उन्माद - मानसरोवर 2 - मुंशी प्रेमचंद | Unmad - maansarovar 2 - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

उन्माद - मानसरोवर 2 - मुंशी प्रेमचंद | Unmad - maansarovar 2 - munshi premchand

उन्माद

1

मनहर ने अनुरक्त होकर कहा- यह सब तुम्हारी कुर्बानियों का फल है वागी। नहीं तो आज मैं किसी अन्धेरी गली में, किसी अंधेरे मकान के अन्दर अंधेरी जिन्दगी के दिन काट रहा होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे, तुमने मेरा जीवन सुधार दिया, मुझे आदमी बना दिया।
वागेश्वरी ने सिर झुकाए नम्रता से उत्तर दिया- यह तुम्हारी सज्जनता मानूं, मैं बेचारी भला तुम्हारी जिन्दगी क्या सुधारूंगी? हां, तुम्हारे साथ रहकर मैं भी एक दिन आदमी बन जाऊंगी। तुमने परिश्रम किया, उसका पुरस्कार पाया। जो अपनी मदद आप करते हैं उनकी मदद परमात्मा भी करते हैं, अगर मुझ-जैसी गंवारन किसी और के पाले पड़ती, तो अब तक न जाने क्या गत बनी होती।
मनहर मानो इस बहस में अपना पक्ष-समर्थ करने के लिए कमर बांधता हुआ बोला- तुम जैसी गंवारन पर मैं एक लाख सजी हुई गुड़ियों और रंगीन तितलियों को निछावर कर सकता हूं। तुमने मेहनत करने का वह अवसर और अवकाश दिया जिनके बिना कोई सफल हो ही नहीं सकता। अगर तुमने अपनी अन्य विलास प्रिय, रंगीन मिजाज बहनों की तरह मुझे अपने तकाजों से दबा रखा होता, तो मुझे उन्नति करने का अवरर कहां मिलता? तुमने मुझे निश्चिन्तता प्रदान की, जो स्कूल के दिनों में भी न मिली थी। अपने और सहकारियों को देखता हूं, तो मुझे उन पर दया आती है। किसी का खर्च पूरा नहीं पड़ता। आधा महीना भी नहीं जाने पाता और हाथ खाली हो जाता है। कोई दोस्तों से उधार मांगता है, कोई घरवालों को खत लिखता है। कोई गहनों की फिक्र में मरा जाता है कोई कपड़ों की। कभी नौकर की टोह में हैरान, कभी वैध की टोह में परेशान। किसी को शान्ति नहीं। आए दिन स्त्री-पुरुष में जूते चलते हैं। अपना जैसा भाग्यवान तो मुझे कोई नहीं दीख पड़ता। मुझे घर के सारे आनन्द प्राप्त हैं और जिम्मेदारी एक भी नहीं। तुमने ही मेरे हौसलों को उभारा, मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता, तो तुम मुझे तसल्ली देती थीं। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि तुम घर का प्रबन्ध कैसे करती हो। तुमने मोटे से मोटा काम अपने हाथों से किया, जिससे मुझे पुस्तकों के लिए रुपयों की कमी न हो। तुम्ही मेरी देवी हो और तुम्हारी ही बदौलत आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूंगा वागी, और एक दिन वह आएगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनन्द उठाओगी।
वागेश्वरी ने गदगद होकर कहा- तुम्हारे ये शब्द मेरे लिए सबसे बड़े पुरस्कार हैं, मानू! मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं! मैंने जो कुछ तुम्हारी थोड़ी बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा, मुझे तो आशा भी न थी।
मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावों से उमड़ा हुआ था। वह यों बहुत ही अल्पभाषी, कुछ रूखा आदमी था और शायद बागेश्वरी के मन में उसकी शुष्कता पर दुःख भी हुआ हो; पर इस समय सफलता के नशे ने उसकी वाणी में पर लगा दिए थे। बोला- जिस समय मेरे विवाह की बात चल रही थी, मैं बहुत शंकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था हो गया। अब सारी उम्र देवी जी की नाजबरदारी में गुजरेगी। बड़े-बड़े अंग्रेज विद्वानों की पुस्तकें पढ़ने से मुझे विवाह से घृणा हो गई थी। मैं इसे उम्र कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुद्धि की उन्नति का मार्ग बन्द कर देती है, जो मनुष्य को स्वार्थ का भक्त बना देती है, जो जीवन के क्षेत्र को संकीर्ण कर देती है। मगर दो चार मास ही के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुई। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे बड़ी विभूति है, जो मनुष्य को उज्जवल और पूर्ण बना देती है, जो आत्मोन्नति का मूलमन्त्र है। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास है।
वागेश्वरी मनहर की नम्रता सहन नहीं कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठकर चली गई।
मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुए तीन साल गुजरे थे। मनहर उस समय एक दफ्तर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भांति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। धीरे-धीरे उसे जासूसी का शौक हुआ। इस विषय पर उसने बहुत-सा साहित्य जमा किया और बड़े मनोयोग से उसका अध्ययन किया। इसके बाद उसने इस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। रचना में उसने ऐसी विलक्षण विवेचन-शक्ति का परिचय दिया, उसकी शैली भी इतनी रोचक थी, कि जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रन्थ था।
देश में धूम मच गई। यहां तक कि इटली और जर्मनी-जैसे देशों से उसके पास प्रशंसा-पत्र आए और इस विषय की पत्रिकाओं में अच्छी-अच्छी आलोचनाएं निकली। अन्त में सरकार ने भी अपनी गुणग्राहकता का परिचय दिया-उसे इंग्लैण्ड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिए वृत्ति प्रदान की और यह सब कुछ वागेश्वरी की भहोरणा का शुभ-फल था।
मनहर की इच्छा थी कि वागेश्वरी भी साथ चले, पर वागेश्वरी उनके पांव की बेड़ी नहीं बनना चाहती थी। उसने घर रहकर सास-ससुर की सेवा करना ही उचित समझा।
मनहर के लिए इंग्लैण्ड एक दूसरी दुनिया थी, जहां उन्नति के मुख्य साधनों में एक रूपवती पत्नी का होना भी जरूरी था। अगर पत्नी रूपवती है, चपल है, वाणी कुशल है, प्रगल्भ है, तो समझ लो उसके पति को सोने की खान मिल गई। अब वह उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है। मलोयोग और तपस्या के बलबूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्षण के तेज पर। उस संसार में रूप और लावण्य व्रत के बन्धनों से मुक्त, एक अबाध सम्पत्ति थी। जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया, उसकी मानो तकदीर खुल गई। यदि कोई सुन्दरी कोई सहधर्मिणी नहीं है, तो तुम्हारा सारा उद्योग, सारी कार्य पटुता निष्फल है, कोई तुम्हारा पुरसाहाल न होगा; अतएव वहां रूप को लोग व्यापारिक दृष्टि से देखते थे।
साल ही भर के अंग्रेजी समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रान्ति पैदा कर दी। उसके मिजाज ने सांसारिकता का इतना प्रधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिए वहां कोई स्थान ही न रहा। वागेश्वरी उसके विध्याभ्यास में सहायक होती थी, पर उस अधिकार और पद की ऊचाइयों तक न पहुंचा सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्व भी अब मनहर की निगाहों में कम होता जा रहा था। वागेश्वरी अब उसे एक व्यर्थ सी वस्तु मालूम होती थी, क्योंकि भौतिक दृष्टि से हर एक वस्तु का मूल्य उससे होने वाले साथ पर ही अवलम्बित था। अपना पूर्व जीवन अब उसे हास्यास्पद जान पड़ता था। चंचल, हंसमुख, विनोदिनी अंग्रेज युवतियों के सामने वागेश्वरी एक हल्की तुच्छ सी वस्तु जान पड़ती, इस विधुत प्रकाश में वह दीपक अब मलिन पड़ गया था। यहां तक कि शनैः शनैः उसका वह मलिन प्रकाश भी अब लुप्त हो गया।
मनहर ने अपने भविष्य का निष्चय कर लिया। वह भी एक रमणी की रूप नौका द्वारा ही अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा। इसके सिवा कोई और उपाय न था।

2

रात के नौ बजे थे। मनहर लंदन के एक फैशनेबल रेस्ट्रां में बना-ठना बैठा था। उसका रंग-रूप और ठाठ-बाट देखकर सहसा कोई नहीं कह सकता था कि वह अंग्रेज नहीं है। लंदन में भी उसके सौभाग्य ने उसका साथ दिया था। उसने चोरी के कई गहरे मुआमलों का पता लगा लिया था, इसलिए उसे धन और यश दोनों ही मिल रहा था। वह अब यहां के भारतीय समाज का प्रमुख अंग बन गया था, जिसके आथित्य और सौजन्य की सभी सराहना करते थे। उसका लबो-लहजा भी अंग्रेजों से मिलता जुलता था। उसके सामने मेज के दूसरी ओर एक रमणी बैठी हुई उनकी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी। उसके अंग-अंग से यौवन टपका पड़ता था। भारत के अद्भुत वृत्तान्त सुनकर उसकी आंखे खुशी से चमक रही थीं। मनहर चिड़िया के सामने दाने बिखेर रहा था।
मनहर- विचित्र देश है जेनी, अत्यन्त विचित्र। पांच-पांच साल के दूल्हे तुम्हे भारत के सिवा कहीं देखने को नहीं मिलेंगे। लाल रंग के चमकदार कपड़े, सिर पर चमकता हुआ लम्बा टोप, चेहर पर फूलों का झालरदारर बुर्का, घोड़े पर सवार चले जा रहे हैं। दो आदमी दोनों तरफ से छतरी लगाए हुए हैं। हांथो में मेंहदी लगी हुई है।
जेनी- मेंहदी क्यों लगाते हैं?
मनहर- जिससे हांथ लाल हो जाएं। पैरों में भी रंग भरा जाता है। उंगलियों के नाखून लाल रंग दिए जाते हैं। वह दृश्य देखते ही बनता है।
जेनी- यह तो दिल में सनसनी पैदा करने वाला दृश्य होगा। दुल्हन भी इसी तरह सजाई जाती होगी?
मनहर- इससे कई गुनी अधिक। सिर से पांव तक सोने चांदी के गहनों से लदी हुई। ऐसा कोई अंग नहीं जिसमें दो-चार जेवर न हों।
जेनी- तुम्हारी शादी भी इसी तरह हुई होगी। तुम्हे तो बड़ा आनन्द आया होगा?
मनहर- हां, वही आनन्द आया था जो तुम्हे मेरी-गोराउण्ड पर चढ़ने में आता है। अच्छी-अच्छी चीजे खाने को मिलती हैं, अच्छे कपड़े पहनने को मिलते हैं। खूब नाच तमाशे देखता था और शहनाइयों का गाना सुनता था। मजा तो तब आता है जब दुलहन अपने घर से बिदा होती है। सारे घर में कुहराम मच जाता है। दुल्हन हर एक से लिपट-लिपट कर रोती है, जैसे मातम कर रही हो।
जेनी- दुलहन रोती क्यों है?
मनहर -रोने का रिवाज चला आता है। हालांकि सभी लोग जानते हैं कि वह हमेशा के लिए नहीं जा रही है, फिर भी सारा घर इस तरह फूट फूट कर रोता है, मानो वह काले पानी भेजी जा रही हो।
जेनी- मैं तो इस तमाशे पर खूब हंसू।
मनहर- हंसने की बात ही है।
जेनी- तुम्हारी बीवी भी रोई होगी?
मनहर- अजी कुछ न पूंछो, पछाड़े खा रही थी, मानो मैं उसका गला घोंट दूंगा। मरी पालकी से निकलकर भागी जाती थी, पर मैंने जोर से पकड़ कर अपनी बगल में बैठा लिया। तब मुझे दांत काटने दौड़ी।
मिस जेनी ने जोर का कहकहा मारा और हंसी के साथ लोट गईं। बोलीं- हारिबल! हारिबल! क्या अब भी दांत काटती है?
मनहर- वह अब इस संसार में नहीं रही जेनी! मैं उससे खूब काम लेता था। मैं सोता था तो वो बदन में चम्पी लगाती थी, मेरे सिर में तेल डालती थी, पंखा झलती थी।
जेनी- मुझे तो विश्वास नहीं आता। बिल्कुल मूर्ख थी!
मनहर- कुछ न पूंछो। दिन को किसी के सामने मुझसे बोलती भी न थी, मगर मैं उसका पीछा करता रहता था।
जेनी- ओ! नाटी ब्वाय! तुम बड़े शरीफ हो। थी तो रूपवती?
मनहर- हां, उसका मुंह तुम्हारे तलवों जैसा था।
जेनी- नान्सेन्स! तुम ऐसी औरत के पीछे कभी न दौड़ते।
मनहर- उस वक्त मैं भी मूर्ख था जेनी।
जेनी- ऐसी मूर्ख लड़की से तुमने विवाह क्यों किया?
मनहर- विवाह न करता तो मां-बाप जहर खा लेते।
जेनी- वह तुम्हे प्यार कैसे करने लगी?
मनहर- और करती क्या? मेरे सिवा दूसरा था ही कौन? घर से बाहर न निकलने पाती थी, मगर प्यार हममें से किसी को न था। वह मेरी आत्मा को और हृदय को सन्तुष्ट न कर सकती थी, जेनी! मुझे उन दिनों की याद आती है, तो ऐसा मालूम होता है कि कोई भयंकर स्वप्न था। उफ! अगर वह स्त्री आज जीवित होती, तो मैं किसी अंधेरे दफ्तर में बैठा कलम घिस रहा होता। इस देश में आकर मुझे यथार्थ ज्ञान हुआ कि संसार में स्त्री का क्या स्थान है, उसका क्या दायित्व है और जीवन उसके कारण कितना आनन्दप्रद हो जाता है और जिस दिन तुम्हारे दर्शन हुए, वह तो मेरी जिन्दगी का सबसे मुबारक दिन था। याद है तुम्हे वो दिन? तुम्हारी वह सूरत मेरी आंखों में अब भी फिर रही है।
जेनी- अब मैं चली जाऊंगी। तुम मेरी खुशामद करने लगे।

