भाग-10 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-10 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

गोदान – भाग-10

हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुजरते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़-धूप हो सकी की; फिर हारकर बैठ रहा । खेती-बारी की भी फिक्र करनी थी । अकेला आदमी क्या-क्या करता । और अब अपनी खेती से ज्यादा फिक्र थी पुनिया की खेती की । पुनिया अब अकेली होकर और भी प्रचण्ड हो गयी थी। होरी को अब उसकी खुशामद करते बीतती थी । हीरा था, तो वह पुनिया को दबाये रहता था । उसके चले जाने से अब पुनिया पर कोई अंकुश न रह गया था । होरी की पट्टीदारी हीरा से थी । पुनिया अबला थी । उससे वह क्या तनातनी करता । और पुनिया उसके स्वभाव से परिचित थी और उसकी सज्जनता का उसे खूब दण्ड देती थी । खैरियत यही हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बकाया लगान वसूल करने की कोई सख्ती न की, केवल थोड़ी-सी पूजा लेकर राजी हो गये । नहीं, होरी अपनी बकाया के साथ उसकी बकाया चुकाने के लिए भी कर्ज लेने को तैयार था । सावन में धान की रोपाई की ऐसी धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोप सका; लेकिन पुनिया के खेतों में कैसे न रोपाई होती । होरी ने पहर रात-रात तक काम करके उसके धान रोपे । अब होरी ही तो उसका रक्षक है। अगर पुनिया को कोई कष्ट हुआ, तो दुनिया उसी को हँसेगी । नतीजा यह हुआ कि होरी को खरीफ की फसल में बहुत थोड़ा अनाज मिला, और पुनिया के बखार में धान रखने की जगह न रही ।
होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था । गोबर से भी होरी की बोल-चाल बन्द थी । माँ-बेटे ने मिलकर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था । अपने घर में परदेशी बना हुआ था । दो नावों पर सवार होने वालों की जो दुर्गति होती है, वही उसकी हो रही थी । गाँव में भी अब उसका उतना आदर न था । धनिया ने अपने साहस से स्त्रियों का ही नहीं, पुरुषों का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था । महीनों तक आसपास के इलाकों में इस काण्ड की खूब चर्चा रही । यहाँ तक कि वह अलौकिक रूप तक धारण करता जाता था- ‘धनिया नाम है उसका जी । भवानी का इष्ट है उसे । दारोगाजी ने ज्योंही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि धनिया ने भवानी का सुमिरन किया । भवानी उसके सिर आ गयी । फिर तो उसमें इतनी शक्ति आ गयी कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोगा की मूँछें पकड़कर उखाड़ ली, फिर उसकी छाती पर चढ़ बैठी । दारोगा ने जब बहुत मिन्नत की, तब जाकर उसे छोड़ा ।’ कुछ दिन तक तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे । वह बात अब पुरानी पड़ गयी थी; लेकिन गांव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़ गया । उसमें अदभुत साहस है और समय पड़ने पर वह मर्दों के भी कान काट सकती है ।
मगर धीरे-धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था । होरी को पुनिया की खेती में लगे देखकर भी वह कुछ न बोलती थी । और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गयी थी; बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी । हीरा का घर से भाग जाना उसकी प्रतिशोध भावना की तुष्टि के लिए काफी था ।
इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा । फसली बुखार फैला था ही । होरी उसकी चपेट में आ गया । और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बकाया चुका ली । एक महीने तक होरी खाट पर पड़ा रहा । इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला ही, पर धनिया पर भी विजय पा गया । पति जब मर रहा है, तो उससे कैसा बैर । ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहता, वह तो अपना पति है । लाख बुरा हो; पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसी के साथ, दुःख भोगा है तो उसी के साथ, अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा, अपना है । दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लिया; लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं । खाने आता है तो सिर झुकाये खाकर उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूं । होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था ।
एक दिन धनिया ने कहा-तुम्हें इतना गुस्सा कैसे आ गया । मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही गुस्सा आये मगर हाथ न उठाऊंगी ।
होरी लजाता हुआ बोला-अब उसकी चर्चा न कर धनिया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था । इसका मुझे कितना दुःख हुआ है, वह मैं ही जानता हूँ ।
और जो मैं भी उस क्रोध में डूब मरी होती ।’
‘तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहाश भी तेरे साथ चिता पर जाती ।’
‘अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत बको ।’
