसी फटकार बतायी कि मैं लजा गया । वह खुद पछता रही है । चलो, जरा माता जी को समझा देना । मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता । उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप-भाई की गाली क्यों देती है । हमारी ही बहन है । चार दिन में उसकी सगाई हो जायेगी । उसकी सास हमें गालियाँ देगी, तो उससे सुना जायेगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है । माता का भी दोष है । जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी, तो हमें बुरा लगेगा ही । इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठकर चली जाये, पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती । गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था । कोदई के साथ हो लिया । दोनों फिर उसी जगह आये जहाँ युवती बैठी हुई थी । वह अब गृहिणी बन गयी थी । जरा-सा घूँघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी । कोदई ने मुस्कराकर कहा-यह तो आते ही न थे । कहते थे, ऐसी डाँट सुनने के बाद उनके घर कैसे जायँ? युवती ने घूँघट की आड़ से गोबर को देखकर कहा-इतनी ही डाँट में डर गये । लुगाई आ जायेगी, तब कहाँ भागोगे? गाँव समीप ही था । गाँव क्या था, पुरवा था, दस-बारह घरों का, जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के । कोदई ने अपने घर पहुँचकर खाट निकाली, उस पर एक दरी डाल दी । शर्बत बनाने को कह, चिलम भर लाया । और एक छण में वही युवती लोटे में शर्बत लेकर आयी और गोबर को पानी का एक छींटा मारकर मानो क्षमा माँग ली । वह उसका ननदोई हो रहा था । फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे!