भाग-2 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-2 - godan - munshi premchand by मुंशी प्रेमचंद

भाग-2 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-2 - godan - munshi premchand

गोदान – भाग-2

सेमरी और बेलारी दोनों अवध प्रान्त के गांव हैं । जिले का नाम बताने की कोई ज़रूरत नहीं । होरी बेलारी में रहता है, राय साहब अमरपाल सिंह सेमरी में । दोनों गाँवों में केवल पाँच मील का अन्तर है । पिछले सत्याग्रह संग्राम में राय साहब ने बड़ा यश कमाया था । कौंसिल की मेम्बरी छोड़कर जेल चले गये थे । तब से उनके इलाके के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गयी थी । यह नहीं कि उनके इलाके में असामियों के साथ कोई खास रियायत की जाती हो, या डाँड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम हो; मगर यह सारी बदनामी मुख़्तारों के सिर जाती थी । राय साहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था । वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के गुलाम थे । जाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया है, वैसा ही होगा । राय साहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी, इसलिए आमदनी और अधिकार में जीभर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था । असामियों से वह हँसकर बोल लेते थे, यही क्या कम है? सिंह का काम तो शिकार करना है, अगर वह गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता । शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता ।
राय साहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाये रखते थे । उनकी नजरें और डालियाँ, कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थी । साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौक़ीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशानेबाज । उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थे, मगर दूसरी शादी न की थी । हँस-बोलकर अपने विधुर जीवन को बहलाते रहते थे ।
होरी ड्योढ़ी पर पहुँचा तो देखा- जेठ के दशहरे के अवसर पर होने वाले धनुष-यज्ञ की बड़ी जोरों से तैयारियां हो रही हैं! कहीं रंग मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का अतिथिगृह, कहीं दूकानदारों के लिए दूकानें । धूप तेज हो गयी थी; पर राय साहब खुद काम में लगे हुए थे । अपने पिता से सम्पत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पायी थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप देकर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था । इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे और दो-तीन दिन इलाके में बड़ी चहल-पहल रहती थी । राय साहब का परिवार बहुत विशाल था । कोई डेढ़ सौ रिश्तेदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे, दर्जनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई । एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृन्दावन में रहते थे । भक्तिरस के कितने ही कवित्त रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवाकर दोस्तों को भेंट कर देते थे । एक दूसरे चचा थे, जो राम के परम भक्त थे और फारसी-भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे । रियासत से सबके वसीके बँधे हुए थे । किसी को कोई काम करने की ज़रूरत न थी ।
ADहोरी मण्डप में खड़ा सोच रहा था कि अपनी आने की सूचना कैसे दे कि सहसा राय साहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले-अरे! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलवाने वाला था । देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पड़ेगा । समझ गया न, जिस वक्त श्री जानकी जी मन्दिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक्त तू एक गुलदस्ता लिये खड़ा रहेगा और जानकी जी को भेंट करेगा । गलती न करना… और देख, असामियों से ताकीद करके कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आयें । मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं ।
वह आगे-आगे कोठी की ओर चले, होरी पीछे-पीछे चला । वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुर्सी पर बैठ गये और होरी को जमीन पर बैठने का इशारा करके बोले-समझ गया, मैंने क्या कहा । कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही; लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता । हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हजार का प्रबन्ध करना है । कैसे होगा? समझ में नहीं आता । तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे । किससे अपने मन की कहूँ? न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है । इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं बरदाश्त कर लूंगा । नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हंसी में ईर्ष्या, व्यंग्य और जलन है । और वे क्यों न हँसेंगे । मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ दिल खोलकर, तालियाँ बजाकर । सम्पत्ति और सहृदयता में बैर है । हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं । लेकिन जानते हो, क्यों? केवल अपने बराबर वालों को नीचा दिखाने के लिए । हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुद्ध अहंकार । हम में से किसी पर डिकरी हो जाये, कुर्की आ जाये, बकाया मालगुजारी की इल्लत में हवालात हो जाये, किसी का जवान बेटा मर जाये, किसी की विधवा बहू निकल जाये, किसी के घर में आग लग जाये, कोई किसी वेश्या के हाथों उल्लू बन जाये, या अपने असामियों के हाथों पिट जाये, तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगे, बगलें बजायेंगे, मानो सारे संसार की सम्पदा मिल गयी है और मिलेंगे तो इतने प्रेम से जैसे हमारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार हैं । अरे, औरतों और, हमारे चचेरे, फुफेरे, ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैं, कविता कर रहे हैं और जुए खेल रहे हैं, शराबें पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैं, वह भी मुझसे जलते हैं । आज मर जाऊँ तो घी के चिराग जलायें । मेरे दुःख को दुःख समझने वाला कोई नहीं । उनकी नज़रों में मुझे दुःखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है । मैं अगर रोता हूँ, तो दुःख की हँसी उड़ाता हूँ । मैं अगर बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है । मैं अगर अपना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता है; अगर ब्याह कर लूँ, तो वह विलासाधता होगी । अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है । शराब पीने लगूँ, तो वह प्रजा का रक्त होगा । अगर ऐयाशी नहीं करता, तो अरसिक हूँ; ऐयाशी करने लगूँ, तो फिर कहना ही क्या । इन लोगों ने मुझे भोग-विलास में फंसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते जाते हैं । उनकी यही इच्छा है कि मैं अन्धा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देखकर भी कुछ न देखूँ । सब कुछ जानकर भी गधा बना रहूँ ।