‘गाय गयी, सो गयी, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गयी । पुनिया की फिकर मुझे मारे डालती है ।’
‘इसीलिए तो कहते हैं, भगवान घर का बड़ा न बनाये । छोटों को कोई नहीं हँसता । नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है ।’
माघ के दिन थे । मघावट लगी हुई थी । घटाटोप अंधेरा छाया हुआ था । एक तो जाड़ों की रात, दूसरे माघ की वर्षा । मौत का-सा सन्नाटा छाया हुआ था । अँधेरा तक न सूझता था । होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेड पर अपनी मड़ैया में लेटा हुआ था । चाहता था, शीत को भूल जाये और सो रहे; लेकिन तार-तार कम्बल और फटी हुई मिर्जई और शीत के झोंकों से गीली पुआल । इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस न था । आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता । उपला सुलगा लाया था, पर शीत में वह भी बुझ गया । बेवाय फटे पैरों को पेट में डालकर और हाथों को जाँघों के बीच में दबाकर और कम्बल में मुँह छिपाकर अपनी ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था । पाँच साल हुए, यह मिर्जई बनवाई थी । धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनवा दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिये थे, जिसके पीछे कितनी साँसत हुई. कितनी गालियाँ खानी पड़ी, और कम्बल तो उसके जन्म से भी पहले का है । बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कम्बल में उसके जाड़े कटे थे और बुढापे में आज वही बूढ़ा कम्बल उसका साथी है, पर अब वह भोजन को चबाने वाला दाँत नहीं, दुखने वाला है ।
जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो और बैठे बैठाये यह एक नया जंजाल पड़ गया । न करो तो दुनिया हँसे, करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते हैं । सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है । एहसान तो क्या होगा, उलटा कलंक लग रहा है । और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं कि कहीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम नहीं चलता । सोभा उससे कई बार कह चुका है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं हैं । न हों । पुनिया की गृहस्थी तो उसे संभालनी ही पड़ेगी, चाहे हंसकर सँभाले या रोकर ।
धनिया का दिल भी अभी तक साफ नहीं हुआ । अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है । मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था । जिसके साथ पचीस साल गुजर गये, उसे मारना और सारे गाँव के सामने, मेरी नीचता थी; लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी । मेरे सामने से कैसा कतराकर निकल जाती है, जैसे कभी की जान-पहचान ही नहीं । कोई बात कहनी होती है, तो सोना या रूपा से कहलाती है । देखता हूँ उसकी साड़ी फट गयी है; मगर कल मुझसे कहा भी, तो सोना की साड़ी के लिए, अपनी साड़ी का नाम तक न लिया । सोना की साड़ी अभी दो- एक महीने थेगलियाँ लगाकर चल सकती है । उसकी साड़ी तो मारे पैबंदों के बिल्कुल कथरी हो गयी है । और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूँ । अगर मैं ही उसके मन की दो चार बातें करता रहता, तो कौन छोटा हो जाता? यही तो होता, वह थोड़ा-सा अदरावन कराती, दो-चार लगने वाली बात कहती तो क्या मुझे चोट लग जाती; लेकिन मैं बुड्ढा होकर भी उल्लू रह गया । वह तो कहो, इस बीमारी ने आकर उसे नर्म कर दिया, नहीं जाने कब तक मुँह, फुलाये रहती ।
और आज उन दोनों में जो बातें हुई थी, वह मानो भूखे को भोजन थी । वह दिल से बोली थी और होरी गदगद हो गया था । उसके जी में आया, उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे-मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाये लेता हूँ, जितना चाहे मार ले, जितनी गालियाँ देना चाहे दे ले ।
सहसा उसे मडैया के सामने चूड़ियों की झंकार सुनायी दी । उसने कान लगाकर सुना । हाँ, कोई है । पटवारी की लड़की होगी, चाहे पण्डित की घरवाली हो । मटर उखाड़ने आयी होगी । न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है । सारे गांव से अच्छा पहनते हैं, सारे गांव से अच्छा खाते हैं, घर में हज़ारों रुपये गड़े हैं, लेने-देन करते है, ड्योढ़ी-सवाई चलाते हैं, पूरा लेते हैं, दस्तुरी लेते हैं, एक-न-एक मामला खड़ा करके हमा-सुमा को पीसते ही रहते हैं । फिर भी नीयत का यह हाल! बाप जैसा होगा, वैसी ही सन्तान भी होगी । और आप नहीं आते, औरतों को भेजते हैं । अभी उठकर हाथ पकड़ लूँ तो क्या पानी रह जाये । नीच कहने को नीच हैं; जो ऊचें हैं, उनका मन तो और नीच हैं । औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनता; आंखों देखकर मक्खी निगलनी पड़ती है । उखाड़ ले भाई, जितना तेरा जी चाहे । समझ ले, मैं नहीं हूँ । बड़े आदमी लाज न रखें, छोटो को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है ।
मगर नहीं, यह तो धनिया है । पुकार रही है ।
धनिया ने पुकारा-सो गये कि जागते हो?
