भाग-16 - गोदान - मुंशी प्रेमचंद | bhag-16 - godan - munshi premchand
गोदान – भाग-16
राय साहब को जब ख़बर मिली कि इलाके में एक वारदात हो गयी और होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फौरन नोखेराम को बुलाकर जवाब-तलब किया- क्यों उन्हें इसकी इत्तला नहीं दी गयी । ऐसे नमकहराम दगाबाज आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है ।
नोखेराम ने इतनी गालियाँ खायी, तो ज़रा गर्म होकर बोले-मैं अकेला थोड़ा ही था । गांव के और पंच भी तो थे । मैं अकेला क्या कर लेता?
राय साहब ने उनकी तोंद की तरफ भाले-जैसी नुकीली दृष्टि से देखा-मत बको जी! तुम्हें उसी वक़्त कहना चाहिए था, जब तक सरकार को इत्तला न हो जाय, मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूंगा । पंचों को मेरे और मेरे रियाया के बीच में दखल देने का हक क्या है? इस डांड-बांध के सिवा इलाके में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गयी । बकाया असामियों ने दबा लिया । तब मैं कही जाऊँ? क्या खाऊं, तुम्हारा सिर! यह लाखों रुपये साल का खर्च कहीं से आये? खेद है कि दो पुश्तों से कारिन्दगीरी करने पर भी मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है । कितने रुपये वसूल हुए थे होरी से?
नोखेराम ने सिटपिटा कर कहा-अस्सी रुपये!
‘नकद?
‘नकद उसके पास कही थे हुजूर! कुछ अनाज दिया, बाकी में अपना घर लिख दिया ।’
राय साहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़कर होरी का पक्ष लिया-अच्छा तो आपने और बगुलाभगत पंचों ने मिलकर मेरे एक मातबर असामी को तबाह कर दिया । मैं पूछता हूँ, तुम लोगों को क्या हक था कि मेरे इलाके में मुझे इत्तला दिये बगैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करते । इसी बात पर अगर मैं चाहूँ, तो आपको और उस जालिए पटवारी और उस धूर्त पण्डित को सात-सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूँ । आपने समझ लिया कि आप ही इलाके के बादशाह हैं । मैं कहे देता हूँ आज शाम तक जुरमाने की पूरी रकम मेरे पास पहुँच जाये; वरना बुरा होगा । मैं एक-एक से चक्की पिसवाकर छोड़ूंगा । जाइए, हां, होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा ।
नोखेराम ने दबी जवान से कहा-उसका लड़का तो गांव छोड़कर भाग गया । जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा!
राय साहब ने रोष से कहा-झूठ मत बोलो । तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है । मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपनी प्रेमिका को उसके घर से लाकर फिर खुद भाग जाये । अगर उसे भागना ही होता, तो वह उसकी लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी जरूर कोई शरारत है । तुम गंगा में डूबकर भी अपनी कसम दो, तो मानने का नहीं । तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा । बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता!
नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके । मालिक जो कुछ कहें वह ठीक है । वह यह भी न कह सके कि आप खुद चलकर झूठ-सच की जाँच कर लें । बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है । अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता । पंचों ने राय साहब का फैसला सुना, तो नशा हिरन हो गया । अनाज तो अभी तक ज्यों-का-त्यों पड़ा था; पर रुपये तो कब के गायब हो गये । होरी का मकान रेहन लिखा गया था; पर उस मकान को देहात में कौन पूछता था । जैसे हिन्दू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी है, और पति त्याग दे, तो कहीं की नहीं रहती, उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपये का है, पर उसकी असली कीमत कुछ भी नहीं है । और इधर राय साहब बिना रुपये लिए मानने को नहीं । यही होरी जाकर रो आया होगा । पटेश्वरी लाल सबसे ज्यादा भयभीत थे । उनकी तो नौकरी ही चली जायेगी । चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थे, पर किसी की अक्ल काम न करती थी । एक दूसरे पर दोष रखते थे । फिर खूब झगड़ा हुआ ।