3

भारत के मजदूरदल-सचिव थे लार्ड बारबर और उनके प्राइवेट सेक्रेट्ररी थे मि.कावर्ड। लार्ड बार्बर भारत के सच्चे मित्र समझे जाते थे। जब कंजर्वेटिव और लिबरल दलों का अधिकार था, तो लार्ड बारबर भारत की बड़े जोरों से वकालत करते थे। वह उन मन्त्रियों पर ऐसे ऐसे कटाक्ष करते थे कि उन बेचारों को कोई जवाब न सूझता था। एक बार वे हिन्दुस्तान आए थे और यहां कांग्रेस में शरीक हुए थे। उस समय उनकी उदार वक्तृताओं ने समस्त देश में आशा और उत्साह की एक लहर दौड़ा दी थी। कांग्रेस के जलसे के बाद वह जिस शहर में गए, जनता ने उनके रास्ते में आंखे बिछाईं, उनकी गाड़ियां खींची, उन पर फ़ूल बरसाए। चारों ओर से यही आवाज आती थी- यह है भारत का उद्वार करने वाला। लोगों को विश्वास हो गया कि भारत के सौभाग्य से अगर कभी लार्ड बारबर को अधिकार प्राप्त हुआ, तो वह दिन भारत के इतिहास में मुबारक होगा।
लेकिन अधिकार पाते ही लार्ड बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया। उनके सारे स्वभाव, उनकी उदारता, न्यायपरायणत, सहातुभूति ये सभी अधिकार के भंवर में पड़ गए और अब लार्ड बारबर और उनके पूर्वाधिकार के व्यवहार में लेशमात्र भी अन्तर न था। वह भी वही कर रहे थे जो उनके पहले के लोगों ने किया। वही दमन था, वही जातिगत अभिमान, वही कट्टरता, वही संकीर्णता। देवता अधिकार के सिंघासन पर पांव रखते ही अपना देवत्व खो बैठा था। अपने दो साल के अधिकार काल में उन्होने सैकड़ों ही अफसर नियुक्त किए थे; पर उनमें एक भी हिन्दुस्तानी न था। भारतवासी निराश होकर उन्हें 'डाईहार्ड' 'धन का उपासक' और 'साम्राज्यवाद का पुजारी' कहने लगे थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि जो कुछ करते थे मि. कावर्ड करते थे। फर्क यह था कि लार्ड बारबर नीयत के जितने शेर थे, उतने दिल के कमजोर। हालांकि परिणाम दोनों दिशाओं में एक-सा था।
यह मि. कावर्ड एक ही महापुरुष थे। उनकी उम्र चालीस से अधिक गुजर चुकी थी; पर अभी तक उन्होंने विवाह नहीं किया था। शायद उनका ख्याल था कि राजनीति के क्षेत्र में रहकर वे विवाह का आनन्द नहीं उठा सकते। वास्तव में नवीनता के मधूप थे।
उन्हे नित्य नए विनोद और आकर्षण, नित्य नए विलास और उल्लास की टोह रहती थी। दूसरों के लगाए हुए बाग की सैर करके चित्त को प्रसन्न कर लेना इससे कहीं सरल था कि अपना बाग आप लगाए और उसकी रक्षा और सजवट में अपना सिर खपाए। उनको व्यापारिक और व्याव्हारिक दृष्टि में यह लटका उससे कहीं आसान था।
दोपहर का समय था। मि. कावर्ड नाश्ता करके सिगार पी रहे थे कि मिस जेनी रोज के अने की खबर हुई। उन्होंने तुरन्त आईने के सामने खड़े होकर अपनी सूरत देखी, बिखरे बालों को सवांरा, बहुमूल्य इत्र मला और मुख से स्वागत की सहास छवि दर्शाते हुए कमरे से निकलकर मिस रोज से हांथ मिलाया।
जेनी ने कदम रखते ही कहा- अब मैं समझ गई कि क्यों कोई सुन्दरी तुम्हारी बात नहीं पूंछती। आप अपने वादों को पूरा करना नहीं जानते।
मि. कावर्ड ने जेनी के लिए कुर्सी खींचते हुए कहा- मुझे बहुत खेद है मिस रोज कि कल मैं अपना वादा न पूरा कर सका। प्राइवेट सेक्रेट्ररी का जीवन कुत्तों के जीवन से भी हेय है। बार-बार चाहता था कि दफ्तर से उठूं; पर एक न एक काल ऐसा आ जाता था कि रुक जाना पड़ जाता था! मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं। बाल में तुम्हे खूब आनन्द आया होगा?
जेनी- मैं तुम्हे तलाश करती रही। जब तुम न मिले तो मेरा जी खट्टा हो गया। मैं और किसी के साथ नहीं नाची। अगर तुम्हे नहीं जाना था तो मुझे निमन्त्रण क्यों दिया था।
कावर्ड ने जेनी को सिगार भेंट करते हुए कहा- तुम मुझे लज्जित कर रही हो,जेनी! मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती थी कि तुम्हारे साथ नाचता? एक पुराना बैचलर होने पर भी मैं उस सुख की कल्पना कर सकता हूं। बस यही समझ लो कि तड़प-तड़प कर रह जाता हूं।
जेनी ने कठोर मुस्कान के साथ कहा- तुम इसी योग्य हो कि बैचलर बने रहो। यही तुम्हारी सजा है।
कावर्ड ने अनुरक्त होकर उत्तर दिया- जेनी तुम बड़ी कठोर हो! तुम्ही क्या रमणियां सभी कठोर होती हैं। मैं कितनी ही पर्वशता दिखाऊं, तुम्हे विश्वास नहीं आएगा। मुझे यह अरमान ही रह गया कि कोई सुन्दरी मेरे अनुराग और लगन का आदर करती।
जेनी- तुममें अनुराग हो भी तो? रमणियां ऐसे बहानेबाजों को मुंह नहीं लगाती।
कावर्ड- फिर बहानेबाज कहा। मजबूर क्यों नहीं कहती?
जेनी- मैं किसी को मजबूर नहीं मानती। मेरे लिए यह हर्ष और गौरव की बात नहीं हो सकती कि आपको जब अपने सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर सरकारी कामों से अवकाश मिले, तो आप मेरा मन रखने के लिए एक क्षण के लिए अपने कोमल चरणों को कष्ट दें। इसी कारण तुम अब तक झीक रहे हो।
कावर्ड ने गम्भीर भाव से कहा- तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो, जेनी! मरे अविवाहित रहने का क्या कारण है, यह कल तक मुझे खुद मालूम न था। कल आप ही आप मालूम हो गया।
जेनी ने उसका परिहास करते हुए कहा- अच्छा तो यह रहस्य आपको मालूम हो गया? तब तो आप सचमुच आत्मदर्शी हैं। जरा मैं भी तो सुनूं, क्या कारण था?
कावर्ड ने उत्साह के साथ कहा- अब तक कोई ऐसी सुन्दरी न मिली जो मुझे उन्मत्त कर सकती।
जेनी ने कठोर परिहास के साथ कहा- मेरा ख्याल था कि दुनिया में ऐसी औरत पैदा ही नहीं हुई, जो तुम्हे उन्मत्त कर सकती। तुम उन्मत्त बनाना चाहते हो, उन्मत्त बनना नहीं चाहते।
कावर्ड- तुम बड़ा अत्याचार करती हो जेनी!
जेनी- अपने उन्माद का प्रमाण देना चाहते हो?
कावर्ड- हृदय से जेनी! मैं उस अवसर की ताक में बैठा हूं।
उसी दिन शाम को जेनी ने मनहर से कहा- तुम्हारे सौभाग्य पर बधाई! तुम्हे वह जगह मिल गई।
मनहर उछलकर बोला- सच! सेक्रेट्ररी से कोई बातचीत हुई थी?
जेनी- सेक्रेट्ररी से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। सब कुछ कावर्ड के हांथो में है। मैंने उसी को चंग पर चढ़ाया। लगा मुझे इश्क जताने। पचास साल की तो उम्र है, चांद के बाल झड़ गए हैं, गालों पर झुर्रियां पड़ गई हैं, पर अभी तक आपको इश्क का ख्ब्त है। आप अपने को एक ही रसिया समझते हैं। उसके बूढ़े चोंचले बहुत ही बुरे मालूम होते थे; मगर तुम्हारे लिए सब कुछ सहना पड़ा। खैर मेहनत सफल हो गई है। कल तुम्हें परवाना मिल जाएगा। अब सफर की तैयारी करनी चाहिए।
मनहर ने गदगद होकर कहा- तुमने मुझ पर बड़ा एहसान किया है, जेनी!