होरी झटपट उठा और मँड़ैया के बाहर निकल आया । आज मालूम होता है, देवी प्रसन्न हो गयी, उसे वरदान देने आयी है, इसके साथ ही इस बादल-बूँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गये उसका आना शंकाप्रद भी था । जरूर कोई-न-कोई बात हुई है ।
बोला-ठण्डी के मारे नींद भी आती है? तू इस जाड़े-पाले में कैसे आयी, कुशल तो है?
‘हाँ, सब कुशल है ।’
‘गोबर को भेजकर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया?’
धनिया ने कोई उत्तर न दिया । मँड़ैया में आकर पुआल पर बैठती हुई बोली-गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो । जिस बात को डरती थी, वह होकर रही।
‘क्या हुआ क्या? किसी से मार-पीट कर बैठा?’
‘अब मैं भी जानू! क्या कर बैठा, चलकर पूछो उसी रांड से ।’
‘किस रांड से? क्या कहती हैं तू? बौरा तो नहीं गयी?’
‘हाँ बौरा क्यों न जाऊँगी । बात ही ऐसी हुई कि छाती दुगुनी हो जाये ।’
होरी के मन में प्रकाश की एक लम्बी रेखा ने प्रवेश किया।
‘साफ-साफ क्यों नहीं कहती । किस रांड को कह रही है?’
‘उसी झुनिया को, और किसको ।’
‘तो झुनिया क्या यहीं आयी है?’
‘और कहाँ जाती, पूछता कौन?’
‘गोबर क्या घर में नहीं है?’
‘गोबर का कही पता नहीं । जाने कही भाग गया । इसे पाँच महीने का पेट है ।’
होरी सब कुछ समझ गया । गोबर को बार-बार अहिराने जाते देखकर वह खटका था जरूर; मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था । युवकों में कुछ रसिकता होती ही है, इसमें कोई नयी बात नहीं । मगर जिस रूई के गोले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देखकर केवल मुस्करा दिया था, वह सारे आकाश में छाकर उसके मार्ग को इतना अन्धकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था । गोबर ऐसा लम्पट! वह सरल गँवार जिसे वह अभी बच्चा समझता था; लेकिन उसे भोज की चिन्ता न थी, पंचायत का भय न था, झुनिया घर में कैसे रहेगी इसकी चिन्ता भी उसे न थी । उसे चिन्ता थी गोबर की । लड़का लज्जाशील अनाड़ी है, आत्माभिमानी है, कहीं कोई नादानी न कर बैठे ।
घबड़ाकर बोला-झुनिया ने कुछ कहा नहीं, गोबर कहीं गया? उससे कहकर ही गया होगा?