पटेश्वरी ने अपनी लम्बी शंकाशील गर्दन हिलाकर कहा-मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साधकर रह जाना चाहिए । गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा । इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगा, नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, मगर तुम लोगों को रुपये की पड़ी थी । निकालो बीस-बीस रुपये । अब भी कुशल है । कहीं राय साहब ने रपट कर दी, तो सब जने बँध जाओगे ।
दातादीन ने ब्रह्मतेज दिखाकर कहा-मेरे पास बीस रुपये की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं । ब्राह्मणों को भोज दिया, होम हुआ । क्या इसमें कुछ खरच ही नहीं हुआ? राय साहब की हिम्मत है कि मुझे जेहल ले जायं? ब्रह्म बनकर घर-का-घर मिटा दूँगा । अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा ।
झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय से शब्द कहे । वह राय साहब के नौकर नहीं हैं । उन्होंने होरी को मारा नहीं, पीटा नहीं, कोई दबाव नहीं डाला । होरी अगर प्रायश्चित्त करना चाहता था, तो उन्होंने इसका अवसर दिया । इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकता, मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी । यहाँ मजे से बैठे राज करते थे, वेतन तो दस रुपये से ज्यादा न था, पर एक हजार साल की ऊपर की आमदनी थी, सैकड़ों आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे हाजिर, बेगार में साल काम हो जाता था, थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें और कहीं था! और पटेश्वरी तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे । कही जा सकते थे? दो-तीन दिन इसी चिन्ता में पड़े रहे कि कैसे इस विपत्ति से निकलें । आखिर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया । कभी-कभी कचहरी में उन्हें दैनिक ‘बिजली’ देखने को मिल जाती थी । यदि एक गुमनाम पत्र उसके सम्पादक की सेवा में भेज दिया जाय कि रायसाहब किस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैं, तो बच्चा को लेने के देन पड़ जायं । नोखेराम भी सहमत हो गए । दोनों ने मिलकर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्ट्री से भेज दिया ।
सम्पादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे । पत्र पाते ही तुरन्त रायसाहब को सूचना दी । उन्हें एक ऐसा समाचार मिला है, जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा नहीं होती, पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण दिये हैं कि सहसा अविश्वास ही नहीं किया जा सकता । क्या यह सच है कि रायसाहब ने अपने इलाके के एक असामी से अस्सी रुपये तावान इसलिए वसूल किए कि उसके पुत्र ने एक विधवा को घर में डाल लिया था? सम्पादक का कर्तव्य उन्हें मजबूर करता है कि वह मुआमले की जाँच करें और जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर दें । सम्पादक जी दिल से चाहते हैं कि वह यह ख़बर ग़लत हो लेकिन उसमें कुछ भी सत्य हुआ, तो उसे प्रकाश में लाने के लिए विवश हो जायँगे । मैत्री उन्हें कर्तव्य-पथ से नहीं हटा सकती ।