4

मनहर को गुप्तचर विभग में ऊंचा पद मिला। देश के राष्ट्रीय पत्रों ने उसकी तारीफों के पुल बांधे, उसकी तस्वीर छापी और राष्ट्र की ओर से उसे बधाई दी। वह पहला भारतीय था, जिसे यह ऊंचा पद प्रदान किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने सिद्ध कर दिया था कि उसकी न्याय-बुद्धि जातीय अभिमान और द्वेश से उच्चतर है।
मनहर और जेनी का विवाह इंग्लैण्ड में ही हो गया। हनीमून का महीना फांस में गुजरा। वहां से दोनो हिन्दुस्तान आए। मनहर का दफ्तर बम्बई में था। वहीं दोनो एक होटल में रहने लगे। मनहर को गुप्त अभियोग की खोज के लिए अक्सर दौरे करने पड़ते थे। कभी कश्मीर, कभी मद्रास, कभी रंगून। जेनी इन यात्राओं में बराबर उसके साथ रहती। नित्य नए दृश्य थे, नए विनोद, नए उल्लास। उसकी नवीनता प्रिय प्रकृति के लिए आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था?
मनहर का रहन-सहन तो विदेशी था ही, घर वालों से भी उसका सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। वागेश्वरी के पत्रों का उत्तर देना तो दूर रहा, वह उन्हे खोलकर पढ़ता भी नहीं था। भारत में हमेशा उसे यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाए। जेनी से वह अपनी यथार्थ स्थिति को छुपाए रखना चाहता था। उसने घरवालों को आने की सूचना तक न दी थी। यहां तक कि वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम मिलता था। उसके मित्र अधिकांश पुलिस और फौज के अफसर थे। वही उसके मेहमान होते। वाकचतुर जेनी सम्मोहनकला में सिद्धहस्त थी। पुरुषों के प्रेम से खेलना उसकी सबसे अमोदमय क्रीड़ा थी। जलाती थी, रिझाती थी और मनहर भी उसकी कपटलीला का शिकार बना रहता था। उसे वह हमेशा भूल-भुलैया में रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार, कभी इतना दूर कि योजन का अन्तर, कभी निष्ठुर और कठोर और कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता था और कभी हैरान रह जाता था।
इस तरह दो वर्ष बीत गए और मनहर और जेनी कोण की दो भुजाओं की भांति एक दूसरे से दूर होते गए। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्तव्य है। वह चाहें उसकी संकीर्णता हो या कुल मर्यादा का असर कि वह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी स्वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सम्पर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलम्बित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्तव्यों का ज्ञान हो जाएगा; हालांकि उसे मालूम होना चाहिए था कि टेढ़ी बुनियाद पर बना हुआ भवन जल्द या देर से भूमिस्थ होकर ही रहेगा और ऊंचाई के साथ उसकी शंका और भी बढ़ती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार परिस्थिति के बिल्कुल अनुकूल था। उसने मनहर को विनोदमय तथा विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर वह अब तक स्थित थी। इस व्यक्ति को वह मन में पति का स्थान नहीं दे सकती थी, पाषाण प्रतिमा को वह अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था, इसलिए वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्तव्य को स्वीकार नहीं करती थी। अगर मनहर अपनी गाढ़ी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था तो कोई अहसान न करता था। मनहर उसका बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और उसके फल का भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।