राय साहब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए दो बीड़े पान खाये और होरी के मुँह की ओर ताकने लगे. जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चाहते हों ।
होरी ने साहस बटोरकर कहा-हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैं, पर जान पड़ता है, बड़े आदमियों में भी उनकी कमी नहीं है ।
राय साहब ने मुँह पान से भरकर कहा-तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन थोड़े । गरीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है, तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए । ऐसी ईर्ष्या और वैर को मैं क्षम्य समझता हूँ । हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले तो उसके गले में उंगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है । अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं । बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनन्द के लिए है । हम इतने बड़े आदमी हो गये हैं कि हमें नीचता और कुटिलता में ही निःस्वार्थ और परम आनन्द मिलता है । हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुँच गये हैं जब हमें दूसरों के रोने पर हंसी आती है । इसे तुम छोटी साधना मत समझो । जब इतना बड़ा कुटुम्ब है तो कोई न-कोई तो हमेशा बीमार रहेगा ही । और बड़े आदमियों के रोग बड़े होते हैं । वह बड़ा आदमी ही क्या, जिसे कोई छोटा रोग हो । मामूली ज्वर भी आ जाय, तो हमें सरसाम की दवा दी जाती है । मामूली फुन्सी भी निकल आये, तो वह जहरबाद बन जाती है । अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार से बुलाये जा रहे हैं । मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा है, भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता । उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिषाचार्य कुण्डली का विचार कर रहे हैं ओर तन्त्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं । राजा साहब को यमराज के मुँह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है । वैद्य और डॉक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब इनके सिर में दर्द हो और कब उसके घर में सोने की वर्षा हो । और ये रुपये तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किये जाते हैं, भाले की नोंक पर । मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालता; मगर नहीं, आश्चर्य करने की कोई बात नहीं । भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगती, वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है । हम जौ-जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भरम हो रहे हैं, उस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं; और रूपवती स्त्री की भाँति सभी के हाथों का खिलौना बनते हैं । दुनिया समझती है, हम बड़े सुखी हैं । हमारे पास इलाके, महल, सवारियाँ, नौकर-चाकर, कर्ज़, वेश्याएँ क्या नहीं हैं, लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है । जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो, जिसके दुःख पर सब हँसें और रोने वाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरों के पैरों के नीचे दबी हो, जो भोग-विलास के नशे में अपने को बिलकुल भूल गया हो, जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का खून चूसता हो, उसे मैं सुखी नहीं कहता । वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है । साहब शिकार खेलने आयें या दौरे पर, मेरा कर्तव्य है कि उनकी दुम के पीछे लगा रहूँ । उनकी भौहों पर शिकन पड़ी, और हमारे प्राण सूखे । उन्हें प्रसन्न करने के लिए हम क्या नहीं करते? मगर वह पचड़ा सुनाने लगूँ, तो शायद तुम्हें विश्वास न आये । डालियों और रिश्वतों तक तो खैर गनीमत है, हम सिजदे करने को भी तैयार रहते हैं । मुफ्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफसरों के सामने दुम हिला-हिलाकर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपनी प्रजा पर आतंक जमाना ही हमारा उद्यम है । पिछलग्गुओं की खुशामद ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिजाज बना दिया है कि हममें शील, विनय और सेवा का लोप हो गया है । मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सरकार हमारे इलाके छीनकर हमें अपनी रोजी के लिए मेहनत करना सिखा दे तो हमारे साथ महान उपकार करे और यह तो निश्चय है कि अब सरकार भी हमारी रक्षा न करेगी । हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता । लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है । मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ । ईश्वर वह दिन जल्द लाये । वह हमारे उद्धार का दिन होगा । हम परिस्थितियों के शिकार बने हुए हैं । यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है और जब तक संपत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, जब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे जिस पर पहुँचना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
राय साहब ने फिर गिलौरी-दान निकाला और कई गिलौरियाँ निकालकर मुँह में भर ली । कुछ और कहने वाले थे कि एक चपरासी ने आकर कहा- सरकार, बेगारों ने काम करने से इनकार कर दिया है । कहते हैं, जब तक हमें खाने को न मिलेगा हम काम न करेंगे । हमने धमकाया तो सब काम छोड़कर अलग हो गये । राय साहब के माथे पर बल पड़ गये । आँखें निकालकर बोले- चलो मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूँ । जब कभी खाने को नहीं दिया तो आज यह नयी बात क्यों? एक आने रोज के हिसाब से मजूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मजूरी पर उन्हें काम करना होगा सीधे करें या टेढ़े ।
फिर होरी की ओर देखकर बोले- तुम अब जाओ होरी, अपनी तैयारी करो । जो बात मैंने कही है, उसका ख्याल रखना । तुम्हारे गाँव से मुझे कम-से-कम पाँच सौ की आशा है ।
राय साहब झल्लाते हुए चले गये । होरी ने मन में सोचा अभी यह कैसी-कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गए ।
सूर्य सिर पर आ गया था । उसके तेज से अभिभूत होकर वृक्षों ने अपना पसार समेट लिया था । आकाश पर मटियाला गर्द छाया हुआ था और सामने की पृथ्वी काँपती हुई जान पड़ती थी ।
होरी ने अपना डण्डा उठाया और घर चला । शगुन के रुपये कहाँ से आयेंगे, यही चिन्ता उसके सिर पर सवार थी ।