रायसाहब ने यह सूचना पायी, तो सिर पीट लिया । पहले तो उनको ऐसी उत्तेज़ना हुई कि जाकर ओंकारनाथ को गिनकर पचास हंटर जमाएँ और कह दें, जहाँ वह पत्र छापना, वहाँ यह समाचार भी छाप देना, लेकिन इसका परिणाम सोचकर मन को शान्त किया और तुरन्त उनसे मिलने चले । अगर देर की, और ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप दिया, तो उनके सारे यश में कालिमा पुत जायगी । ओंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के लिए सम्पादकीय लेख लिखने की चिन्ता में बैठे हुए थे, पर मन पक्षी की भाँति उड़ा-उड़ा फिरता था । उनकी धर्मपत्नी ने रात में उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थी, जो अभी तक काँटों की तरह चुभ रही थी । उन्हें कोई दरिद्र कह ले, अभागा कह ले, बुद्ध कह ले, वह ज़रा भी बुरा नहीं मानते थे, लेकिन यह कहना कि उनमें पुरुषत्व नहीं है, यह उनके लिए असह्य था । और फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या हक है? उससे तो यह आशा की जाती है कि कोई इस तरह का आक्षेप करे, तो उसका मुँह बन्द कर दे । बेशक वह ऐसी खबरें नहीं छापते, ऐसी टिप्पणियाँ नहीं करते कि सिर पर कोई आफत आ जाय । फूँक-फूँककर कदम रखते हैं । इन काले कानूनों के युग में वह और कर ही क्या सकते है, मगर वह क्यों साँप के बिल में हाथ नहीं डालते? इसलिए तो कि उनके घर वालों को कष्ट न उठाना पड़े । और उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है? क्या अंधेर है! उनके पास रुपये नहीं हैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मंगा दें? डॉक्टर, सेठ और प्रोफेसर भाटिया और न जाने किस-किस की स्त्रियां बनारसी साड़ी पहनती हैं, तो वह क्या करें? क्यों उनकी पत्नी इन साड़ी वालियों को अपनी खद्दर की साड़ी से लज्जित नहीं करती? उनकी खुद तो यह आदत है कि किसी बड़े आदमी से मिलने जाते हैं, तो मोटे-से-मोटे कपड़े पहन लेते हैं और कोई कुछ आलोचना करे, तो उसका मुँहतोड़ जवाब देने को तैयार रहते हैं । उनकी पत्नी में क्यों वही आत्माभिमान नहीं हैं? वह क्यों दूसरों का ठाठ-बाट देखकर विचलित हो जाती है? उसे समझना चाहिए कि यह एक देश-भक्त पुरुष की पत्नी है । देश-भक्त के पास अपनी भक्ति के सिवा और क्या सम्पत्ति है? इसी विषय को आज के अग्रलेख का विषय बनाने की कल्पना करते-करते उनका ध्यान रायसाहब के मुआमले की ओर जा पहुँचा । रायसाहब सूचना का क्या उत्तर देते हैं’ यह देखना है । अगर वह अपनी सफाई देने में सफल हो जाते हैं, तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह यह समझे कि ओंकारनाथ दबाव, भय या मुलाहजे में आकर अपने कर्तव्य से मुँह फेर लेंगे तो यह उनका भ्रम है । इस सारे तप और साधना का पुरस्कार उन्हें इसके सिवा और क्या मिलता है कि अवसर पड़ने पर वह इन कानूनी डकैतों का भंडाफोड़ करें । उन्हें खूब मालूम है कि रायसाहब बड़े प्रभावशाली जीव हैं । काउन्सिल के मेम्बर तो हैं ही, अधिकारियों में भी उनकी काफी रूसूख है । वह चाहें, तो उन पर झूठे मुकद्दमें चलवा सकते हैं, अपने गुण्डों से राह चलते पिटवा सकते हैं, लेकिन ओंकार इन बातों से नहीं डरता । जब तक उसकी देह में प्राण है, वह आततायियों की ख़बर लेता रहेगा ।
सहसा मोटरकार की आवाज सुनकर वह चौंके, तुरन्त कागज लेकर अपना लेख आरम्भ कर दिया । और एक ही क्षण में रायसाहब ने उनके कमरे में कदम रखा ।
ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत किया, न कुशलक्षेम पूछा, न कुरसी दी । उन्हें इस तरह देखा, मानों कोई मुलजिम उनकी अदालत में आया हो और रोब से मिले हुए स्वर में पूछा-आपको मेरा पुरजा मिल गया था? मैं वह पत्र लिखने के लिए बाध्य नहीं था, मेरा कर्तव्य यह था कि स्वयं उसकी तहकीकात करता, लेकिन मुरौवत में सिद्धान्तों की कुछ-न-कुछ हत्या करनी ही पड़ती है । क्या उस संवाद में कुछ सत्य है?