5

मनोमालिन्य बढ़ता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसों पर जाना छोड़ दिया; पर जेनी पूर्ववत् सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावते करती और दावतों में शरीक होती। मनहर के साथ न जाने से उसे लेशमात्र भी दुःख या निराशा नहीं होती थी; बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और प्रसन्न होती थी। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे में डुबोने का प्रयत्न करता। पीना तो उसने इंग्लैण्ड में ही शुरु कर दिया था, पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ़ गई थी। वहां स्फूर्ति और आनन्द के लिए पीता था, यहां स्फूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिए। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था कि शराब मुझे पिए जा रही है, पर उसके जीवन का यही एक अवलम्ब रह गया था।
गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जांच करने के लिए लखनऊ में डेरा डाले हुए था। मुआमला बहुत संगीन था। उसे सिर उठाने की फुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी बहुत खराब हो चला था, पर जेनी अपने सैर-सपाटे मे मग्न थी। आखिर उसने एक दिन कहा; मैं नैनीताल जा रही हूं। यहां की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।
मनहर ने लाल-लाल आंखे निकालकर कहा- नैनीताल में क्या काम है?
वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा करने पर तुली हुई थी। बोली- यहां कोई सोसायटी नहीं। सारा लखनऊ पहाड़ों पर चला गया है।
मनहर ने जैसे म्यान से तलवार निकाल कर कहा- जब तक मैं यहां हूं, तुम्हें कहीं जाने का अधिकार नहीं है। तुम्हारी शादी मेरे साथ हुई है, सोसायटी के साथ नहीं। फिर तुम साफ देख रही हो मैं बीमार हूं, तिस पर भी तुम अपनी विलास प्रवत्ति को रोक नहीं सकतीं। मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी, जेनी! मैं तुमको शरीफ समझता था। मुझे स्वप्न में भी गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऐसी बेवफाई करोगी।
जेनी ने अविचलित भाव से कहा- तो क्या, तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी हिन्दुस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौण्डी बनकर रहूंगी और तुम्हारे तलवे सहलाऊंगी? मैं तुम्हें इतना नदान नहीं समझती। अगर तुम्हें हमारी अंग्रेज सभ्यता की इतनी सी बात नहीं मालूम, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पाबन्द नहीं। तुमने मुझसे विवाह इसलिए किया था कि मेरी सहायता से तुम्हें सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऐसा करते हैं और तुमने भी वैसा ही किया। मैं इसके लिए तुम्हे बुरा नहीं कहती लेकिन जब तुम्हारा वह उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिए तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा क्यों रखते हो? तुम हिन्दुस्तानी हो अंग्रेज नहीं हो सकते। मैं अंग्रेज हूं हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती; इसलिए हममें से किसी को अधिकार नहीं है कि वह दूसरों को अपनी मर्जी का गुलाम बनाने की चेष्टा करे।
मनहर हतबुद्धि-सा बैठा सुनता रहा। एक-एक शब्द विष के घूंट की भांति उसके कंठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था! पद लालसा के इस प्रचण्ड आवेग में, विलास-तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऐसा तत्व भी है, जिसके सामने पद और विलास कांच के खिलौनों से अधिक मूल्य नहीं रखते। वह विस्मृत सत्य इस समय अपने दारुण विलाप से उसकी मद्मग्न चेतना को तड़पाने लगा।
शाम को जेनी नैनीताल चली गई। मनहर ने उसकी ओर आंखे उठा कर भी नहीं देखा।

6

तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जीवन के पांच छः वर्षों में उसने जितने रत्न संचित किए थे, जिन पर वह गर्व करता था; जिन्हे पाकर वह अपने को धन्य समझता था, अब परीक्षा की कसौटी पर जाकर नकली सिद्ध हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकांत रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी झोपड़ी को छोड़कर वह जिस सुनहले कलश वाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी और उसे अब फिर अपनी टूटी झोपड़ी याद आई, जहां उसने शांति, प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काट खाने लगा। उस सरल, शीतल स्नेह के सामने ये सारी विभूतियां उसे तुच्छ सी जंचने लगीं। तीसरे दिन वह भीषण संकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे। एक तो अपने पद से इस्तीफा था और दूसरा जेनी से अंतिम विदा की सूचना। इस्तीफे में उसने लिखा- मेरा स्वास्थ्य नष्ट हो गया है और मैं इस भार को नहीं सम्भाल सकता। जेनी के पत्र में उसने लिखा- हम और तुम दोनों ने भूल की है और हमें जल्द से जल्द उस भूल को सुधार लेना चाहिए। मैं तुम्हे सारे बन्धनों से मुक्त करता हूं। तुम भी मुझे मुक्त कर दो। मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अपराध न तुम्हारा है, न मेरा। समझ का फेर तुम्हें भी था और मुझे भी। मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और अब तुम्हारा मुझ पर कोई अहसान नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है, वह सब मैं छोड़े जाता हूं। मैं तो निमित्त-मात्र था स्वामिनी तुम थी। उस सभ्यता को दूर से ही सलाम है, जो विनोद और विलास के सामने किसी बन्धन को स्वीकार नहीं करती।
उसने खुद जाकर दोनों की रजिस्ट्री कराई और उत्तर का इंतजार किए बिना ही वहां से चलने को तैयार हो गया।