धनिया झुँझलाकर बोली-तुम्हारी अक्कल तो घास खा गयी है । उसकी चहेती तो यही बैठी है, भागकर जायेगा कहां? यही कहीं छिपा बैठा होगा । दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायेगा । मुझे तो इस कलमुँही झुनिया की चिन्ता है कि इसे क्या करूँ? अपने घर में मैं छन-भर भी न रहने दूँगी । जिस दिन गाय लाने गया है, उसी दिन से दोनों में तक-झक होने लगी । पेट न रहता तो अभी बात न खुलती । मगर जब पेट रह गया तो झुनिया लगी घबड़ाने । कहने लगी कहीं भाग चलो । गोबर टालता रहा । एक औरत को साथ लेके कहाँ जाये, कुछ न सूझा । आखिर जब आज वह सिर हो गयी कि मुझे यहाँ से ले चलो, नहीं मैं परान दे दूँगी, तो बोला-तू चलकर मेरे घर में रह, कोई कुछ न बोलेगा, अम्माँ को मना लूंगा । यह गधी उसके साथ चल पड़ी । कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा, फिर न जाने किधर सरक गया । यह खड़ी-खड़ी उसे पुकारती रही । जब रात भीग गयी और वह न लौटा, भागी यही चली आयी । मैंने तो कह दिया, जैसे किया है वैसा फल भोग । चुड़ैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया । तब से बैठी रो रही है । उठती ही नहीं । कहती है, अपने घर कौन मुँह लेकर जाऊँ । भगवान ऐसी सन्तान से तो बाँझ ही रखे तो अच्छा । सबेरा होते-होते सारे गांव में काँव-काँव मच जायगी । ऐसा जी होता है माहुर खा लूँ । मैं तुमसे कहे देती हूँ, मैं अपने घर में न रखूँगी । गोबर को रखना हो, अपने सिर पर रखे । मेरे घर में ऐसी छतीसियों के लिए जगह नहीं है । अगर तुम बीच में बोले तो फिर या तो तुम्हीं रहोगे या मैं ही रहूँगी ।
होरी बोला-तुझसे बना नहीं । उसे घर में आने ही न देना चाहिए था ।
‘सब कुछ कहके हार गयी । टलती ही नहीं । धरना दिये बैठी है ।,
‘अच्छा चल, देखूं कैसे नहीं उठती, घसीटकर बाहर निकाल दूँगा ।’
‘दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था; पर चुप्पी साधे बैठा रहा । बाप भी ऐसे बेहया होते हैं!’
‘वह क्या जानता था, इनके बीच में क्या खिचड़ी पक रही है ।’
‘जानता क्यों नहीं था । गोबर रात-दिन घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गयी थी । सोचना चाहिए था न, कि यहाँ क्यों दौड़-दौड़ आता है ।’
‘चल, मैं झुनिया से पूछता हूँ न ।’
दोनों मँड़ैया से निकलकर गाँव की ओर चले । होरी ने कहा-पाँच घड़ी रात के ऊपर गयी होगी ।
धनिया बोली-हाँ, और क्या; मगर कैसा सोता पड़ गया है । कोई चोर आये, तो सारे गाँव को मूस ले जाये ।
‘चोर ऐसे गाँव में नहीं आते । धनियों के घर जाते हैं ।’
धनिया ने ठिठककर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली-देखो, हल्ला न मचाना; नहीं सारा गांव जाग उठेगा और बात फैल जायेगी ।
होरी ने कठोर स्वर में कहा-मैं यह कुछ नहीं जानता । हाथ पकड़कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूँगा । बात तो एक दिन खुलनी ही है, फिर आज ही क्यों न खुल जाय । वह मेरे घर आयी क्यों? जाय, जहाँ गोबर है । उसके साथ कुकरम किया तो क्या हमसे पूछकर किया था?
धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे से बोली-तुम उसका हाथ पकड़ोगे, तो वह चिल्लायेगी ।
‘तो चिल्लाया करे ।’
‘मुदा इतनी रात गये, अँधेरे सन्नाटे रात में जायेगी कहाँ, यह तो सोचो ।’
‘जाय जहाँ उसके सगे हों । हमारे घर में उसका क्या रखा है ।’
‘हां, लेकिन इतनी रात गये घर से निकालना उचित नहीं । पाँच भारी है, कहीं डर-डरा जाये, तो और आफत हो । ऐसी दशा में कुछ करते- धरते भी तो नहीं बनता ।’
‘हमें क्या करना है, मरे या जीये । जहाँ चाहे जाये । क्यों अपने मुँह में कालिख लगाऊं । मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूंगा ।’
धनिया ने गम्भीर चिन्ता से कहा-कालिख जो लगनी थी, वह तो अब लग चुकी । वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती । गोबर ने नौका डुबा दी ।
‘गोबर ने नहीं, डुबाई इसी ने । वह तो बच्चा था । इसके पंजे में आ गया ।’
‘किसी ने डुबाई, अब तो डूब गयी ।’
दोनों द्वार के सामने पहुँच गये । सहसा धनिया ने होरी के गले में हाथ डालकर कहा-देखो तुम्हें मेरी सौंह, उस पर हाथ न उठाना । वह तो आप ही रो रही है । भाग की खोटी न होती, तो यह दिन ही क्यों आता?