रायसाहब उसका सत्य होना अस्वीकार न कर सके । हालाँकि अभी उन्हें जुरमाने के रुपये नहीं मिले थे और वह उनके पाने से साफ इनकार कर सकते थे, लेकिन वह देखना चाहते थे कि यह महाशय किस पहलू पर चलते हैं ।
ओंकारनाथ ने खेद प्रकट करते हुए कहा-तब तो मेरे लिए उस संवाद को प्रकाशित करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है । मुझे इसका दुःख है कि मुझे अपने एक परम हितैषी मित्र की आलोचना करनी पड़ रही है, लेकिन कर्तव्य के आगे व्यक्ति कोई चीज़ नहीं । संपादक अगर अपना कर्तव्य न पूरा कर सके तो उसे इस आसन पर बैठने का कोई हक नहीं है ।
रायसाहब कुर्सी पर डट गए और पान की गिलौरियाँ मुहँ में भरकर बोले-लेकिन यह आपके हक में अच्छा न होगा । मुझे जो कुछ होना है, पीछे होगा, आपको तत्काल दण्ड मिल जायेगा, अगर आप मित्रों की परवाह नहीं करते, तो मैं भी उसी कैंड़े का आदमी हूँ ।
ओंकारनाथ ने शहीद का गौरव धारण करके कहा-इसका तो मुझे कभी भय नहीं हुआ । जिस दिन मैंने पत्र-सम्पादन का भार लिया, उसी दिन प्राणों का मोह छोड़ दिया, और मेरे समीप एक सम्पादक की सबसे शानदार मौत यही है कि वह न्याय और सत्य की रक्षा करता हुआ अपना बलिदान कर दे ।
‘अच्छी बात है । मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूँ । मैं अब तक आपको मित्र समझता आया था, मगर अब आप लड़ने ही पर तैयार हैं, तो लड़ाई ही सही । आखिर मैं आपके पत्र का पांच गुना चन्दा क्यों देता हूँ? केवल इसीलिए कि वह मेरा गुलाम बना रहे । मुझे परमात्मा ने रईस बनाया है । पचहत्तर रुपया देता हूँ, इसीलिए कि आपका मुँह बन्द रहे । जब आप घाटे का रोना रोते हैं और सहायता की अपील करते हैं, और ऐसी शायद ही कोई तिमाही जाती हो, जब आपकी अपील न निकलती हो, तौ मैं ऐसे मौके पर आपकी कुछ-न-कुछ मदद कर देता हूँ । किसलिए? दीपावली, दशहरा, होली में आपके यही बैना भेजता हूँ, और साल में पच्चीस बार आपकी दावत करता हूँ, किसलिए’ आप रिश्वत और कर्तव्य दोनों साथ-साथ निभा नहीं सकते ।
ओंकारनाथ उत्तेजित होकर बोले-मैंने कभी रिश्वत नहीं ली ।
रायसाहब ने फटकारा-अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो रिश्वत क्या है? ज़रा मुझे समझा दीजिए । क्या आप समझते हैं, आपको छोड़कर और सभी गधे हैं, जो निस्वार्थ-भाव से आपका घाटा पूरा करते हैं? निकालिए अपनी बही और बतलाइए, अब तक आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका है? मुझे विश्वास है, हज़ारों की रकम निकलेगी । अगर आपको स्वदेशी-स्वदेशी चिल्लाकर विदेशी दवाओं और वस्तुओं का विज्ञापन छापने में शर्म नहीं आती, तो मैं अपने असामियों से डाँड़, तावान और जुर्माना लेते क्यों शरमाऊँ? यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाए हुए हैं । मुझे किसानों के साथ जलना-मरना है, मुझसे बढ़कर दूसरा उनका हितेच्छु नहीं हो सकता, लेकिन मेरी गुजर कैसे हो? अफसरों को दावतें कही से दूँ, सरकारी चन्दे कही से दूँ, खानदान के सैकड़ों आदमियों की जरूरतें कैसे पूरी करूँ? मेरे घर का क्या खर्च है, यह शायद आप जानते हैं । तो क्या मेरे घर में रुपये फलते हैं? आएगा तो असामियों ही के घर से । आप समझते होंगे, ज़मींदार और तालुकेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं । उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं, अगर वह धर्मात्मा बनकर रहें, तो उनका जिन्दा रहना मुश्किल हो जाय । अफसरों को डालियाँ न दें, तो जेलखाना घर हो जाय । हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें । न गरीबों का गला दबाना कोई बड़े आनन्द का काम है, लेकिन मर्यादाओं का पालन करना ही पड़ता है । जिस तरह आप मेरी रईसी का फायदा उठाना चाहते हैं, उसी तरह और सभी हमें सोने की मुर्गी समझते हैं । आइए मेरे बँगले पर तो दिखाऊँ कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं । कोई काश्मीर से शाल-दुशाला लिये चला आ रहा है, कोई इत्र और तम्बाकू का एजेंट है, कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं का, कोई जीवनबीमे का, कोई ग्रामोफोन लिये सिर पर सवार है, कोई कुछ । चन्दे वाले तो