7

जेनी ने जब मनहर का पत्र पाकर पढ़ा तो मुस्कुराई। उसे मनहर की इच्छा पर शासन करने का ऐसा अभ्यास पड़ गया था कि पत्र से उसे जरा भी घबराहट नहीं हुई। उसे विश्वास था कि दो चार दिन चिकनी-चुपड़ी बातें करके वह उसे फिर वशीभूत कर लेगी। अगर मनहर की इच्छा केवल धमकी देनी न होती, उसके दिल पर चोट लगी होती तो वह अब तक यहां न होता। कब का यह स्थान छोड़ चुका होता। उसका यहां रहना ही बता रहा है कि वह केवल बन्दर घूड़की दे रहा है।
जेनी ने स्थिर चित्त होकर कपड़े बदले और तब इस तरह मनहर के कमरे में आई, मानो कोई अभिनय करने स्टेज पर आई हो।
मनहर उसे देखते ही ठट्ठा मार कर हंसा। जेनी सहम कर पीछे हट गई। इस हंसी में क्रोध का प्रतिकार न था। उसमें उन्माद भरा हुआ था। मनहर के सामने मेज पर बोतल और गिलास रखा हुआ था। एक दिन में उसने न जाने कितनी शराब पी ली थी। उसकी आंखो से जैसे रक्त उबला पड़ता था।
जेनी ने समीप आकर उसके कन्धे पर हांथ रखा और बोली- क्या रात भर पीते ही रहोगे? चलो आराम से लेटो, रात ज्यादा हो गई है। घण्टों से बैठी तुम्हारा इंतजार कर रही हूं। तुम इतने निष्ठुर तो कभी नहीं थे।
मनहर खोया हुआ-सा बोला- तुम कब आ गईं वागी? देखो मैं कब से तुम्हें पुकार रहा हूं। चलो आज सैर कर आएं। उसी नदी के किनारे ,तुम वही अपना प्यारा गीत सुनाना, जिसे सुनकर मैं पागल हो जाता था। क्या कहती हो, मैं बेमुरव्वत हूं? यह तुम्हारा अन्याय है वागी! मैं कसम खाकर कहता हूं, ऐसा एक दिन भी नहीं गुजरा जब तुम्हारी याद ने मुझे न रुलाया हो।
जेनी ने उसका कन्धा हिलाकर कहा- तुम यह क्या ऊल-जलूल बक रहे हो? वागी यहां कहां है?
मनहर ने उसकी ओर देखकर अपर्चित भाव से कुछ कहा, फिर जोर से हंसकर बोला- मैं यह न मानूंगा वागी! तुम्हे मेरे साथ चलना होगा। वहां मैं तुम्हारे लिए फूलों की एक माला बनाऊंगा।
जेनी ने समझा यह शराब बहुत पी गए हैं। बकझक कर रहे हैं। इनसे इस वक्त कुछ भी बात करना व्यर्थ है। चुपके से कमरे के बाहर चली गई। उसे जरा सी शंका हुई थी। यहां उसका मूलोच्छेद हो गया। जिस आदमी का वाणी पर अधिकार नही, वह इच्छा पर क्या अधिकार रख सकता है?
उस घड़ी से मनहर को घरवालों की रट लग गई। कभी वागेश्वरी को पुकारता, कभी अम्मां को, कभी दादा को। उसकी आत्मा अतीत में विचरती रहती, उस अतीत में जब जेनी ने काली छाया की भांति प्रवेश नहीं किया था और वागेश्वरी अपने सरलव्रत से उसके जीवन में प्रकाश फैलाती थी।
दूसरे दिन जेनी ने उसे जाकर कहा- तुम इतनी शराब क्यों पीते हो? देखते नहीं तुम्हारी क्या दशा हो रही है?
मनहर ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा- तुम कौन हो?
जेनी- तुम मुझे नहीं पहचानते हो? इतनी जल्द भूल गए।
मनहर- मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा। मैं तुम्हें नहीं पहचानता।
जेनी ने और अधिक बातचीत नहीं की। उसने मनहर के कमरे से शराब की बोतलें उठवा दीं और नौकरों को ताकीद कर दी कि उसे एक घूंट भी शराब की न दी जाए। उसे अब कुछ सन्देह होने लगा था क्योंकि मनहर की दशा उससे कहीं शंकाजनक थी जितना वह समझती थी। मनहर का जीवित और स्वस्थ रहना उसके लिए आवश्यक था। इसी घोड़े पर बैठकर वह शिकार खेलती थी। घोड़े के बगैर शिकार का आनन्द कहां?
मगर एक सप्ताह हो जाने पर भी मनहर की दशा में की अंतर न हुआ। न मित्रों को पहचानता, न नौकरों को। पिछ्ले तीन वर्षों का जीवन एक स्वप्न की भांति मिट गया था।
सातवें दिन जेनी सिविल सर्जन को लेकर आई तो मनहर का कहीं पता नहीं था।