होरी की रखें आर्द्र हो गयी । धनिया का यह मातृ-स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिन्ता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा । दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत हो उठा । होरी को इस बिगत-यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नजर आयी, जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था । उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य था, जो सारे कलंक, सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परम्पराओं को अपने अन्दर समेटे लेता था ।
दोनों ने द्वार पर आकर किवाड़ों के दराज से अन्दर झोंका । दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मध्यम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखे, द्वार की ओर मुँह किये, अन्धकार में उस आनंद को खोज रही थी, जो एक क्षण पहले अपनी मोहिनी छवि दिखाकर विलीन हो गया था । वह आफत की मारी व्यंग्य-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थी, और उसे एक भवन मिल गया था, जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थी; पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिये अलादीन के राजमहल की भाँति गायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था ।
एकाएक द्वार खुलते और होरी को आते देखकर वह भय से काँपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिरकर रोती हुई बोली-दादा, अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं है, चाहे मारो चाहे काटो; लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत ।
होरी ने झुककर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार-भरे स्वर में कहा-डर मत बेटी, डर मत । तेरा घर है, तेरा द्वार है, तेरे हम हैं । आराम से रह । जैसे तू भोला की बेटी है, वैसे ही मेरी बेटी है । जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता मत कर । हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों न देख सकेगा । भोज-भात जो लगेगा, वह हम सब दे लेंगे, तू खातिर-जमा रख ।
झुनिया, सान्त्वना पाकर और भी होरी के पैरों से चिमट गयी और बोली-दादा अब तुम्हीं मेरे बाप हो और अम्माँ, तुम्हीं मेरी माँ हो । मैं अनाथ हूँ । मुझे सरन दो, नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही खा जायँगे ।
धनिया अपनी करुणा के आवेश को अब न रोक सकी । बोली-तू चल घर में बैठ, मैं देख लूंगी काका और भैया को । संसार में उन्हीं का राज नहीं है । बहुत करेंगे, अपने गहने ले लेंगे । फेंक देना उतारकर ।
अभी जरा देर पहले धनिया ने क्रोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुही न जाने क्या-क्या कह डाला था । झाडू मारकर घर से निकालने जा रही थी । अब जो झुनिया ने स्नेह, क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुने तो होरी के पाँव छोड़कर धनिया के पाँव से लिपट गयी और वही साध्वी जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आँख भरकर देखा भी न था, पापिष्ठा को गले लगाये उसके आंसू पोंछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को अपने कोमल शब्दों से शान्त कर रही थी, जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाये बैठी हो । होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला-पिला दे और झुनिया से पूछा-क्यों बेटी, तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया!
झुनिया ने सिसकते हुए कहा-मुझसे तो कुछ नहीं कहा । मेरे कारण तुम्हारे ऊपर… यह कहते-कहते उसकी आवाज आँसुओं में डूब गयी ।
होरी अपनी व्याकुलता न छिपा सका ।
‘जब तूने आज उसे देखा, तो कुछ दुःखी था?’
‘बातें तो हंस-हंसकर कर रहे थे । मन का हाल भगवान जाने ।’
‘तेरा मन क्या कहता है, है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गया?’
‘मुझे तो शंका होती है, कहीं बाहर चले गये हैं ।’
‘यही मेरा मन भी कहता है । कैसी नादानी की । हम उसके दुश्मन थोड़े ही थे । जब भली या बुरी एक बात हो गयी, तो उसे निभानी पड़ती है । इस तरह भागकर उसने हमारी जान आफत में डाल दी ।’
धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़कर अन्दर ले जाते हुए कहा-कायर कहीं का । जिसकी बाँह पकड़ी, उसका निबाह करना चाहिए कि मुँह में कालिख लगाकर भाग जाना चाहिए । अब जो आये, तो घर में बैठने न दूँ ।
होरी वहीं पुआल में लेटा । गोबर कहाँ गया? यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भाँति मँडराने लगा ।

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