अनगिनती । क्या सबके सामने अपना दुखड़ा लेकर बैठ जाऊँ? ये लोग मेरे द्वार पर दुखड़ा सुनाने आते हैं । आते हैं मुझे उल्लू बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए । आज मर्यादा का विचार छोड़ दूँ, तो तालियाँ पिटने लगें । हुक्काम को डालियाँ न दूँ, तो बारी समझा जाऊँ । तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करेंगे । कांग्रेस में शरीक हुआ, उसका तावान अभी तक देता जाता हूँ । काली किताब में नाम दर्ज हो गया । मेरे सिर पर कितना कर्ज है, यह भी कभी आपने पूछा है? अगर सभी महाजन डिग्रियाँ करा लें, तो मेरे हाथ की यह अँगूठी तक बिक जायगी । आप कहेंगे, क्यों यह आडम्बर पालते हो? कहिए, सात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूँ, उससे अब निकल नहीं सकता । घास छीलना मेरे लिए असम्भव है । आपके पास जमीन नहीं, जायदाद नहीं, मर्यादा का झमेला नहीं, आप निर्भीक हो सकते हैं, लेकिन आप भी दुम दबाए बैठे रहते हैं । आपको कुछ ख़बर है, अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैं, कितने गरीबों का खून हो रहा है, कितनी देवियाँ भ्रष्ट हो रही हैं । है बूता लिखने का? सामग्री मैं देता हूँ? प्रमाणसहित ।
ओंकारनाथ कुछ नर्म होकर बोले-जब कभी अवसर आया है, मैंने कदम पीछे नहीं हटाया ।
रायसाहब भी कुछ नर्म हुए-हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि दो-एक मौको पर आपने जवाँमर्दी दिखाई है, लेकिन आपकी निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही है, प्रजाहित की ओर नहीं । आँखें न निकालिए और न मुँह लाल कीजिए । जब कभी आप मैदान में आये हैं, उसका शुभ परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इजाफा हुआ है । अगर मेरे साथ भी आप वही चाल चल रहे हों, तो आपकी खातिर करने को तैयार हूँ । रुपये न दूँगा, क्योंकि वह रिश्वत है । आपकी पत्नीजी के लिए आभूषण बनाव दूँ । है मंजूर? अब मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि आपको जो संवाद मिला, वह ग़लत है, मगर यह भी कह देना चाहता हूँ कि अपने और सभी भाइयों की तरह मैं भी असामियों से जुर्माना लेता हूँ और साल में दस-पाँच हजार रुपये मेरे हाथ लग जाते हैं, और अगर आप मेरे मुँह से यह कौर छीनना चाहेंगे, तो आप घाटे में रहेंगे । आप भी संसार में सुख से रहना चाहते हैं । मैं भी चाहता हूँ । इससे क्या फायदा कि आप न्याय और कर्तव्य का ढोंग रचकर मुझे भी जेरबार करें, खुद भी जेरबार हों । दिल की बात कहिए । मैं आपका बैरी नहीं हूँ । आपके साथ कितनी ही बार एक मौके में एक मेज पर खा चुका हूँ । मैं यह भी जानता हूँ कि आप तकलीफ में हैं । आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी खराब है । हाँ, अगर आपने हरिश्चन्द्र बनने की कसम खा ली है, तो आपकी खुशी । मैं चलता हूँ ।
रायसाहब कुर्सी से उठ खड़े हुए । ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़कर संधिभाव से कहा-नहीं-नहीं, अभी आपको बैठना पड़ेगा । मैं अपनी पोजीशन साफ कर देना चाहता हूँ । आपने मेरे साथ जो सलूक किए हैं, उनके लिए मैं आपका आभारी हूँ, लेकिन यहाँ सिद्धान्त की बात आ गई है और आप जानते हैं, सिद्धान्त प्राणों से भी प्यारे होते हैं ।
रायसाहब कुर्सी पर बैठकर ज़रा मीठे पचर में बोले-अच्छा भाई, जो चाहे लिखो । मैं तुम्हारे सिद्धान्त को तोड़ना नहीं चाहता । और तो क्या होगा, बदनामी होगी। ही, कही तक नाम के पीछे-पीछे मरूँ! कौन ऐसा ताल्लुकेदार है, जो असामियों को थोड़ा-बहुत नहीं सताता? कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाए क्या? मैं इतना ही कर सकता हूँ कि आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न मिलेगी, अगर आपको मुझ पर कुछ विश्वास है, तो इस बार क्षमा कीजिए । किसी दूसरे सम्पादक से मैं इस तरह की खुशामद न करता । उसे सरे बाजार पिटवाता, लेकिन मुझसे आपकी दोस्ती है, इसलिए दबना ही पड़ेगा । यह समाचार-पत्रों का युग है । सरकार तक उनसे डरती है । मेरी हस्ती क्या! आप जिसे चाहें बना दें । खैर, यह झगड़ा खत्म कीजिए । कहिए, आजकल पत्र की क्या दशा है? कुछ ग्राहक बढ़े?
ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव से कहा-किसी-न-किसी तरह काम चल जाता है और वर्तमान परिस्थिति में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता । मैं इस तरफ धन और भोग की लालसा लेकर नहीं आया था । इसलिए मुझे शिकायत नहीं है । मैं जनता की सेवा करने आया था और वह यथाशक्ति किए जाता हूँ । राष्ट्र का कल्याण हो, यही मेरी कामना है । एक व्यक्ति के सुख-दुःख का कोई मूल्य नहीं । रायसाहब ने ज़रा और सहृदय होकर कहा-यह सब ठीक है भाई साहब, लेकिन सेवा करने के लिए भी जीना ज़रूरी है । आर्थिक चिन्ताओं में आप एकाग्रचित होकर सेवा भी तो नहीं कर सकते । क्या ग्राहक-संख्या बिल्कुल नहीं बढ़ रही है? ‘बात यह है कि मैं अपने पत्र का आदर्श गिराना नहीं चाहता, अगर मैं आज सिनेमा-स्टारों के चित्र और चरित्र छापने लगूँ तो मेरे ग्राहक बढ़ सकते हैं, लेकिन अपनी तो वह नीति नहीं । और भी कितने ही ऐसे हथकण्डे हैं, जिनसे पत्रों द्वारा धन कमाया जा सकता है, लेकिन मैं उन्हें गर्हित समझता हूँ ।’
‘इसी का यह फल है कि आज आपका इतना सम्मान है । मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूँ । मालूम नहीं, आप उसे स्वीकार करेंगे या नहीं । आप मेरी ओर से सौ आदमियों के नाम फ्री जारी कर दीजिए । चन्दा मैं दे दूँगा ।’
ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर झुकाकर कहा-मैं धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूँ । खेद यही है कि पत्रों की ओर से जनता कितनी उदासीन है । स्कूल और कॉलिजों और मन्दिरों के लिए धन की कमी नहीं है, पर आज तक एक भी ऐसा दानी नहीं निकला, जो पत्रों के प्रचार के लिए दान देता, हालाँकि जन-शिक्षा का उद्देश्य जितने कम खर्च में पत्रों से पूरा हो सकता है, और किसी तरह नहीं हो सकता । जैसे शिक्षालयों को संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती है, ऐसे ही अगर पत्रकारों को मिलने लगे, तो इन बेचारों को अपना जितना समय और स्थान विज्ञापनों की भेंट करना पड़ता है, वह क्यों करना पड़े? मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूँ ।
रायसाहब विदा हो गए । ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी । रायसाहब ने किसी तरह की शर्त न की थी, कोई बन्धन न लगाया था, पर ओंकारनाथ आज इतनी करारी फटकार पाकर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके । परिस्थिति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था । प्रेस के कर्मचारियों का तीन महीने का वेतन बाकी पड़ा हुआ था । कागजवाले के एक हजार से ऊपर आ रहे थे, यही क्या कम था कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा ।
उनकी स्त्री गोमती ने आकर विद्रोह के स्वर में कहा-क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक न बज जाय, जगह से न उठो? कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे?
ओंकारनाथ ने दुःखी आंखों से पत्नी की ओर देखा । गोमती का विद्रोह उड़ गया । वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी । दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देखकर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो-चार जली-कटी सुना जाती थी, पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहीं, अपने दुर्भाग्य के प्रति था और इसकी थोड़ी-सी आंच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुँच जाती थी । वह उनका तपस्वी जीवन देखकर मन में कुढ़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी । बस, उन्हें थोड़ा-सा सनकी समझती थी । उनका उदास मुंह देखकर पूछा-क्यों उदास हो, पेट में कुछ गड़बड़ है क्या?
ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा-कौन उदास है, मैं? मुझे तो आज जितनी खुशी है, उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी । आज सवेरे पन्द्रह सौ की बोहनी हुई । किसी भाग्यवान का मुँह देखा था ।
गोमती को विश्वास न आया, बोली झूठे हो । तुम्हें पन्द्रह सौ कहां मिल जाते हैं? हाँ, पन्द्रह रुपये कहो तो मान लेती हूँ ।
‘नहीं-नहीं, तुम्हारे सिर की कसम, पन्द्रह सौ मारे । अभी राय साहब आये थे । सौ ग्राहकों का चन्दा अपनी तरफ से देने का वचन दे गए हैं ।’
गोमती का चेहरा उतर गया-तो मिल चुके ।’
‘नहीं, रायसाहब वादे के पक्के हैं ।’
‘मैंने किसी तालुकेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं । दादा एक तालुकेदार के नौकर थे । साल-साल भर भी तलब नहीं मिलती थी । उसे छोड़कर दूसरे की नौकरी की । उसने दो साल तक एक पाई न दी । एक बार दादा गरम पड़े तो, मारकर भगा दिया । इनके वादों का कोई करार नहीं ।
‘मैं आज ही बिल भेजता हूँ ।’
‘भेजा करो । कह देंगे, कल आना । कल अपने इलाके पर चले जायँगे । तीन महीने में लौटेंगे ।’
ओंकारनाथ संशय में पड़ गए । ठीक तो है, कहीं रायसाहब पीछे से मुकर गए तो वह क्या कर लेंगे? फिर भी दिल मजबूत करके कहा-ऐसा नहीं हो सकता । कम-से-कम रायसाब को मैं इतना धोखेबाज नहीं समझता । मेरा उनके यही कुछ बाकी नहीं है । गोमती ने उसी सन्देह के भाव से कहा-इसी से तो मैं तुम्हें बुद्ध कहती हूँ । ज़रा किसी ने सहानुभूति दिखाई और तुम फूल उठे । मोटे रईस हैं । इनके पेट में ऐसे कितने वादे हजम हो सकते हैं । जितने वादे करते हैं, अगर सब पूरा करने लगें, तो भीख माँगने की नौबत आ जाय । मेरे गाँव के ठाकुर साहब तो दो-दो, तीन-तीन साल तक बनियों का हिसाब न करते थे । नौकरों का हिसाब तो नाम के लिए देते थे । साल-भर काम लिया, जब नौकर ने वेतन माँगा, मारकर निकाल दिया । कई बार इसी नादिहेन्दी में स्कूल से उनके लड़कों के नाम कट गए । आखिर उन्होंने लड़कों को घर बुला लिया । एक बार रेल का टिकट उधार माँगा था । यह रायसाहब भी तो उन्हीं के भाईबन्द हैं । चलो भोजन करो और चक्की पीसो, जो तुम्हारे भाग्य में लिखा है यह समझ लो कि ये बड़े आदमी तुम्हें फटकारते रहें, वही अच्छा है । यह तुम्हें एक पैसा देंगे, तो उसका चौगुना अपने असामियों से वसूल कर लेंगे । अभी उनके विषय में जो कुछ चाहते हो लिखते हो । तब तो ठकुरसोहाती ही करनी पड़ेगी ।
पण्डितजी भोजन कर रहे थे, पर कौर मुँह में फँसा हुआ जान पड़ता था । आखिर बिना दिल का बोझ हलका किए, भोजन करना कठिन हो गया । बोले-अगर रुपये न दिये तो, ऐसी ख़बर लूँगा कि याद करेंगे । उनकी चोटी मेरे हाथ में है । गांव के लोग झूठी ख़बर नहीं दे सकते । सच्ची ख़बर देते तो उनकी जान निकलती है झूठी ख़बर क्या देंगे । रायसाहब के खिलाफ एक रिर्पोट मेरे पास आयी है । छाप दूँ बचा को घर से निकलना मुश्किल हो जाय । मुझे यह खैरात नहीं दे रहे हैं, बड़े दबसट में पड़कर इस राह पर आये हैं । पहले धमकियाँ दिखा रहे थे । जब देखा इससे काम न चलेगा, तो यह चारा फेंका । मैंने भी सोचा, एक इनके ठीक हो जाने से तो देश से अन्याय मिटा जाता नहीं, फिर क्यों न इस दान को स्वीकार कर लूँ? मैं अपने आदर्श से गिर गया हूँ जरूर, लेकिन इतने पर भी रायसाहब ने दगा की तो मैं भी शठता पर उतर आऊँगा । जो गरीबों को लूटता है, उसको लूटने के लिए अपनी आत्मा को बहुत समझाना न पड़ेगा ।