8

पांच साल के बाद वागेश्वरी का लुट हुआ सुहाग फिर चेता। मां-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अन्धे हो चुके थे। वागेश्वरी निराशा में भी आस बांधे बैठी हुई थी। उसका मायका सम्पन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर धैर्य और व्रत की देवी घर से न टली।
जब मनहर भारत आया, तो वागेश्वरी ने सुना कि वह विलायत से एक मेम लाया है। फिर भी उसे आशा थी कि वह आएगा, लेकिन उसकी आशा पूरी न हुई। फिर उसने सुना वह ईसाई हो गया है। आचार-विचार त्याग दिया है। तब उसने माथा ठोंक लिया।
घर की व्यवस्था दिन-दिन बिगड़ने लगी। वर्षा बन्द हो गई और सागर सूखने लगा। घर बिका, कुछ जमीन थी वह बिकी, फिर गहनों की बारी आई। यहं तक कि अब केवल आकाशी वृत्ति थी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठंडा पड़ा रहा।
एक दिन संध्या समय वह कुए पर पानी भरने गई थी के एक थका हुआ, जीर्ण, विपत्ति का मारा जैसा आदमी आकर कुए की जगत पर बैठ गया। वागेश्वरी ने देखा तो मनहर! उसने तुरन्त घूंघट काढ़ लिया। आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय की हृदय में फुरेरियां उड़ने लगीं। रस्सी और कलसा कुए पर छोड़कर लपकी हुई घर आई और सास से बोली- अम्मांजी, जरा कुएँ पर जाकर देखो कौन आया है। सास न कहा- तू पानी भरने गई थी या तमाशा देखने? घर में एक बूंद पानी की नहीं है। कौन आया है कुए पर?
'चलकर देख लो न'
कोई सिपाही प्यादा होगा। अब उनके सिवा कौन आने वाला है। कोई महाजन तो नहीं है?
'नही अम्मां, तुम चली क्यों नहीं चलती?'
बूढ़ी माता भांति-भांति की शंकाए करती हुई कुए पर पहुंची, तो मनहर दौड़कर उनके पैरों में लिपट गया। माता ने उसे छाती से लगाकर कहा- तुम्हारी यह दशा है, मानू? क्या बीमार हो? असबाब कहां है?
मनहर ने कहा- पहले कुछ खाने को दो अम्मा! बहुत भूखा हूं। मैं बड़ी देर से पैदल चला आ रहा हूं।
गांव में खबर फैल गई कि मनहर आया है। लोग उसे देखने दौड़ पड़े। किस ठाट से आया है? ऊंचे पद पर है। हजारों रुपये पाता है। अब उसके ठाट का क्या पूंछना! मेम भी साथ आई है या नहीं?
मगर जब आकर देखा, तो आफत का मारा आदमी, फटेहाल, कपड़े तार-तार, बाल बढ़े हुए, जैसे जेल से आया हो।
प्रश्नों की बौछार होने लगी- हमने तो सुना था तुम किसी ऊंचे पद पर हो।
मनहर ने जैसे किसी भूली बात को याद करने का विफल प्रयास किया- मैं! मैं तो किसी ओहदे पर नहीं।
'वाह! विलायत से मेम नहीं लाए थे?'
मनहर ने चकित होकर कहा- विलायत! कौन विलायत गया था?
'अरे भंग तो नहीं खा आए हो। विलायत नहीं गए थे?
मनहर मूढ़ों की भांति हंसा- मैं विलायत क्या करने जाता?
'अजी तुमको वजीफा नहीं मिला था? यहां से तुम विलायत गए थे। तुम्हारे पत्र बराबर आते थे। अब कहते हो मैं विलायत गया ही नहीं। होश में हो या हम लोगों को उल्लू बना रहे हो?'
मनहर ने उन लोगों की तरफ आंखे फाड़ कर देखा और बोला- मैं तो कहीं नहीं गया था। आप लोग न जाने क्या कह रहे हैं।
अब इसमें सन्देह की गुन्जाइश न रही कि वह अपने होशोहवास में नहीं है। उसे विलायत जाने के पहले की सारी बातें याद थीं। गांव और घर के एक-एक आदमी को पहचानता था; लेकिन जब इंग्लैण्ड, अंग्रेज बीवी और ऊंचे पद का जिक्र आता तो भौचक्का होकर ताकने लगता। वागेश्वरी को अब उसके प्रेम में एक अस्वाभाविक अनुराग दीखता, जो उसे बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थी कि उसके व्यवहार और आचरण में पहले जैसी बेतकल्लुफी हो। वह प्रेम का स्वांग नहीं, प्रेम चाहती थी। दस ही पांच दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं है, वरन् कोई मानसिक विकार है। मनहर ने मां बाप का इतना अदब पहले कभी नहीं किया था। उसे अब मोटे से मोटा काम करने में कोई संकोच नहीं था। वह, जो बाजार से साग-सब्जी लाने में अपना अनादर समझता था, अब कुए से पानी खींचता, लकड़ियां फाड़ता और घर में झाड़ू लगाता था और अपने घर में ही नहीं, सारे मुहल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी।
एक बार मुहल्ले में चोरी हो गयी। पुलिस ने बहुत दौड़-धूप की; पर चोरों का पता न चला। मनहर ने चोरी का पता ही नहीं लगा दिया, वरन् माल भी बरामद करा दिया। इससे आस-पास के गांवों और मुहल्लों में उसका यश फैल गया। कोई चोरी होती तो लोग उसके पास दौड़े आते और अधिकांश उध्योग उसके सफल भी होते। इस तरह उसकी जीविका की एक व्यवस्था हो गई। वह अब वागेश्वरी के इशारों का गुलाम था। उसी की दिल्जोई और सेवा में उसके दिन कटते। अगर उसमें विकार या बीमारी का कोई लक्षण था तो वह इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गयी थी।
वागेश्वरी को उसकी दशा पर दुःख होता; पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थ्य से उसे कही प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूंछता था।

9

छः महीनों के बाद एक दिन जेनी मनहर का पता लगाती हुई आ पहुंची। हांथ में जो कुछ था, वह सब उड़ा चुकने के बाद अब उसे किसी आश्रय की खोज थी। उसके चाहने वालों में कोई ऐसा न था, जो उसकी आर्थिक सहायता करता। शायद अब जेनी को कुछ ग्लानि भी होती थी। वह अपने किए पर लज्जित थी।
द्वार पर हार्न की आवाज सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा मानो कभी देखा ही नहीं हो।
जेनी ने मोटर से उतरकर उससे हांथ मिलाया और अपनी आप-बिती सुनाने लगी- तुम इस तरह छिपकर मुझसे क्यों चले आये? और फिर आकर एक पत्र भी नहीं लिखा। आखिर मैंने तुम्हारे साथ क्या बुराई की थी। फिर मुझमें कोई बुराई देखी थी, तो तुम्हे था कि मुझे सावधान कर देते। छिपकर चले आने का क्या फायदा हुआ। ऐसी अच्छी जगह मिल गई थी वो भी हाथ से निकल गई।
मनहर काठ के उल्लू की भांति खड़ा रहा।
जेनी ने फिर कहा- तुम्हारे चले आने के बाद मेरे ऊपर जो संकट आए, वह सुनाऊं तो तुम घबरा जाओगे। मैं इसी चिन्ता और दुःख से बीमार हो गई। तुम्हारे बगैर मेरा जीवन निरर्थक हो गया। तुम्हारा चित्र देखकर मन को ढ़ांढस देती थी। तुम्हारे पत्रों को आदि से अन्त तक पढ़ना मेरे लिए सबसे मनोरंजक विषय था। तुम मेरे साथ चलो मैंने एक डाक्टर से बात की है, वह मस्तिष्क के विकारों का डाक्टर है। मुझे आशा है उसके उपचार से तुम्हे लाभ होगा।
मनहर चुपचाप विरक्त भाव से खड़ा रहा, मानो न वह कुछ देख रहा है, न सुन रहा है।
सहसा वागेश्वरी निकल आई। जेनी को देखते ही वह ताड़ गई कि यही मेरी यूरोपियन सौत है। वह उसे बड़े आदर-सत्कार के साथ भीतर ले आई। मनहर भी उनके पीछे-पीछे चला आया।
जेनी ने टूटी खाट पर बैठत हुए कहा। इन्होंने मेरा जिक्र तो किया ही होगा। मेरी इनसे लंदन में शादी हुई है।
वागेश्वरी बोली- यह तो मैं आपको देखते ही समझ गई थी।
जेनी- इन्होंने कभी मेरा जिक्र नहीं किया?
वागेश्वरी- कभी नहीं। इन्हें तो कुछ याद नहीं। आपको यहां आने में बड़ा कष्ट हुआ होगा?
जेनी- महीनों के बाद तब इनके घर का पता चला। वहां से बिना कुछ कहे सुने चल दिए।
'आपको कुछ मालूम है, इन्हें क्या शिकायत है?'
'शराब बहुत पीने लगे थे। आपने किसी डाक्टर को नहीं दिखाया?'
हमने तो किसी को नहीं दिखाया।'
जेनी ने तिरस्कार से कहा- क्यों? क्या आप उन्हें हमेशा बीमार रखना चाहती हैं?
वागेश्वरी ने बेपरवाही से कहा- मेरे लिए तो इनका बीमार रहना इनके स्वस्थ रहने से कहीं अच्छा है। तब वह अपनी आत्मा को भुले हुए थे अब उसे पा गए।
फिर उसने निर्दय कटाक्ष करके कहा- मेरे विचार में तो वह तब बीमार थे।
जेनी ने चिढ़कर कहा- नान्सेंस! इनकी किसी विशेषज्ञ से चिकित्सा करानी होगी। यह जासूसी में बड़े कुशल हैं। इनके सभी अफसर इनसे प्रसन्न थे। वह चाहें तो अब भी वह जगह उन्हें मिल सकती है। अपने विभाग में ऊंचे से ऊंचे पद तक पहुंच सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इनका रोग असाध्य नहीं है; हां, विचित्र अवश्य है। आप क्या इनकी बहन हैं?
वागेश्वरी ने मुस्कुराकर कहा- आप तो गाली दे रहीं हैं। यह मेरे स्वामी हैं।
जेनी पर मानो वज्रपात हुआ। उसके मुख पर से नम्रता का आवरण हट गया और मन में छुपा हुआ क्रोध जैसे दांत पीसने लगा।
उसकी गर्दन की नसें तन गयीं, दोनों मुट्ठियां बंध गयीं। उन्मत्त होकर बोली- बड़ा दगाबाज आदमी है। इसने मुझसे बड़ा धोका किया। मुझसे इसने कहा कि मेरी स्त्री मर गई है। कितना बड़ा धूर्त है! यह पागल नहीं है। इसने पागलपन का स्वांग भरा है। मैं अदालत से इसकी सजा कराऊंगी।
क्रोधावेश के कारण वह कांप उठी। फिर रोते हुए बोली- इस दगाबाजी का मैं इसे मजा चखाऊंगी। ओह! इसने मेरा कितना घोर अपमान किया है। ऐसा विश्वास घात करने वाले को जो दण्ड दिया जाए वह थोड़ा है। इसने कैसी मीठी-मीठी बातें करके मुझे फांसा। मैंने ही इसे जगह दिलाई, मेरे ही प्रयत्नों से यह बड़ा आदमी बना। इसके लिए मैने अपना घर छोड़ा, अपना देश छोड़ा और इसने मेरे साथ ऐसा कपट किया।
जेनी सिर पर हांथ रखकर बैठ गई। फिर तैश में उठी और मनहर के पास जाकर उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली- मैं तुम्हे खराब करके छोड़ूंगी। तूने मुझे समझा क्या है।
मनहर इस तरह शान्त भाव से खड़ा रहा, मानो उससे उसे कोई प्रयोजन ही नहीं है।
फिर वह सिंहनी की भांति मनहर पर टूट पड़ी और उसे जमीन पर गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। वागेश्वरी ने उसका हांथ पकड़कर अलग कर दिया और बोली- तुम ऐसी डायन न होती, तो उनकी यह दशा क्यों होती?
जेनी ने तैश में आकर जेब से पिस्तौल निकाली और वागेश्वरी की तरफ बढ़ी। सहसा मनहर तड़पकर उठा, उसके हांथ से भरा हुआ पिस्तौल छीनकर फेंक दिया और वागेश्वरी के सामने खड़ा हो गया। फिर ऐसा मुंह बना लिया मानो कुछ हुआ ही नहीं हो।
उसी वक्त मनहर की माताजी दोपहरी की नींद सोकर उठीं और जेनी को देखकर वागेश्वरी की ओर प्रश्न भरी आंखो से ताका।
वागेश्वरी ने उपहास भाव से कहा- यह आपकी बहू है।
बुढ़िया ठिनककर बोली- कैसी मेरी बहू? यह मेरी बहू बनने जोग है बंदरिया?
लड़के पर न जाने क्या कर करा दिया, अब छाती पर मूंग दलने आई है?
जेनी एक क्षण तक मनहर को खून भरी आंखो से देखती रही। फिर बिजली की भांति कौंधकर उसने आंगन में पड़ा पिस्तौल उठा लिया और वागेश्वरी पर छोड़ना ही चाहती थी कि मनहर सामने आ गया। वह बेधड़क जेनी के सामने चला गया। उसके हांथ से पिस्तौल छीन लिया और अपनी छाती में गोली मार ली।